कितने समान हैं हम!

पिछले कुछ दिनों से रह रह कर एक विचार मन में आ रहा है। सोचता हूँ कि पूरी धरती के मानवों में कितनी समानता है। इस समानता को देखने परखने के लिए हमें एक विशेष दृष्टि से देखना पड़ेगा। हमें उन सब तहों के पार देखना पड़ेगा जो सहस्त्रों वर्षों से विभिन्न देशों की, समाजों की हमने अपने ऊपर ओढ़ रखी हैं। एक विशुद्ध मानव खोजना होगा जो केवल मानव हो; कोई लेबलधारी न हो। यानी किसी देश, जाति, धर्म, विचारधारा की सलीब का भार उसके कंधों पर न हो। क्या आज के समय में ऐसे मानव को खोज पाना सम्भव है?

ऐसे विचार क्यों आ रहे हैं इसका भी कारण है। अप्रैल के आरम्भिक दिनों में मैं यू.एस. अपन बड़े बेटे के पास न्यू जर्सी गया था। अप्रैल के अंतिम दिनों में मैं कैरेबियन द्वीपों में एक देश डोमिनिकन रिपब्लिक से २८ की रात को लौटा हूँ। पहली यात्रा में न्यू यॉर्क और पेन्सिलवेनिया की पर्वतमालाओं से गुज़रते हुए सोचता रहा कि मनुष्य ने रहने के लिए कितनी दूर तक यात्रा की है। ऊँचे पहाड़ों पर बसी बस्तियाँ ड्राईव करते हुए दिखाई देतीं तो विचार आना स्वाभाविक ही है कि इन दुर्गम स्थानों पर रहने के लिए किस जीवटता के साथ मानव ने प्रयास किया होगा। जिस विशाल देश की आबादी कम है तो वहाँ क्या आवश्यकता थी, क्या विवशता थी कि दूर-दुर्गम स्थान पर जाकर बसा जाए?

दूसरी ओर डोमिनिकन रिपब्लिक को जब हवाई जहाज़ से ऊपर से देखा तो विचार उठने लगे। द्वीपों पर लोग कैसे पहुँचे? और क्यों पहुँचे? यह तो फिर एक बड़ा द्वीप है, पाँच वर्ष पहले “अरूबा” गया था। द्वीप केवल 36 कि.मी. लम्बा और 10 कि.मी. चौड़ा है। देश में कोई प्राकृतिक पीने का पानी नहीं है। भूमि बंजर रेत है। केवल कैक्टस और अगरू उगता है। पीने का पानी समुद्र के पानी से बनाया जाता है। ऐसे द्वीप पर भी मानव रहते आए हैं और सहस्त्रों वर्षों से रह रहे हैं। जहाँ तक मैंने जाना-समझा है, सभी देशों के आदिवासी अपने आप में संतुष्ट भी थे और प्रसन्न भी। विश्व के हर कोने के आदिवासियों की जीवन शैली भी मौलिक रूप से मिलती ही है। सभी किसी दैविक शक्ति में आस्था रखते हैं, जो उन्हें और उनके आसपास की प्रकृति को जीवन देती है। वह उत्सव भी मनाते हैं, गीत भी गाते हैं और संगीत के लिए संसाधन भी खोज ही लेते हैं। अब गीत-संगीत को ही ले लें। किसी भी समाज के सभ्य होने के मापदंडों में ललित कलाएँ एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखती हैं। किसी विकसित देश के उच्च वर्ग के गीत-संगीत को श्रेष्ठ माना जाए या किसी आदिवासी समाज के गीत-संगीत को, जिस का आधार ही प्रकृति के स्वर हैं। कहीं वह नाचने के लिए अपने आपको पक्षियों के पंखों से सजाता है या किसी वन्य जीव की छाल के साथ। किस मेक‌अप को श्रेष्ठ समझा जाए जो विकसित समाज का अभिनेता अपने चेहर पर लगाता है या एक आदिवासी जो अपने आसपास से प्रकृति के रंगों से अपने आपको सजाता है। अगर हम सोचने लगें तो यह सूची बहुत विस्तृत हो जाती है। इसी संदर्भ में हम साहित्य की भी बात कर सकते हैं। इन दिनों साहित्य कुञ्ज में श्रीमती सरोजिनी पाण्डेय इटालियन लोककथाओं के अँग्रेज़ी अनुवाद को हिन्दी में अनूदित कर रही हैं। बहुत सी लोक कथाएँ भारतीय लोक कथाओं से मिलती जुलती लगती हैं। हो सकता है कि विश्व के आदिवासियों में कई लोक कथाएँ ऐसी भी हों जो हमारी भी हो सकती हैं।

अंततः हम संक्षेप में कह सकते कि हम अगर ऊपरी तहों को हटा दें तो अधिक अन्तर नहीं रह जाता हम लोगों में।

दुख की बात तो यह है कि विकसित समाज, सभ्यताएँ और देश आदिवासियों को अपने समकक्ष नहीं मानतीं। इन आदिवासियों की प्राकृतिक सम्पदा पर अधिकार तो जमाना चाहती हैं पर आदिवासियों की प्रकृति के प्रति आस्था को अनदेखा कर दिया जाता है। वैसे देखा जाए तो पूरी दुनिया में प्राकृतिक सम्पदा पर अधिकार जमाने के झगड़े ही तो हैं। 

— सुमन कुमार घई

2 टिप्पणियाँ

  • 5 May, 2022 05:24 PM

    वास्तव में हर वर्ग या कबीला अहं पोषित होता है वह अपने रहने के लिये ऐसे स्थान ढूँढ़ता है जिस पर किसी अन्य वर्ग का अधिकार होना मुश्किल या असम्भव हो दुर्गम स्थानों में उसे घेराबंदी नहीं करनी पड़ती है वह वहाँ अपनेआप को सुरक्षित महसूस करता है उनका जीवन भी उतना ही हर्ष उल्लास सुख -दुःख भरा होता है जितना अन्य सभ्य जनों का किन्तु जहाँ कहीं, जब कभी मानव का स्वार्थ आड़े आता है वहीं अधिकार भाव जागृत हो जाता है और आपस में संघर्ष होने लगता है क्योंकि मानवीय प्रवृत्तियाँ तो एक सी हैं गुण सूत्र में अंतर होता है , सभ्यता की मचान जितनी ऊँची उठती जाती है हमारी महत्वाकांक्षाएँ हैं उतने ही पंख पसारतीं हैं और मनुष्य कुछ वर्गों के द्वारा सभ्य और असभ्य घोषित हो दायरों में बँट जता है , मनुष्य की खोजी प्रवृत्ति किसी को जीत कर उस पर पूर्ण स्वायत्त स्थापित करना चाहती है और शोषण -भाव से ग्रसित हो दूसरों के प्राकृतिक संसाधनों पर बल पूर्वक अधिकार जताना चाहती है ,आदि से अंत तक मनुष्य इतना स्वार्थी हो जाता है कि किसी की संतुष्टि उसे रस नहीं आती केवल लूटना ही उसका ध्येय रह जाता है और विनाश विकास के आड़े आता है |मनुष्य की अंत हीन पिपासा ही इसका कारण है |आपकी सम्पादकी ने आदिवासियों के जीवन तथा उनके उत्थान की आवश्यकता की और ध्यान दिलाया, यह आपके सर्वधर्म समभाव और वसुधैव कुटुम्बकम की हितकारी भावना पर आधारित सुंदर तथ्यपरक लगा |आपको आपके व्यापक दृष्टिकोण के लिये हार्दिक आभार |

  • आपका समपादकीय हमेशा ही एक रोचक और महत्वपूर्ण मुद्दा उठता है। यह बात सच है कि हम सब मे बुनियादी तौर पर एक बड़ी समानता है और इसी कारण एकता का भाव भी है। पर मानव की स्वार्थी और लोभी महत्वाकांशाओ को जल्द ही समझ आ गया कि एकता में बल होता है और ऐसे लोगों को आसानी से बहलाया फुसलाया नहीं जा सकता, शायद तभी बड़ी ही तरकीब से वर्ग, जाति, धर्म आदि की आड़ में समाज को बांटा जाने लगा। इस बात पर गौर करना ज़रूरी है कि हम सब बुनियादी तौर पर एक ही हैं , और इसी सत्य में हम सब का सुख और शांति निहित है। नए अंक को हम सब तक लाने के लिए आभार आदरणीय!

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