एमबीबीएस बनाम डीआईएम
डॉ. प्रीति सुरेंद्र सिंह परमार
डॉक्टर साहब हैरान, परेशान, और हों भी क्यों ना? एमबीबीएस की डिग्री एक तरफ़ और झोला-छाप एक तरफ़! डीआईएम; यह क्या होता है, यह कौन सी डिग्री है? यह ऐसी डिग्री है जिसमें क्लास में जाए बिना ही आप डॉक्टर बन जाते हैं? इसे कहते हैं “डिज़ीज़ इंक्रीज़ इन माइंड” वह कैसे भला? बताते हैं ज़रा धैर्य तो रखिए! वह डॉक्टर ही क्या जो आपके दिमाग़ को पढ़ ना सके! पढ़ना कठिन भी नहीं। जैसे ही व्यक्ति आए आप उसे मरीज़ बना दें। कुछ ज़्यादा ख़ास नहीं करना पड़ता, चार-पाँच जाँच कराने को लिख दें।
रामू काका फिर आश्चर्य में बोले, “क्यों भला कोई बुख़ार में भी जाँच लिखता है?”
पेशेंट का दिमाग़ पढ़ते-पढ़ते वह जान लेता है कि यह घबरा रहा है, या जल्दी ठीक होना चाहता है। बस लंबा–चौड़ा दवाइयों का पर्चा, रिपोर्ट समझ आए चाहे ना आए 4-6 बीमारियों के नाम गिना देना है। दो-चार इंजेक्शन लगा देने हैं, हर 7 दिन में आकर दिखाने को कहना है। हर बार दवा बदलनी है, क्योंकि मेडिकल स्टोर तो डॉक्टर साहब का है, और नहीं भी है तो कमीशन तो खाते ही हैं। मेडिकल स्टोर वाले का भी भला कर देते हैं।
ख़ैर तो बात चल रही थी एमबीबीएस वाले की दुकान क्यों नहीं चलती? रामू काका ने पूछा, “क्यों नहीं चलती?”
अरे भैया वह यह सब दवाइयाँ बंद कर देता है। और एक गोली लिख देता है, और कहता है तुम जल्दी ठीक हो जाओगे; यह इतनी सारी दवाइयाँ क्यों खा रहे हो? पर वह रोगी का दिमाग़ पढ़ने में फ़ेल हो जाता है। उसे यह पता नहीं होता कि आजकल के व्यक्ति जब तक जेब पूरी ख़ाली न कर दें, दस-बीस जाँच ना करवा लें, अपने-आप को बीमार ही मानते रहते हैं। ऐसे पढ़े-लिखे एमबीबीएस डॉक्टर उनके दिमाग़ को पढ़ना भूल जाते हैं। रोगी की नज़र में बेकार डॉक्टर साबित हो जाते हैं। घर जाकर रोगी कहता है—अरे कोई दवाई दी ही नहीं, कोई जाँच कराई नहीं! और फिर पहुँच जाता है डीआईएम के पास जो उसे सुबह दोपहर शाम रात अलग-अलग प्रकार की दवाइयाँ देते हैं। चाहे वह एमआर ही उन्हें गिफ़्ट ना कर गया हो। उसीकी पुड़िया बना बनाकर सुबह-दोपहर-शाम दो एक-एक इंजेक्शन देकर मरीज़ के दिमाग़ का इलाज कर देते हैं और मरीज़ अच्छा भी हो जाता है। यदि मरीज़ कुछ ज़्यादा ही बीमारियों का शौक़ीन हो तो उसे ऑपरेशन की भी सलाह दे डालते हैं।
“और एक राज़ की बात तो आपको पता ही नहीं है।”
रामू बोला, “वह क्या? . . .”
वह यह भैया कि डीआईएम जैसे ही कहता है कि तुम दिल के मरीज़ हो, बड़ी देर से आए हो और वह सच में दिल का मरीज़ बन जाता है, और डीआईएम की दुकान चल पड़ती है। अरे! तुम्हें अस्थमा है। घर आते-आते पूरी ताक़त से खाँसना शुरू कर देते हो। जिस तरह सब्ज़ी-भाजी लाते हैं उसे तरह से पोटली भर के दवाइयाँ ले आता है।
यह डीआईएम बोलते बड़ा मीठा हैं, “ ख़ैर तुम सही समय पर आ गए हो अब बच जाओगे।”
जेब हल्की होने के साथ आपकी तबीयत भी ठीक होने लगती है, अब यह आपकी ख़्वाहिश है, किधर जाना पसंद करते हैं।
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