पापा की यादें
डॉ. प्रीति सुरेंद्र सिंह परमार
पूछ रहे थे तुम मुझसे
आँखें क्यों भर आईं हैं
गूँथ रही थी आटा मैं
बस यूँ ही कहा था मैंने
याद पिता की आई है
बरबस ही बरस पड़ीं ये
अश्रु की जल धारा बनके
सावन के इस मौसम में
मन ने बातें दोहराई हैं
जितना प्यार दिया तुमने
उतना ही वह करते थे
अंतर इतना बस है देखो
तुम साथ निभाते हो मेरा
वह उँगली पकड़ के चलते थे
हृदय के इस बंद पिटारे में
उनकी भूली बिसरी यादें हैं
तुम्ह अभी समझ न पाओगे
यह पिता पुत्री की बातें हैं
चली वहाँ से मैं पूरी आई
जो शेष छूट रहा था वह
मन के कोने में रख लाई
दौड़ कर देती थी चश्मा
उनकी घड़ी और रुमाल
ग़लतियों पर समझाते थे
प्यार से सिर सहलाते थे
कच्चा पक्का जो भी बना
रानी बिटिया का हैं बना
नमक डला हो चाहे कितना
कहते थे बड़ा स्वादिष्ट बना
ख़ाली हाथ वह घर ना आये
पसंद की हर चीज़ वो लाये
मुँह पर रहता था मेरा नाम
करवाते न थे कोई भी काम
फोन पर बातें हो जाती थीं
ख़ुशी इसी में मिल जाती थी
धीरे-धीरे समय भी गुज़रा
ख़बर मिली दौड़ी में पहुँची
चमन का माली रूठ गया
फिर साथ हमारा छूट गया
यदा कदा खुल जाता पिटारा
आँखों से फिर बहती धारा
तुमको मैं कैसे समझाऊँ
नारी में कई रूप बसे हैं
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