टमाटर

डॉ. प्रीति सुरेंद्र सिंह परमार (अंक: 235, अगस्त द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)

 

पाठको आज मैं उपस्थित हूँ एक और नया व्यंग्य लेकर!

“अरे,” जीतू की अम्मा ज़ोर-ज़ोर से जीतू से कह रही थी, “टमाटर चटनी क्यों माँगता है? इतने में तो एक पैकेट तेल आ जाएगा। उसमें 25 दिन तल-तल कर पूरी सब्ज़ी खा लेंगे।”

टमाटर में कोई रोग हो गया है। ऐसा मैकडोनाल्ड वाले कहते हैं। कहें भी क्यों ना? 300 का पिज़्ज़ा खिलाएँगे। 160 का टमाटर डालेंगे। तौबा, तौबा, टमाटर में रोग ही रहने दो। निरोग हो जाएगा तब डालेंगे। 

हमने सुना है, सब्ज़ियों का राजा आजकल लड़ाई कर रहा है। अपने हक़ के लिए वह कहता है—मैं राजा हूँ। तो दूसरी ओर टमाटर बोलता है—मैं राजा हूँ। आधी सब्ज़ियाँ टमाटर की ओर दौड़ रही हैं और आधी पुराने राजा की ओर, कुछेक शांत बैठी हैं। जो जीतेगा हम दल बदल के उधर चले जाएँगे। पता नहीं कौन राजा बनता है।

“अरे यह बैंड बाजा और इतना बड़ा होटल बुक क्यों हो गया है?”

“अच्छा . . . तुझे पता नहीं जिसकी शादी ना होती थी—कलुआ, उसे ऐसी सुंदर लड़की मिली है पूछो मत!टमाटर ने उसके भाग खोल दिए हैं, बड़ी-सी गाड़ी में घूम रहा है वो।”

“अच्छा वही कलुआ जिसके खेत के आगे कमांडो फ़ोर्स लगा दी है। टमाटर जब जाते हैं तो बाउंसर जाते हैं, कलुआ के संग में, कलुआ के संग के टमाटर के संग।” 

“अब यह तो तो मुझे नहीं पता।”

“कल कोतवाली में एफ़आईआर आई थी, धनस्सु के घर चोरी हो गई।”

“ऐसा क्या? क्या? चला गया?” 

“चला क्या गया! बेंगलुरु से टमाटर लाया था। वही चोरी हो गया है।” 

“माल, पकड़ा गया कि नहीं?” 

“अभी पता नहीं चला!”

“अरे यह पगला है; लॉकर में काहे नहीं रखे?”

“अरी बहना लॉकर में ही तो रखवाने जा रहे थे! अब उसे क्या पता सर मुड़ाते ही ओले पड़ जाएँगे . . . बेचारा! उसने सोचा सुबह रख देंगे उसे क्या पता कि चंबल और बीहड़ के डाकू उसके घर ही आ जाएँगे डाका डालने बेचारा लुट गया।” 

“अम्मा को फोन कर रही थी अपने, तो बग़ल वाली कह रही थी, टमाटर की चटनी बनाई है, टमाटर की सब्ज़ी बनाई है!”

उनकी बातें सुनकर हमारी आँखें खुली की खुली रह गईं! तभी उनकी बिटिया ने अंदर से आवाज़ लगाई। 
“आधा टमाटर डाल दे, आधे से आधा,”

हमारी पड़ोसन ज़ोर से चिल्लाई, “हम कोई क्या करोड़पति हैं जो टमाटर डालेंगे। अमचूर डाल दे समझी।” 

हम झूठ सुनकर चुपचाप चले आये।  

“और जो हमारे दूर के पड़ोस में, लोटे की अम्मा, वह तो . . . जैसे ही सब्ज़ी अंदर आती है, और घर पर ताला डालवा देती है। भड़क-भड़क कर रह जाओ। पर दरवाज़ा ना खोलेंगी।”

“अरे! ऐसा क्यों?” 

“कोई टमाटर माँगने ना आ जाए।”

“अच्छा! अब समझ में आया।”

टमाटर आजकल ग़ुस्से में रहने लगा है। हमारे पास के बाबूजी टमाटर ख़रीदने गए। ग़ुस्से में लाल होकर टमाटर देख रहा था। ऐसा लग रहा था कह रहा हो, “मौन बने रहते हो। कोई प्रतिक्रिया नहीं देते।”

देश की घटनाओं पर वह बेचारे क्या जवाब देते भला, यूनियन के लीडर हैं।

एक जेल में अपराधी से फाँसी पर चढ़ने से पहले जज साहब ने पूछा, “कहीं कोई तुम्हारी आख़री इच्छा हो तो बता दो।”

कहने लगा, “मुझको टमाटर की सब्ज़ी खिला दो।”

जज साहब तब से बेहोश हैं!

थोड़ी दूर पर एक नौटंकी वाले रहते थे। उसमें जो युवा था कहने लगा, “कमाई का बहुत अच्छा ज़रिया है।” 

उनमें जो बूढ़े बैठे थे, वह बोले, “कैसे? अब तो कोई नौटंकी देखने आता नहीं। लोग सिनेमा हॉल चले जाते हैं। बचा खुचा टीवी पूरी कर देता है।”  

“हम पूरे ज़ोर-शोर से एडवर्टाइज़ करेंगे। और जब पूरे लोग इकट्ठे हो जाएँगे। तो हम अमीर बन जाएँगे।”

“अरे वह कैसे?” 

“हम नौटंकी शुरू ही नहीं करेंगे और करेंगे तो ऐसी जिसमें कोई मज़ा ना आए, बस फिर क्या है, टमाटर फेंकना शुरू हो जाएँगे। हम अमीर हो जाएँगे।”

“आइडिया तो अच्छा है,” एक बुज़ुर्ग बोला।

“चलो तो फिर नौटंकी शुरू करते हैं!” ढोल, नगाड़े, थाप के साथ में बड़े ज़ोर-शोर से नौटंकी शुरू हो गई! अपुन की कितनी कमाई हुई यह तो पता नहीं।

एक साधु जा रहा था, अपने शिष्य से बोला, “अंधेर नगरी चौपट राजा, टके सेर भाजी टके सेर खाजा,” तब से गुरुजी ग़ायब हैं बेचारा शिष्य ढूँढ़ता फिर रहा है। न जाने कहाँ चले गए हैं! 

आज के लिए इतना ही पाठको!

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