मज़ा

डॉ. प्रीति सुरेंद्र सिंह परमार (अंक: 266, दिसंबर प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

आज का व्यंग्य है मज़ा! 

मज़ा ना आता है . . .

ना मज़ा जाता है . . . 

मज़ा तो लिया जाता है . . .॥

मज़ा लेने के लिए ज्ञान की आवश्यकता होती है। तो चलते हैं आज एक ऐसा मज़ा देखते हैं: काव्य पाठ का सम्मेलन चल रहा था। कवियों को जितना दूसरे जानते हैं उतना वह स्वयं को नहीं जानता बल्कि श्रोता नाम देने के साथ ही यह जान जाते हैं; यह कितने समय तक इनको पकाने वाले हैं। ख़ैर सामने काव्य पाठ पढ़ने रतन चंद जी थे। जैसे ही वह स्टेज पर आए और अपना काव्य पाठ शुरू किया, यक़ीन मानिए दो-चार मिनट बाद ही इतनी ज़ोर-ज़ोर से तालियाँ बजने लगीं कि लोगों को मज़ा ही मज़ा आ चुका था। उधर कवि का ख़ुमार भी जोश भर रहा था और बार-बार एक लाइन को दो-दो तीन-तीन बार दोहरा रहे थे और सामने बैठे वाले तालियों की गड़गड़ाहट को तेज़ करते चले जा रहे थे वाह वाह . . .  अब यह मज़ा आ रहा था कि मज़ा ले रहे थे यह तो श्रोता ही बता सकते हैं। 

एक शानदार होटल में स्वामी प्रसाद अपने बच्चों के साथ खाना खा रहे थे। बच्चे नाक-भौंह चढ़ा कर ‘मज़ा नहीं आया . . . मज़ा नहीं आया’ कर रहे थे और फिर धीरे से उन्होंने खाना उठाकर बाहर की ओर फेंक दिया? 

तभी दो बच्चे वहाँ से निकले। पिज़्ज़ा का पूरा डिब्बा ही था। दोनों ने पहले इधर-उधर देखा कि किसी का छूट तो नहीं गया है, फिर जब कोई दिखा नहीं तो उठा कर ‘खाने को मिलेगा’—दोनों ने ख़ुश होकर एक दूसरे का हाथ पकड़ लिया और डिब्बा हाथ में उठा लिया और ज़ोर से बोले, “आज तो मज़ा ही आ गया!” उठा कर खाने लगे बड़ा मज़ा आया . . . बड़ा मज़ा आया . . . 

उनके चेहरे में मज़े का नूर टपक रहा था। मज़ा ही मज़ा झलक रहा था। 

तो वहीं सुखिया अपने खेत पर काम करते-करते पसीने से तरबतर हो चुका था। पत्नी की दी हुई कपड़े में बँधी रोटी खोली, हाथों को धोकर रोटी प्याज़ के साथ पानी पीकर स्वर्ग का मज़ा ले रहा था। 

मज़ा कई प्रकार से आ सकता है। सामने के दो पड़ोसियों ने बैठकर बुराई करनी शुरू कर दी—बग़ल वाली ऐसी है! तो बग़ल वाली वैसी है! सीसीटीवी की क्या ज़रूरत है? उनकी आँखें ही पूरा ब्योरा वर्णित कर देती हैं। उन्हें जो मज़ा आ रहा था उसका तो आप कुछ पूछो ही नहीं। ऐसा रसा स्वादन कि रसमलाई में भी ना हो! बातें भी मज़े से कर रही थीं; मज़ा भी ले रही थीं और आँखें भी मज़ा ले लेकर मटका रहीं थीं, हाथों को  मटका-मटका के मज़ा ले रहीं थीं। 

साहब रोज़ अपने बाबू की क्लास लगाते थे और मज़ा लिया करते थे। परन्तु निम्न श्रेणी के कर्मचारी की स्थिति तब पलट गई जब मंत्री महोदय का आगमन हुआ। उन्होंने ही साहब की क्लास लगा डाली। बाबू को तो कितना मज़ा आया बता नहीं सकते। खिले कमल की तरह ख़ुशी छुपा नहीं पा रहा था। ख़ैर मज़ा लेने के लिए मौक़ा, स्थिति, परि स्थिति को नहीं देखा जाता:

छोटी सी ज़िन्दगी थोड़े से पल 
इन पलों को मज़े से ही गुज़ार दो। 

किसी ने कहा था कि “ज़िन्दगी एक रोलर कोस्टर है”। पर यहाँ तो ऐसा लगता है कि हमारे देश की ज़िन्दगी एक ऐसा झूला है जो ऊपर जाता है तो ‘मज़ा आ गया’ और जैसे ही नीचे आता है तो ‘मज़ा नहीं आया’। 

मज़ा आ गया का मतलब: अभी-अभी किसी ने हमारे सामने एक अच्छा भाषण दिया, बड़ा गर्व महसूस हुआ, “मज़ा आ गया!” फिर हमें पता चला कि भाषण में जो वादे किए गए थे, वो तो पिछले चुनावों में भी किए गए थे, फिर बोले, “मज़ा नहीं आया!”

टीवी पर नया शो शुरू हुआ। सस्पेंस और थ्रिल से भरा हुआ। हर एपिसोड में ट्विस्ट और टर्न, ”मज़ा आ गया!” फिर अगले हफ़्ते जब पता चला कि वही पुरानी कहानी, वही सास-बहू का ड्रामा, “मज़ा नहीं आया!”

मज़ा नहीं आया का मतलब: किसी ने स्वादिष्ट पकवान परोसा, मुँह में डालते ही स्वाद का धमाका, “मज़ा आ गया!” लेकिन फिर किसी ने बताया कि ये पकवान एक महीने पुराना था और फ्रीज़र में रखा था, “मज़ा नहीं आया!”

बेटी की शादी में पिता कंगाल हो जाता है और लड़के वाले कहते हैं “मज़ा नहीं आया!”

शहर में नया माल खुला, एकदम शानदार, चमचमाता हुआ, “मज़ा आ गया!” पर जैसे ही वहाँ पहुँचे, पार्किंग में जगह नहीं मिली, लाइन में खड़े रहे दो घंटे और फिर भी भीड़ इतनी कि साँस लेना मुश्किल। एक पल में ही बदल गया, “मज़ा नहीं आया!”

हमारी ज़िन्दगी में ‘मज़ा आ गया’ और ‘मज़ा नहीं आया’ के क़िस्से ऐसे हैं जैसे किसी फ़िल्म का ट्रेलर, जिसमें शुरूआत बड़ी धमाकेदार होती है और अंत में जाकर वही पुरानी कहानी। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि हमारे देश के नेताओं ने ‘मज़ा आ गया’ और ‘मज़ा नहीं आया’ का पैटर्न अपनी राजनीति में घुसा लिया है। चुनाव से पहले बड़े-बड़े वादे, “मज़ा आ गया!” और चुनाव के बाद जब वादे धुएँ में उड़ जाते हैं, “मज़ा नहीं आया!”

यहाँ तक कि सोशल मीडिया पर भी, एक नई पोस्ट, हज़ारों लाइक्स और कमेंट्स, “मज़ा आ गया!” और कुछ दिन बाद जब पता चलता है कि वो पोस्ट फेक न्यूज़ थी, “मज़ा नहीं आया!”

तो दोस्तो, ज़िन्दगी का असली मज़ा तो शायद इसी में है—कभी ‘मज़ा आ गया’ और कभी ‘मज़ा नहीं आया'। क्योंकि अगर हमेशा मज़ा ही आता रहे, तो फिर ज़िन्दगी में वो मज़ेदार ट्विस्ट कहाँ से आएगा? 

हेलीकॉप्टर में उड़ान, पाँच सितारा होटल का ठिकाना—फिर भी ‘मज़ा नहीं आया’ और ग़रीब की भरपेट रोटी में ‘मज़ा आ गया’!

कहते हैं कि इंसान जितना ऊँचा उड़ता है, उसे उतनी ही ज़्यादा हवा लगती है। हालाँकि, ये कहावत उन लोगों पर बिल्कुल सही बैठती है जो हेलीकॉप्टर में बैठकर, आसमान की ऊँचाइयों में घूमने के बाद भी कहते हैं-—‘मज़ा नहीं आया'। पता नहीं, हवा कम हो गई थी या ऊँचाई ज़्यादा थी, पर मुँह से यही निकला, ‘मज़ा नहीं आया’। 

शहर के सबसे शानदार पाँच सितारा होटल में रुके, जहाँ गद्दे इतने मुलायम कि आप उस पर सोते ही धँस जाएँ, खाना इतना महँगा कि प्लेट में जितना खाना रखा हो, उससे ज़्यादा पैसे आपकी जेब से उड़ जाएँ। फिर भी मज़ा नहीं आया। शायद इसलिए कि वेटर ने पानी लेट लाकर दिया होगा, या शायद इसलिए कि स्वीमिंग पूल में पानी दो डिग्री ठंडा रह गया था। आख़िर ये ‘मज़ा नहीं आया’ लोगों का अलग ही क़िस्म का दुख होता है। 

वहीं दूसरी ओर, एक ग़रीब आदमी, जिसने शायद कई दिनों से ठीक से खाना नहीं खाया था, को आज भरपेट रोटी और दाल मिल गई। पुराने अख़बार के टुकड़े पर बैठकर उसने खाने की हर एक बूँद का लुत्फ़ उठाया। दाल का हर कण, रोटी का हर निवाला उसके लिए किसी शाही भोज से कम नहीं था। उसके चेहरे पर जो चमक थी, उसे देखकर कहा जा सकता था, “मज़ा आ गया!।” 

असल में, इन ‘मज़ा नहीं आया’ लोगों के लिए सुख-सुविधाएँ एक हक़ बन जाती हैं और उनके पास हर चीज़ में नकारात्मकता ढूँढ़ने की कला होती है। होटल का खाना उतना अच्छा नहीं था, बिस्तर पर कंबल एक इंच छोटा था, कमरे का नज़ारा सिर्फ़ आधा समुद्र दिखा रहा था—बस, ‘मज़ा नहीं आया'! 

और ग़रीब आदमी? उसे ‘मज़ा’ किसी वातानुकूलित कमरे या विदेशी व्यंजन से नहीं आता, उसे तो ‘मज़ा’ तब आता है जब पेट की भूख मिटती है। उसके लिए रोटी और दाल का स्वाद किसी पाँच सितारा शेफ़ की डिश से ज़्यादा बेहतर होता है। किसी को खाना बनाकर खिलाने का मज़ा तो किसी को खाना परोस कर मज़ा आता है। किसी को खाना बनाने में मज़ा आता है तो किसी को खिलाने में मज़ा आता है। किसी को खाने में मज़ा आता है तो किसी को पकाने में मज़ा आता है। और किसी को पखाने में मज़ा आता है तो किसी को किताब पढ़ने में मज़ा आता है, तो किसी को मोबाइल चलाने में मज़ा आता है। किसी को किसी को कुटवाने में मज़ा आता है तो किसी को किसी की बेइज़्ज़ती में मज़ा आता है। किसी को किसी की सफलता में तो किसी को किसी की असफलता में मज़ा आता है। 

हमारी दुनिया में यह विरोधाभास हमेशा से है—एक तरफ़ वो जो हर चीज़ में कमी निकालते हैं, चाहे वो हेलीकॉप्टर की सवारी हो या पाँच सितारा होटल का लज़ीज़ खाना, और दूसरी तरफ़ वो जो एक प्लेट साधारण भोजन में ही स्वर्ग का अनुभव कर लेते हैं। 

शायद असली ‘मज़ा’ पाने के लिए पेट का भूखा होना ज़रूरी है, न कि जेब का। क्योंकि जब पेट भर जाता है, तो दिल भी भर जाता है, और वहीं से ‘मज़ा आ जाता है!’ 

किसी को पान की पीक से दीवारों को रंगने में मज़ा आ जाता है, तो किसी को प्रतिबंधित स्थान पर मूत्र विसर्जन कर मज़ा आ जाता है। किसी को किसी का पद छीन कर मज़ा आ जाता है। तो किसी को किसी की बात मानकर मज़ा आ जाता है। तो किसी को किसी की बात काट कर मज़ा आ जाता है।

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