सावित्री से सपना तक . . .
डॉ. प्रीति सुरेंद्र सिंह परमार
सपना से सोनम तक—सुहाग की अर्थी पर चढ़ती आधुनिकता
“कभी जिनसे जीवन मिलता था,
अब वही जान के सौदागर हो गए।
सपनों की दुलहनें अब साँप बनकर
सुहाग डसने लगी हैं।”
“वर नहीं, शिकार था वह,
और विदाई नहीं, उसकी अंतिम यात्रा थी।”
“कभी सावित्री ने यमराज को हराया था,
अब सोनम ने यमराज को बुलाया था।”
शुभ मुहूर्त . . . और श्मशान की छाया
बड़ा ही शुभ मुहूर्त था। माँ ने तीज का व्रत रखा था, बहनें मेहँदी रचाए गीत गा रही थीं, और लड़के का चेहरा चमक रहा था, जैसे सरकारी नौकरी की सूखी रोटी में घी लग गया हो।
वर-वधू ने सात फेरे लिए, माँ के अरमानों ने ससुराल की सीढ़ियाँ चढ़ लीं।
माँ सोच रही थी, “अब मेरा लाल सजेगा . . . अब घर में किलकारियाँ गूंजेंगी।”
इंदौर की गलियों में जब सोनम की बारात निकली, तो महल्ले की बालिकाएँ कन्यादान के सपने देख रही थीं।
माँ ने सोचा–“बहुत ही भाग्यशाली है यह कन्या, सीधी-सादी लगती है, संस्कारी भी!”
परन्तु . . .
उस विवाह का सप्तपदी नहीं, सप्तज़हर था।
सावित्री नहीं, सपना थी . . . और सपना भी ऐसा जो पूरे कुल को अंधकार में डुबो दे।
जो वधू आई थी, वह 'सावित्री' नहीं थी, वह 'सपना' थी–एक ऐसा सपना, जो रात को नहीं, जीवन को लील जाता है।
सुना है, उसने अपने पति को ज़हर दे दिया। हाँ, वही पति जो रोज़ टिफ़िन ले जाता था, हँसता था, जीता था।
विवाह या हत्या की योजना?
क्या अब सात फेरों के साथ एक आठवाँ फेरा भी जुड़ गया है–“कब्रिस्तान की ओर एक टिकट?”
सोनम जैसी सुशील महिलाएँ आधुनिकता के उस विकृत रूप की प्रतिमूर्ति बन चुकी हैं, जो नेटफ़्लिक्स की क्राइम सीरीज़ देखकर सोचती हैं कि–
“पति मारना अब नारी-अधिकार है!”
शादी अब मंगलसूत्र का नहीं, क्रिप्टो अकाउंट का सौदा है।
पति अब जीवनसाथी नहीं, बीमा पॉलिसी का मालिक होता है, जिसे मरवाकर क्लेम उठाया जाता है।
आधुनिकता की हत्या
पहले पति-पत्नी एक-दूसरे के लिए जीते थे, अब कुछ पत्नियाँ पति के मरने के बाद ही जीना शुरू करती हैं।
अब क़ानून को चाहिए—“दहशत बीवी एक्ट”—ताकि सोनम ब्रांड पत्नियों की पृष्ठभूमि देखी जा सके कि “वह बहू है या बेरहम बाउंसर?”
विवाह में अब वरमाला नहीं, विक्टिम कार्ड बंधता है।
बेटा होना–एक अपराध?
क्या अब बेटों की शादी से पहले मुंडन की जगह मरणोत्सव की तैयारी करनी पड़ेगी?
कहाँ ग़लती हुई?
शायद हमने लड़कियों को आत्मनिर्भर तो बना दिया, पर संस्कारों की पाठशाला गिरवी रख दी।
अब जो लड़की शादी करती है, वह पति को पार्टनर नहीं, प्रोजेक्ट समझती है–“यूज़ एंड थ्रो“!
अब तो “पति परमेश्वर” नहीं, “पति पर एक्सपेरिमेंट” हो रहा है।
क्या गुनाह यह था कि वह लड़का सीधे-सादे स्वभाव का था?
या फिर यह कि वह एक भारतीय माँ की उम्मीदों का इकलौता दीपक था?
समाज की आत्मा काँप रही है
जिस देश में सावित्री ने यमराज से लड़कर पति को वापस लिया था, वहीं अब 'सपना' और 'सोनम' जैसी महिलाएँ पति की जान ले जाती हैं।
और समाज “डोमेस्टिक वायलेंस फ़ॉर विमेन” के बोर्ड पर टाँगें झूलता है।
क्या कभी कोई बोर्ड पुरुषों के लिए भी बनेगा?
या फिर बेटा होना ही सबसे बड़ा अपराध रह जाएगा?
माँ की चीख
अब माँ की चीख
कानों से नहीं,
समाज की आत्मा से टकरा रही है—
“जिसके लिए बेटे को बचपन से पाल-पोस कर बड़ा किया,
क्या उसकी शादी के दिन ही वह मृत्युदंड पाएगा?”
विवाह या साइकोलॉजिकल सिक्योरिटी टेस्ट?
शादी अब सिर्फ़ दो लोगों का मिलन नहीं, दो परिवारों की साइकोलॉजिकल सिक्योरिटी टेस्ट बन चुकी है।
अब लड़कियों के चरित्र का–न कि सिर्फ़ रिज़्यूमे का–बैकग्राउंड वेरिफ़िकेशन अनिवार्य है।
वरना ये 'सपने' घर नहीं, अर्थियाँ बनाकर लौटाएँगी।
समाधान?
बेटियों को पढ़ाओ, उन्हें अधिकार दो, पर साथ ही संस्कार और सह-अस्तित्व का ज्ञान भी दो।
वरना जो कल तक दहेज़ पीड़िता थीं, वे आज जीवन हरण करने वाली “संस्कारविहीना बहू” बन जाएँगी।
विशेष सलाह
10–20 दिन तो बुलेटप्रूफ़ जैकेट में रहना चाहिए—लड़कों के लिए।
किसी एकांतवास में न जाएँ, अन्यथा अनंत एकांत आपको प्राप्त हो जाएगा।
कम-से-कम 10 दिन शादी के बाद माता-पिता की कस्टडी में रहें।
वरना अगला “शवयात्रा कार्ड” शादी के कार्ड के साथ पैक करवा लीजिए।
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