प्रांत-प्रांत की कहानियाँ (रचनाकार - देवी नागरानी)
महबूब
रूसी कहानी
मूल लेखक: मैक्सिम गोर्की
यह उन दिनों की बात है जब मैं शागिर्द की हैसियत से मॉस्को में रहता था। जिस जगह पर मैंने कमरा किराए पर लिया था, वह पुरातन दौर की टूटी-फूटी इमारत थी। उसमें बस यही एक फ़ायदा था कि किराया बहुत कम था।
मेरे सामने वाले कमरे में एक लड़की रहती थी जिसको औरत कहना ज़्यादा मुनासिब होगा। वह कुछ ऐसे क़िस्म की औरत थी, जिससे मेरा मतलब है, किसी के किरदार के बारे में कुछ कहना अच्छी बात नहीं! आप ख़ुद समझ जाएँ! वह पोलैंड की रहने वाली थी, सब उसे ‘टेरेसा’ के नाम से पुकारते थे। लाल बालों और लंबे क़द वाली टेरेसा के चेहरे पर कशिश के साथ एक अजीब कशमकश भी होती थी। जैसे कि उसका चेहरा पत्थर से तराश कर बनाया गया हो। उसकी आँखों में बसी हुई चमक, टैक्सी ड्राइवर वाला रवैया और उसकी शख़्सियत में नज़र आती मर्दानगी, ये सब बातें मेरे अंदर एक डर पैदा करती थीं।
उसका दरवाज़ा मेरे दरवाज़े के बिल्कुल सामने था। जब भी मुझे यक़ीन होता कि वह घर में मौजूद है तो मैं अपना दरवाज़ा कभी भी खुला नहीं रख़ता था। पर ऐसा कभी-कभार होता था। दिन में मैं कमरे में नहीं होता था, रात को वह बाहर चली जाती थी। कभी-कभी सीढ़ियों पर उससे सामना हो जाता तो उसके होंठों पर मुस्कान आ जाती थी। पर न जाने क्यों मुझे उसकी यह मुस्कान व्यंग्यात्मक लगती।
दो-तीन बार मैंने उसे नशे की हालत में दरवाज़े के पास खड़े देखा। उसके बाल खुले हुआ करते, आँखों में उदासी और वीरानी और होंठों पर वही कटक पूर्ण मुस्कान। ऐसे मौक़ों पर वह मुझसे कुछ न कुछ ज़रूर कहती थी।
“क्या ख़्याल है मेहरबान शागिर्द?” और फिर उसकी असभ्य हँसी गूँजने लगती थी, जो, उसके लिए मेरे दिल में बसी नफ़रत में और इज़ाफा कर देती।
इस तरह की मुलाक़ातों और वाक्यों से बचने के लिए मैं अपना कमरा भी बदलने को तैयार था। पर दिक्क़त यह थी कि दूसरा कोई कमरा ख़ाली नहीं था। दूसरी बात यह है कि मेरे कमरे की खिड़की से बाहर जो हसीन नज़ारा दूर-दूर तक नज़र आता था, वह सुविधा हर कमरे में न थी। इसलिए मैं दिल में ‘व्यथित’ होते हुए भी बस ख़ामोशी से उसे बर्दाश्त करता रहता था।
एक दिन खाट पर लेटा कमरे की छत को घूर रहा था और कक्षा में ग़ैर हाज़िर होने का बहाना ढूँढ़ने में व्यस्त था, तब दरवाज़ा खुला और टेरेसा तेज़ी से भीतर दाख़िल हुई।
“बादशाही बरक़रार हो जनाब शागिर्द!” उसने अपनी सख़्त आवाज़ में कहा।
“क्या बात है?” मैं उठकर बैठ गया। उसके चेहरे पर मुझे परेशानी और एक भीतरी उलझाव दिखाई दे रहा था। ये उसके व्यक्तित्व के विपरीत कुछ अजीब लक्षण थे।
“देखो,” टेरेसा शब्दों को तोलते हुए कहने लगीः “मुझे . . . मुझे . . . मैं एक निवेदन लेकर आई हूँ।”
मैं खाट पर बैठे उसे देख़ता रहा। मैंने सोचा ‘या मौला’ ये तो मेरे पास किरदार पर होने वाला हमला है। हिम्मत कर नौजवान, हिम्मत से काम लो।
टेरेसा वहीं दरवाज़े पर खड़े-खड़े कहने लगी, “मैं एक ख़त भेजना चाहती हूँ, मेरा मतलब है एक पत्र लिखवाना चाहती हूँ। बस यही बात है।”
उसकी आवाज़ आश्चर्यजनक रूप से बहुत ही नर्म, डरी हुई और गुज़ारिश करती हुई लगी। मैंने दिल ही दिल में ख़ुद पर लानत भेजी और बिना कुछ कहे उठकर लिखने वाली मेज़ के पास रखी कुर्सी पर जा बैठा।
“हूँ,” मैंने कहा, “बैठो और लिखवाओ।”
वह चुपचाप चलते हुए दूसरी कुर्सी पर सावधानी से बैठी। उसके बाद उसने मेरी ओर इस तरह देखा जैसे कोई बच्चा ग़लती करने के पश्चात शर्मसारी से देखता है।
मैंने कहा, “किसके नाम लिखवाना है?”
“बोरिस कारपोफ़ (Boris Karpov) के नाम,” उसने कहा। “वह वारसा में रहता है, तीसरे मर्कजी रोड के फ़्लैट नंबर तीन सौ बारह में।”
“जी कहिए क्या लिखवाना है।”
“मेरे प्यारे बोरिस,” उसने कहना शुरू किया। “मेरी जान, मेरे महबूब, मेरी जान तुम में अटकी हुई है। तुमने बहुत समय से कोई स्नेह भरा संदेश नहीं भेजा है। क्या तुम्हें अपनी नन्ही उदास कबूतरी की याद नहीं आती? फ़क़त तुम्हारी टेरेसा।”
मैंने बड़ी मुश्किल से अपने आप को ठहाका लगाने से रोका। ‘नन्ही उदास कबूतरी’ यानी आप ख़ुद सोचिए, कबूतरी का क़द छह फुट हो सकता है? उसके हाथ पत्थर की तरह सख़्त हो सकते हैं? बरसात के दिनों में भीगने से परहेज़ करने वाली ऐसी कबूतरी हो सकती है जिसका घोंसला पेड़ों की बजाय किसी घर की चिमनी में हो?
ऐसे में मैंने ख़ुद पर ज़ाब्ता रख़ते उससे पूछा, “यह बोरिस कौन है?”
“बोरिस कारपोफ़,” उसने सख़्त लहज़े में जैसे मुझे पूरा नाम लेने की हिदायत दी।
“एक नौजवान।”
“ . . . नौजवान!”
“हाँ, पर तुम हैरान क्यों हो? . . . क्या मुझ जैसी लड़की का कोई नौजवान महबूब नहीं हो सकता?”
मैंने उसे ग़ौर से देखा। वह जो ख़ुद को लड़की कहने पर तुली हुई थी, उसका भला क्या इलाज हो सकता है? मैंने कहा, “नौजवान महबूब हो सकता है, क्यों नहीं हो सकता?”
उसने कहा, “मैं तुम्हारी तहे दिल से शुक्रगुज़ार हूँ, यह ख़त लिखकर तुमने मुझ पर एहसान किया है। अगर तुम्हें कभी, किसी भी तरह की मदद की ज़रूरत हो तो बिना हिचकिचाहट . . .!”
“नहीं, नहीं . . . ” मैंने कहा।
“बहुत बहुत मेहरबानी।” उसने फिर कहा, “अगर किसी कमीज़ का बटन लगवाना हो या सिलाई वग़ैरह करवानी हो . . .”
मैंने अपना चेहरा शर्म से लाल होते हुए महसूस किया और सख़्ती के साथ उसकी ओर देख़ते हुए कहा कि मुझे इस तरह की किसी भी ख़िदमत की ज़रूरत नहीं है।
वह चली गई।
दो हफ़्ते बीत गए।
एक दिन शाम के वक़्त मैं खिड़की के पास खड़ा, बाहर का नज़ारा देखते हुए सैर के लिए जाने की सोच रहा था। हक़ीक़त तो यह थी कि मैं बहुत बेज़ार था, मौसम भी ख़राब था, बाहर जाकर कुछ सुकून हासिल करने की गुंजाइश कम ही थी। उस कशमकश का कोई हल निकले, यही सोच बेज़ार कर रही थी। उस वक़्त कोई और मसरूफ़ियत भी नहीं थी।
उसी वक़्त दरवाज़ा खुला और कोई अंदर चला आया।
“मेहरबान शागिर्द तुम्हें कोई व्यस्तता तो नहीं . . . है . . .?” मैंने मुड़कर टेरेसा को देखा। उसके अंदाज़ में वही नरमी और वही गुज़ारिश थी।
मैंने कहा, “नहीं . . . ऐसी कोई बात नहीं . . . क्या काम है?”
“मैं चाहती हूँ कि तुम एक और ख़त लिखकर दो।”
“जी, ‘बोरिस कारपोफ़’ के नाम?”
“नहीं इस बार यह ख़त उनकी तरफ़ से है।”
“क्या . . .?”
‘मैं भी कितनी अहमक़ हूँ,” टेरेसा ने कहा।
“यह ख़त मेरे लिए नहीं है मेहरबान शागिर्द, मैं माफ़ी चाहती हूँ। यह मेरे एक दोस्त की तरफ़ से है . . . दोस्त नहीं, एक जान-पहचान वाले की तरफ़ से है। उसकी भी मेरे जैसी यानी टेरेसा जैसी एक महबूबा है, समझ रहे हो ना? वह उसे ख़त लिखवा कर भेजना चाहता है, क्या तुम उस दूसरी टेरेसा के नाम ख़त लिख दोगे?”
मैंने ग़ौर से उसे देखा। उसके चेहरे पर परेशानी थी और उसके हाथ काँप रहे थे। धीरे-धीरे बात कुछ समझ में आने लगी।
“सुनो मैडम . . . ” मैंने कहा, “यह चक्कर क्या है? मुझे यक़ीन है कि आप मुझे हकीक़त नहीं बता रही हो। और अब तो मुझे गुमान हो रहा है कि यह बोरिस और टेरेसा कहीं भी नहीं हैं। आप इस गोरख-धंधे से मुझे दूर ही रखें। मुझे माफ़ कीजिए, उम्मीद है कि आप मेरी बात भली-भाँति समझ गई होंगी। मैं ऐसी दोस्ती हर्गिज़ भी बढ़ाना नहीं चाहता।”
मेरी बात सुनकर वह भयभीत हो गई। आगे बढ़ने या वापस जाने की कशमकश में जकड़ी हुई, कुछ कहने और न कहने के बीच में फँसी हुई। जाने अब क्या होने वाला था? शायद मुझे अंदाज़ा लगाने में ग़लती हो गई थी। शायद बात कुछ और थी।
“मेहरबान शागिर्द . . . ” उसने कहा और फिर अचानक ख़ामोश हो गई। उसने अपनी गर्दन हिलाई, मुड़कर दरवाज़े की ओर चलने लगी, दरवाज़े के पास पहुँचकर क्षण भर के लिए रुक गई और फिर बाहर निकल कर चली गई।
मैं ग़ुस्से और शर्मिंदगी की हालत में परेशान था। बाहर गैलरी से उसके दरवाज़ा खुलने और धमाके से बंद होने की आवाज़ आई। वह निश्चिंत ही बहुत ग़ुस्से में थी। मैंने दिल ही दिल में ख़ुद को कोसा और उसके पास जाकर उसे मना कर अपने कमरे में ले आकर उसकी मर्ज़ी के अनुसार ख़त लिखने का फ़ैसला किया। उसके कमरे का दरवाज़ा खोल कर भीतर गया। वह कुर्सी पर सर झुकाए बैठी थी।
“सुनो . . .!” मैंने कहा।
मेरी आवाज़ सुनते ही वह उछल कर खड़ी हो गई। उसकी आँखें लाल थी। वह तेज़ी से मेरी ओर आई, मेरे कंधे पर हाथ रखकर दर्द भरे स्वर में कहा, “मैं नहीं सुनूँगी, तुम सुनो। वह बोरिस कहीं भी न हो और ये टेरेसा ‘मैं’ भी कहीं न रहूँ, उससे तुम्हें क्या फ़र्क पड़ता है? क्या कागज़ पर क़लम चलाना तुम्हारे लिए मुश्किल काम है? कहो . . .! मान लो कि न कोई बोरिस है, न ही कोई टेरेसा है, इससे अगर तुम्हें ख़ुशी मिलती है तो ख़ुश हो जाओ।”
मैं हैरानी से उसकी और देख़ता रहा।
“माफ़ करना . . . ” मैंने कहा, “यह सब क्या है? क्या तुम यह कहना चाहती हो कि कोई बोरिस नहीं है . . . . . .? और न ही कोई टेरेसा है?”
“टेरेसा तो मैं हूँ।”
मेरी समझ में कुछ भी नहीं आया। मैं उसके चेहरे को ताकता रहा और सोचता रहा कि न जाने हम दोनों में से पागल कौन है?
वह ख़ुद को सँभालते हुए एक तरफ़ हो गई और मेज़ की दराज़ खोलकर कुछ ढूँढ़ने लगी। फिर एक कागज़ का टुकड़ा लेकर मेरी तरफ़़ आई।
“तुम्हारे लिए, मेरी ख़ातिर बोरिस को ख़त लिखना इतना ही मुश्किल काम था, तो यह लो,” कहते हुए उसने वह कागज़ का टुकड़ा मेरे मुँह पर दे मारा।
“यह वही ख़त है जो तुमने बोरिस के नाम लिखा था। मैं किसी और से लिखवा लूँगी।”
मैं उसकी ओर बस देख़ता ही रहा। फिर कहा, “देखो टेरेसा, इन सब बातों का मतलब क्या है? तुम किसी और से ख़त क्यों लिखवाओगी? जबकि मैं बोरिस के नाम का ख़त तुम्हें लिखकर दे चुका हूँ, जो तुमने उसे भेजा ही नहीं है?”
“कहाँ नहीं भेजा?” उसने कहा, “बोरिस को।”
मैं चुपचाप खड़ा रहा।
“कोई बोरिस नहीं है,” उसने चिल्लाते हुए कहा। “पर मैं चाहती हूँ कि वह रहे। मैंने बोरिस के नाम ख़त लिखवाया तो उसे किसी को क्या नुक़्सान पहुँचा? अगर वह इस दुनिया में कहीं भी मौजूद नहीं है तो उससे क्या फ़र्क़ पड़ता है?”
उसने वहिशत की हालत में कहा, “मैं उसके नाम का ख़त लिखवाती हूँ तो मुझे लगता है कि वह कहीं मौजूद है। और फिर मैं एक ख़त उसकी ओर से अपने लिए लिखवाती हूँ, और फिर उसका जवाब लिखवाती हूँ।”
उसकी आँखों से अविरल आँसुओं की धार बह रही थी, “तुम बोरिस की तरफ़ से वह ख़त लिख देते तो मैं किसी और से पढ़वा लेती और फिर सोचती कि बोरिस, मेरा महबूब कहीं मौजूद है। वो लिखे हुए ख़त मेरे पास रहते उन्हें सुनकर और लिखवाकर अपने भीतर एक नई दुनिया आबाद करके, इस मक्कार और बदसूरत दुनिया की कड़वाहटों को कम महसूस करती। इसमें तुम्हारा या किसी और का, या इस दुनिया का क्या बिगड़ता?”
मैं गर्दन झुकाए खड़ा रहा जैसे कोई गुनहगार अदालत में खड़ा रहता है, और मैंने आँखों में भर आए आब को रोकने की कोशिश भी नहीं की।
<< पीछे : क्या यही ज़िन्दगी है आगे : मुझपर कहानी लिखो >>विषय सूची
- फिर छिड़ी बात . . .
- अहसास के दरीचे . . .
- विश्व कथा-साहित्य का सहज अनुवाद
- देश में महकती एकात्मकता
- ओरेलियो एस्कोबार
- आबे-हयात
- आख़िरी नज़र
- बारिश की दुआ
- बिल्ली का खून
- ख़ून
- दोषी
- घर जलाकर
- गोश्त का टुकड़ा
- कर्नल सिंह
- कोख
- द्रोपदी जाग उठी
- क्या यही ज़िन्दगी है
- महबूब
- मुझपर कहानी लिखो
- सराबों का सफ़र
- तारीक राहें
- उलाहना
- उम्दा नसीहत
- लेखक परिचय
लेखक की कृतियाँ
- साहित्यिक आलेख
- कहानी
- अनूदित कहानी
- पुस्तक समीक्षा
- बात-चीत
- ग़ज़ल
-
- अब ख़ुशी की हदों के पार हूँ मैं
- उस शिकारी से ये पूछो
- चढ़ा था जो सूरज
- ज़िंदगी एक आह होती है
- ठहराव ज़िन्दगी में दुबारा नहीं मिला
- बंजर ज़मीं
- बहता रहा जो दर्द का सैलाब था न कम
- बहारों का आया है मौसम सुहाना
- भटके हैं तेरी याद में जाने कहाँ कहाँ
- या बहारों का ही ये मौसम नहीं
- यूँ उसकी बेवफाई का मुझको गिला न था
- वक्त की गहराइयों से
- वो हवा शोख पत्ते उड़ा ले गई
- वो ही चला मिटाने नामो-निशां हमारा
- ज़माने से रिश्ता बनाकर तो देखो
- अनूदित कविता
- पुस्तक चर्चा
- बाल साहित्य कविता
- विडियो
-
- ऑडियो
-