नदी

डॉ. प्रीति सुरेंद्र सिंह परमार (अंक: 253, मई द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

 

नदी का जल जल रहा
कराह कर वह कह रहा
जल मेरा जल रहा कहाँ
फैला कूड़ा करकट यहाँ 
मैंने तो शीतल जल दिया
नदी बन गाँव महका दिया
रहते किनारे हरे भरे पेड़
बसे थे पंछी खाते थे बेर
पहले पड़ती सूरज किरण
जल पीने आते थे हिरण
बच्चों की दौड़, ठिठोली
प्रातः बंधन करती गोरी
घूँघट की ओट में सखियाँ
जल में निहारती छवियाँ
रहता साधु संतों का डेरा
मन में नहीं था कोई अँधेरा
जल में है जीवों का बसेरा
मुर्गे की बाग़ से हो सवेरा
शीतल जल न शीतल रहा 
मानव ने सब प्रदूषित किया
दर्द मेरे आज नहीं समझोगे 
बूँद-बूँद को फिर तरसोगे। 
 

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