आत्म मंथन और आरोप
डॉ. प्रीति सुरेंद्र सिंह परमार
आज के आलेख का विषय है—आरोप लगाना कितना आसान है और आत्म मंथन करना कितना मुश्किल . . .
दो दिन पहले की ही घटना से याद आया, बहुत सरल और सहज होता है न कह देना कि बलात्कार हुआ है। फिर मीडिया, पुलिस, समाज में चर्चा का विषय बन जाता है। एक पल दूसरे पक्ष के बारे में, न सोते हुए मन में, यही विचार आता है कि ग़लत हुआ और हम अपनी मानसिकता उस ओर झुका देते हैं जिसके साथ अपराध हुआ है। युवा धरना देने पर उतर आते हैं।
पर क्या कोई सच्चाई जानने की कोशिश करता है, वास्तव में जिसके साथ यह घटना घटी है, वह सही भी है कि झूठ?
यदि घटना सही है तो विचारणीय है, निंदनीय है, दण्डनीय है। बलात्कार तो एक बार होता है किन्तु माँ-पिता से पूछा जाए कि उन पर क्या बीतती है। जो भविष्य में कुछ देश के लिए कर सकती वह कलंकित होकर रह जाती है। उस बालिका या महिला से पूछा जाए जो मानसिक प्रताड़ना जीवन भर झेलती है। डॉक्टर की एक झूठी रिपोर्ट सत्य को असत्य साबित कर देती है।
किन्तु दूसरी ओर बहकावे में लगाया गया आरोप एक व्यक्ति को जीते जी मार देता है। जिस ने वह अपराध किया ही नहीं वह उस अपराध बोध में ही मर जाता है। आरोप के पहले आत्म मंथन होना चाहिए। चंद रुपयों के लालच में भले पढ़ने-लिखने वाले लड़कों पर भी यह आरोप जड़ दिया जाता है।
और तो और अधिकारी वर्ग कर्मचारियों को काम के लिए डाँट भी नहीं सकते हैं। चरित्रहीनता का केस लगा दिया, यौन शोषण का मामला दर्ज कर दिया। एक डाँट इतनी भारी पड़ गई कि नौबत अधिकारी के तलाक़ तक आ गयी। बेचारा पत्नी को समझाए कि समाज के सामने अपने आप को निर्दोष साबित करे। ज़िन्दगी भर का एक धब्बा लेकर जीने से अच्छा मर जाना पसंद करता है। बच्चों के सामने मुँह दिखाने लायक़ नहीं रह जाता। बेचारा किस-किस को सफ़ाई दे; कर्त्तव्य परायणता भारी पड़ जाती है। कलंकित होने पर कैसा महसूस करता है!
आरोप से पहले आत्म मंथन, ज़रूरी है।
राजनीतिक उठा-पटक के दौरान भी लोग एक की जगह 10 लोगों को आरोपित कर देते हैं। जिसका इस बात से दूर-दूर तक का लेना-देना नहीं है, वह भी बे-मौत मारा जाता है।
इसमें कोई दो राय नहीं कि घटनाएँ होती हैं; पर क्या सभी सत्य होती हैं?
माँ-बाप तो बहू के पास है ही नहीं, घरेलू हिंसा का केस लग जाता है। 30 साल तक जो माँ अपने बेटे को पालती है उसे 3 मिनट में अलग करने लिए के लिए घरेलू हिंसा का केस लगा दिया जाता है। और मजबूरी में आकर बूढ़े माँ-बाप उससे कहीं दूर किराए के मकान में पहुँच जाते हैं। वह लड़की यह भूल जाती है जो आरोप आप किसी के माँ-बाप पर लगा रहे हैं, कल वह उसके ऊपर भी लग सकते हैं। आजकल बूढ़े माँ-बाप लाठी पकड़े कटघरे में खड़े हो जाते हैं। बेचारे वृद्धावस्था में कोर्ट कचहरी में घूमते-फिरते हैं।
बहकावे में आकर वह लड़की जो यह आरोप लगाती है, अपना घर परिवार नष्ट कर डालती है। बाद में आत्म मंथन से क्या होता है? आत्म मंथन करना ही नहीं चाहती।
वहीं, कभी-कभी बूढ़े माँ-बाप अपने अन्य बच्चों के बहकावे में आकर बहू पर आरोप लगा देते हैं। वह यह भूल जाते हैं कि जिनके कहने पर, किसी भली लड़की पर आरोप लगा रहे हैं, वह घटना उनकी बेटी के साथ भी हो सकती है और अगर ऐसा हो तो क्या होगा?
यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि जिस पर भी आरोप लगाएँ—एक बार आत्म मंथन ज़रूर कर लें।
अच्छा ख़ासा पढ़ता-लिखता लड़का, किसी विवाद से उसका दूर-दूर तक का रिश्ता नहीं पर एक आरोप उसका पूरा का कैरियर ख़राब करके रख देता है।
भारत की अदालतों में न जाने कितने ऐसे केस भी चल रहे हैं, जो मात्र षड्यंत्र, प्रपंचना, दूसरों को पीड़ित करने के उद्देश्य से एवं बदला लेने की तासीर वाले लगाए जाते हैं। क्योंकि व्यक्ति को किसी की ख़ुशी बरदाश्त नहीं होती। आरोप लगाने में यह माहिर व्यक्ति, इतना अच्छा आरोप लगा लेते हैं कि कभी-कभी सत्य घटनाओं पर भी पर्दा पड़ जाता है। इस तरह के शातिर अपराधिक प्रवृति के व्यक्तियों के साथ कठोरतम दंड का प्रावधान बना देना चाहिए।
ऐसे मामले में यह कहना अनुचित न होगा कि कई बार हमारे वकील भी वकालत के पेशे को बदनाम कर देते हैं। वह अपना केस जीतने के चक्कर में ऐसे-ऐसे आरोप आपस में ही लगवा देते हैं कि जीवन में फिर वापस मिलने की गुंजाइश ही नहीं रह जाती। यदि अदालत में केस आ गया तो अधिकतर तलाक़ पर ही ख़त्म होंगे।
और जिनके साथ ऐसे हादसे घटनाएँ होती हैं, शायद वह न्याय पाने में विलंबित हो जाते हैं।
इस बात की कौन कितनी जाँच पड़ताल करता है कि क्या बात सत्य है और क्या बात ग़लत है? आरोप सही है या ग़लत है?
आग लगाने वाला आग लगाकर ख़ुश हो जाता है। भड़काने वाला भड़का कर मज़े लेता है।
चंद रुपयों पैसों के लालच में इस तरह के आरोप लगाकर उन लोगों के साथ अन्याय होता है, जिनके साथ यह घटनाएँ वास्तव में घटती हैं।
अंतर मन के अंतर्द्वंद्व में कई बार अपराध होने के बाद व्यक्ति आरोप नहीं लगाता है। और अपराधों को बढ़ने के लिए छोड़ देता है। आत्म मंथन ही एक प्रक्रिया है जो आपको सही और ग़लत की ओर इशारा करती है। किसी पर आरोप लगाने के पहले यह कभी ना भूलें कि इसमें सत्य शामिल हो। असत्य पर कोई बात कभी नहीं चलती बेशक व्यक्तियों की अदालत में आप सही भी साबित हो जाएँ पर ईश्वर की अदालत कभी माफ़ नहीं करती। वह जैसे को तैसा ही देती है।
आरोप के साथ आत्म मंथन ज़रूरी है।