आओ ग़रीबों का मज़ाक़ उड़ायें

01-05-2024

आओ ग़रीबों का मज़ाक़ उड़ायें

डॉ. प्रीति सुरेंद्र सिंह परमार (अंक: 252, मई प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

यह ग़रीब लोग कौन होते हैं? . . . जो एक वक़्त की खाने की तलाश में मज़दूरी में लगे रहते हैं। रह जाते हैं उनके छोटे-छोटे बच्चे जिनका शिक्षा से कहीं दूर-दूर तक नाता नहीं होता है। यदि शिक्षित करने की बात आए तो ‘वीडियो बनाना उचित है’ क्योंकि दूसरे भी देखकर इससे प्रभावित होंगे और बच्चों को पढ़ने की और अग्रसर करेंगे। किन्तु कुछ समाजसेवी बनाम अपना उल्लू सीधा करने वाले इनके पास जाकर इन मासूम बच्चों को ‘एक स्थान पर इकट्ठा होना है’, बता देते हैं। ख़ासकर समाज सेवी साधारण वस्रों में उस स्थान पर पहुँच जाते हैं और फिर शुरू होता है—इन नन्हे-मुन्ने बच्चों का इस्तेमाल किस-किस प्रकार से करें? इनके उत्थान के बारे में किसी समाजसेवी को कोई चिंता नहीं होती जो सिर्फ़ भीड़ इकट्ठा करना जानते हैं। 

यदि सच की समाज सेवा पर बात करें, तो सालों लग जाते हैं किसी एक के दिल में जगह बनाने के लिए। दूसरी ओर, अपनी तस्वीरें और फोटो से चंद ही दिनों में प्रख्यात समाजसेवी बन जाते हैं। सही में समाज सेवा करने वाले तो सालों मेंहनत करते हैं, आइये तो चलते हैं एक ऐसे ही नज़ारे की ओर . . .

बड़ी चिलचिलाती धूप पड़ रही थी रास्ते से निकलते हुए देखा कुछ भीड़-भाड़ थी। लाइट, कैमरा, एक्शन—ऐसी आवाज़ें आ रही थीं। मैंने सोचा कोई मूवी की शूटिंग चल रही होगी। झाँकने की दूर से कोशिश की, ‘नहीं, यह तो समाजसेवी हैं।’ टेंट के अंदर समाजसेवी, बाहर चिलचिलाती धूप में बच्चे खड़े हुए थे। दूर से डलिया में कुछ केले दिखाई दे रहे थे। सभी महिलाएँ पुरुष एक-सी यूनिफ़ॉर्म में खड़े थे। छोटे-छोटे लड़के एक तरफ़ खड़े हुए थे तो दूसरी तरफ़ छोटी-छोटी कन्याएँ थीं। बच्चे पसीना-पसीना हो रहे थे। एक ओर कुछ शरबत के गिलास रखे हुए थे। बच्चों ने बढ़कर पीना चाहा तो रोक दिया गया—अभी नहीं थोड़ी देर में मिलेंगे। बेचारे हैंडपंप से ही पानी पी-पी कर आ रहे थे। ख़ैर जैसे ही माइक पर भाषण ख़त्म हुआ, भाषण के अंत में महिला सुबकने लगी . . . रो कर ही लोगों का दिल जीत लिया जाए। 

दस महिलाओं और दस पुरुषों ने एक-एक केला बाँटना शुरू कर दिया। फोटोग्राफर विभिन्न-विभिन्न एंगल से फोटो खींच रहा था। ख़ैर मैं अपने गंतव्य की ओर निकल गई। जिस बच्ची को समझाने के लिए उसकी माता ने मुझे बुलाया था, मैं वहाँ पहुँची। समझाने के बाद लौटते-लौटते शाम हो गई। रास्ते में शरबत के गिलासों का ढेर पड़ा हुआ था, जो हवा में इधर-उधर उड़ रहे थे। सुबह जो स्वच्छ सड़क दिखाई दे रही थी अब वह कूड़ा घर में तब्दील हो गई थी। समाज सेवी अपना कार्य करके चले गए थे। तभी नज़र एक बड़े-से बैनर पर पड़ी सुबह के कार्यक्रम की सारी फोटो वहाँ चिपकी हुई थी। 

यह किस प्रकार की समाज सेवा है . . . हो सकता है सरकार से फ़ंडिंग प्राप्त करने का का नया तरीक़ा हो। समाज से सहानुभूति बटोरने के लिए इससे अच्छा कोई साधन नहीं। लोग सालों मेहनत करते हैं। समाज के उस तबक़े की बेटियों के लिए जी-जान से काम करते हैं। पर वह एडवर्टाइज़मेंट नहीं करते और करें भी कैसे? यदि ख़ुद की बेटी होती तो उनका ज़मीर यह बात स्वीकार नहीं करता। ऐसे समाजसेवी गुमनामी के अँधेरों में पाए जाते हैं। 

दूसरे दिन निकलते समय देखा कि अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस है। महिला बाल विकास वाले आशा कार्यकर्ता और आँगनबाड़ी कार्यकर्ताओं को यूनिफ़ॉर्म से अलग साड़ी पहनवा कर बैठा लेते हैं और फिर बड़े-बड़े भाषण देकर अंतरराष्ट्रीय महिला वर्ष मना लिया जाता है। ग्रामीण महिलाएँ तो इक्का-दुक्का होती हैं। और जो होती भी हैं सभी कार्यकर्ताओं की ही रिश्तेेदार होती हैं। आजकल का नियम है—पहले मैं और मेरा कुनबा—साथ में भोजन की भी व्यवस्था रहती है। वरना वे आँगनबाड़ी कार्यकर्ताएँ भी भाग जाएँ। इसलिए आदेश मिलते ही उपस्थित हो जाती हैं। अधिकारियों का दबाव जो रहता है। 

बाँटने वाले भी विभाग के और लेने वाले भी विभाग के; इस प्रकार इति श्री हो जाती है अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस की। और फोटो चिपकाने वाली समाज सेवी महिलाएँ अवार्ड लेकर जाते हुए दिखाई देती हैं। अब उस एक-एक केला वितरण से उदर की क्या पूर्ति हुई होगी यह तो भगवान ही जाने! मगर आजकल एडवर्टाइज़मेंट का ज़माना है—जो दिखाई देता है वही सत्य होता है। 

पुराने ज़माने में कहावत थी—नेकी कर और दरिया में डाल। बूढ़े बुज़ुर्ग तो बेवुक़ूफ़ थे, कहते थे ‘यदि कोई दान करो तो इस हाथ से दान करो तो दूसरे हाथ को भी पता नहीं चलना चाहिए’ पर उल्टा ज़माना है। 

आजकल तो पुरस्कार भी श्रेणी देखकर दिया जाता है। बताइए आपकी वीडियो कहाँ है? एक पूरा समाज इस बात को कह रहा है कि अमुक-अमुक ने यह कार्य किया है। 

अब उसके लिए वीडियो की क्या ज़रूरत है? शायद यही एक बड़ा कारण है, अपराध दिन प्रतिदिन बढ़ते चले जा रहे हैं। मदद करने वाले की भी जान पर आ पड़े। मदद माँगने वाला भी दूसरे दिन अख़बारों की सुर्ख़ियाँ बनने से डर के मारे अपराध को चुपचाप सह जाता है। 

लानत है ऐसी समाज सेवा पर जहाँ कुछ फल, पानी, शरबत, पिलाकर हमारे देश के लोगों को भ्रमित करते हैं। उनके उत्थान के बारे में कोई कभी नहीं सोचता वरना आज़ादी के इतने सालों बाद इस तरह की भुखमरी ना होती। ये लोग सामानों का वितरण करके समाज सेवा करते हैं कि ग़रीबों का मज़ाक़ उड़ाते हैं। 

अपना उल्लू सीधा करते हैं और सरकार से बड़ी-बड़ी बिल्डिंग इन ग़रीबों के नाम लेकर झूठ-मूठ के संस्थान खोल डालते हैं। 

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