विमर्शों की उलझी राहें

प्रिय मित्रो,

अपने सम्पादकीयों में मैं समय समय साहित्यिक ’विमर्शों’ की बात करता रहा हूँ। सजग पाठक यह भी जान ही गए होंगे कि मैं विमर्शों को संशय की दृष्टि से देखता हूँ। ऐसा नहीं है कि मैं विमर्शों की परिभाषा, उनकी आवश्यकता और उपयोगिता नहीं जानता, परन्तु जब साहित्य पर विमर्श की चिपकी लगने के बाद वह बँटने लगता है तो थोड़ी परेशानी अवश्य होती है। 

चलिए सबसे पहले विमर्श की परिभाषा को समझते हैं। विमर्श का शाब्दिक अर्थ हम सभी जानते हैं, जो नहीं जानते वह शब्दकोश में देखने की कृपा करें। विमर्श केवल वैचारिक प्रक्रिया है। जब हम इसे किसी संज्ञा के साथ जोड़ कर लिखते हैं, विमर्श का अर्थ तो नहीं बदलता। उदाहरण के लिए स्त्री विमर्श–स्त्रियों की सामाजिक परिस्थितियों पर साहित्य के पटल पर प्रकट किए गए विचार। ऐसे ही आदिवासी विमर्श–आदिवासी समाज की परिस्थितियों का साहित्यिक विवेचन। मेरा अपना सोचना है कि मैं ऐसा कहते हुए ग़लत नहीं हूँ। अभी तक सब ठीक है। मुझे भी कोई उलझन नहीं है। 

अब इससे थोड़ा आगे चलते हैं। कोई "विमर्श-विशेष" साहित्य में प्रस्तावित करता है कि अमुक सामाजिक समूह के बारे में लिखा जाना चाहिए क्योंकि वह समाज में शोषित है, पीड़ित है, उनकी आवाज़ को दबा दिया गया है या उसे हाशिये पर सीमित कर दिया गया है इत्यादि। साहित्य को अपना साहित्यिक दायित्व निभाना चाहिए। यह भी ठीक है। इसमें भी कोई परेशानी नहीं है।

सब ठीक है तो मैं चर्चा क्यों आरम्भ कर रहा हूँ? इस मुद्दे पर आ रहा हूँ। यह विमर्श बड़ी सद्‌भावना के साथ आरम्भ किए जाते हैं, परन्तु फिर अचानक विमर्श की छत्रछाया में समूह बनने लगते हैं, विमर्श खेमों में बँटने लगता है। मानदण्ड तय किए जाते हैं और जो लेखक उन मानदण्डों से थोड़ा भटकता है उसे विमर्श से अगर निष्कासित न भी किया जाए तब भी हाशिए पर तो बैठा ही दिया जाता है। परेशानी है कि विमर्श के शाब्दिक अर्थ हैं विचार, विवेचन, परीक्षण, समीक्षा और तर्क। इनकी कोई सीमाएँ नहीं हो सकतीं और न ही दिशाएँ निर्धारित की जा सकती हैं। अर्थात्‌ कोई भी विमर्श पूरे समाज की बात करने के लिए स्वतन्त्र होना चाहिए। क्योंकि शोषित, जिसके लिए विमर्श हो रहा है, वह भी तो समाज का ही अंश है। अगर मेरे विचार उलझे हुए लग रहे हैं तो कुछ स्पष्टीकरण भी अनिवार्य हो जाता है।

स्त्री विमर्श को ही ले लें। स्त्री सवर्ण है पर शोषित है, उसके अधिकारों का हनन हो रहा है, वह हिंसा की शिकार हो रही है। इन विषयों पर लिखा गया साहित्य, स्त्री विमर्श का साहित्य है। अब स्त्री दलित है। दुर्भाग्य से वह भी इन्हीं सामाजिक परिस्थितियों से पीड़ित तो है ही, इसके अतिरिक्त वह दलित होने का अभिशाप भी भुगत रही है। उस पर लिखा गया साहित्य क्या केवल दलित विमर्श के साहित्य में सीमाबद्ध करेंगे? वह स्त्री भी तो है। दूसरी और दलित विमर्श में एक विचार यह भी है कि केवल दलित लेखक ही दलित विमर्श का साहित्य लिख सकते हैं, क्योंकि वह भोगा हुआ यथार्थ लिखने में सक्षम हैं। अगर यह साहित्य दलित स्त्री की पीड़ा को स्वर देता है तो यह साहित्य दलित विमर्श की सीमा लाँघ कर स्त्री विमर्श का साहित्य नहीं कहला सकता क्या? स्त्री की कोख से समाज उत्पन्न हुआ है, वह तो समाज की जननी है। फिर उसकी संवेदनाओं, पीड़ा की पुकार, शोषण के प्रति विद्रोह की अभिव्यक्ति क्या केवल स्त्री विमर्श में सीमित करेंगे? ऐसा ही आदिवासी विमर्श के संदर्भ में कहा जा सकता है। 

आजकल किन्नर विमर्श चर्चा में है तो कल क्या नए विमर्श की खोज की जाएगी? यह मैं समझ सकता हूँ, कि विमर्श में समाज के पीड़ित वर्ग-विशेष पर ’स्पॉट लाइट" डाली जाती है ताकि सब का ध्यान उस ओर आकर्षित हो। यही इसकी उपयोगिता है। सोचा जाए तो बिना विमर्शों के भी इन विषयों पर विवेचन कर अपने विचारों को साहित्यिक रूप देना लेखक का सामाजिक दायित्व है। लेखक को इन विमर्शों की सीमाओं का अतिक्रमण करते हुए समाज के प्रत्येक वर्ग को सशक्त करने वाला साहित्य रचने का मार्ग खोजना चाहिए।

क्या नवोदित लेखक यह मार्ग खोज पाएगा? मेरा अपना सम्पादकीय अनुभव है कि अधिकतर नए लेखक किसी विमर्श का चयन करने के उपरान्त ही रचना लिखते हैं। ऐसी रचनाओं में पुराने विचारों, मुहावरों का दोहराव मात्र होता है। इन विमर्शों की जकड़न इतनी मज़बूत है कि नए लेखक को लगता है कि वह अगर इन सीमाओं में रहकर नहीं लिखेंगे तो उनकी रचना प्रकाशित नहीं होगी। वह विमर्शों के जंगल में इतने उलझ जाते हैं कि वह विचारों की स्वतन्त्र उड़ान भर ही नहीं पाते। उन्हें इस जंगल से ऊपर उड़ कर मार्ग खोजना ही नहीं आता।

इतना लिख देने के बाद मैं स्वयं इन विमर्शों के जंगल में और अधिक उलझ गया हूँ। अगर किसी को इनसे बाहर निकलने का रास्ता दिखे तो कृपया मेरा मार्गदर्शन करें।

— सुमन कुमार घई

5 टिप्पणियाँ

  • 12 Aug, 2021 08:43 PM

    जो विषय आपने उठाया है, वह मुझे भी पीड़ित करता है ।स्त्री विमर्श या दलित विमर्श केवल बुद्धिजीवी वर्ग का मानसिक विलास बन कर रह जाता है। विमर्श से आगे बढ़ कर कार्य क्षेत्र, कर्मभूमि में आये तो ही इनकी सार्थकता है. आपने बहुत सहज ढंग से गहरी और सारगर्भित बात लिखी है। संपादकीय हमेशा प्रभावित करता है।

  • हमेशा की तरह आप बड़े ही रोचक और सरल ढंग से बहुत ही ज्वलन्त और सामयिक मुद्दे को उठाते हैं आदरणीय....विचार करने पर मजबूर करते हैं....धन्यवाद!...

  • सुमन जी, आपने संपादकीय में अच्छा विषय उठाया और कई लेखों की भूमिका प्रस्तावित कर दी। विमर्श क्यों पैदा हुए? किस दिशा में मुड़ गए? उनकी सार्थकता क्या है? उनके दुष्प्रभाव से साहित्य की क्या स्थिति हो रही है? अनेक प्रश्नों के उत्तरों को आपका संपादकीय समेटता है। ये प्रश्न साहित्य चर्चा के यक्ष प्रश्न हैं। इन पर विस्तार से विचार किए जाने की आवश्यकता अनुभव हुई, मुझे लगता है जल्दी ही आपको अनेक आलेख इस विषय पर मिलेंगे। आपने अंत में जो चिंता जताई है, वह बहुत सटीक है। अगर नई पीढ़ी विमर्श पर केवल इसलिए लिख रही है कि उसे समर्थन और प्रचार मिलेगा तब दोहराव-तिहराव के अलावा और कुछ नहीं रहेगा। ’विमर्श’ के साहित्य के अस्तित्व पर भारी पड़ने की आपकी चिंता आपकी सजगता और निष्पक्षता को बताती है, इस विषय को उठाने के लिए बहुत बधाई!

  • बहुत बढ़िया विषय

  • माननीय संपादक जी, "विमर्शों की उलझी राहें " संपादकीय मुझे बहुत अच्छा लगा। मैं लगभग सभी संपादकीय ध्यान से पढता हूँ। जहाँ तक मैं समझ पाया हूँ कि वास्तव में आप विमर्शों को संशय की दृष्टि से नहीं देखते। बल्कि आप साहित्य में समुचित एवं वृहद विमर्श की प्राथमिकता चाहते हैं, तथा संकुचित एवं अनावश्यक विमर्शों से बचना चाहते हैं। जो कि सचमुच बहुत जरूरी है। वरना साहित्य साहित्य न रहकर विमर्शों की खिचड़ी रह जाएगी। साहित्य अपने आप में स्वयं हीं एक वृहद विमर्श है जिसमें देश काल पात्र और संस्कृति के अनुसार समस्त मानवीय संस्कृति की सभी विमर्श स्वतः समाहित है। साहित्य यदि अपने कर्तव्यों के प्रति ईमानदार है तो अलग से किसी भी देव-दानव, स्त्री - पुरुष, गंधर्व- किन्नर विमर्श की आवश्यकता नहीं है। साहित्य समाज का दर्पण है और दर्पण मे अपने अपने अनुपात में सभी सभी नजर आएंगे। अलग से जब भी कोई विमर्श साहित्य में अपनी जगह बनाना चाहेगा तो स्वभाविक रुप से न्यूटन का तीसरा नियम जागृत होगा और प्रतिक्रिया स्वरूप एक नया विमर्श उत्पन्न हो जाएगा। इस तरह अनावश्यक विमर्शों को सख्ती से यदि रोका न गया तो क्रिया के विपरीत प्रतिक्रिया और प्रतिक्रिया के जबाव में पुनः क्रिया का एक अनावश्यक चक्र शुरु हो सकता है। जो साहित्य के अस्तित्व पर भारी पड़ेगा।

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