क़लम थामी जब
डॉ. प्रीति सुरेंद्र सिंह परमार
जब पहली बार बड़ों के कहने पर क़लम उठाई, ऐसा लगा जैसे क़लम नहीं, कोई जादू की छड़ी पकड़ ली हो। सबने बड़ी तारीफ़ें कीं, ख़ासकर पति ने, और मुझे लगा कि अब मैं साहित्य की दुनिया की नई सितारा बनने वाली हूँ। लेकिन क़लम की स्याही सूखने से पहले ही जलने की गंध आने लगी। लोग सलाहों के जादूगर बन गए और हर दिशा से “मत लिखो” का मंत्र सुनाई देने लगा।
“राजनीति पर मत लिखना, वरना अख़बारों में जगह नहीं मिलेगी।”
“समाज की कुरीतियों पर मत लिखना, समाज के ठेकेदार नाराज़ हो जाएँगे।”
“भ्रष्टाचार पर मत लिखना, सरकारी महकमा तुम्हारे दरवाज़े पर दस्तक देगा।”
“आत्महत्या के बारे में तो बिल्कुल मत लिखना, वरना आत्महत्याओं की लाइन लग जाएगी।”
“पुलिस प्रशासन पर लिखोगी तो ख़ुद जेल की मेहमान बन जाओगी।”
इतनी सारी “मत लिखना” की सलाहों के बीच सोचा, क्यों न लिखना ही बंद कर दिया जाए? लेकिन तभी महान लेखकों की आत्माओं ने सपने में आकर झकझोरा, “लिखो, लिखो! पर हमारी तरह राजनीति, समाज, भ्रष्टाचार सबको छोड़कर फूल-पत्तों, चाय की चुस्कियों और बादलों की बातें लिखो।”
मन ने भी तर्क दिया, “ठीक है, संस्कार और सभ्यता पर लिख लेते हैं।”
लेकिन फिर किसी ने कहा, “बच्चियों के कपड़ों और उनके सलीक़ों पर मत लिखना।”
“और सच तो कभी लिखना ही मत, सच लिखोगी तो न लेखिका बन पाओगी न ही शान्ति मिलेगी।”
तो आख़िर में समझ आया कि लेखिका बनने का सबसे सरल रास्ता है: लिखो वही, जो किसी को बुरा न लगे। यानी लिखो तो, पर असल में मत लिखो! क्योंकि सच लिखने वालों के लिए समाज में जगह कहाँ है? मगर मन फिर भी ना माना!
शिक्षा का हाल तो ऐसा है जैसे बंजर ज़मीन पर फ़सल उगाने की कोशिश। दसवीं पास बच्चे, जिन्हें “नवासी” लिखने में दिक़्क़त होती है, हमारे शिक्षा तंत्र के विकास का जीवंत उदाहरण हैं। स्कूल में किताबें तो हैं, पर पढ़ाई ग़ायब है। शिक्षक हैं, पर शिक्षण कहीं खो गया है। आख़िर, “पास” होने के लिए नंबर चाहिएँ, ज्ञान तो बस बोनस है!
नौकरी का मंज़र तो और भी अजीब है। इंजीनियरिंग डिग्री लेकर चपरासी बनने की क़तार में खड़े युवा, अपने सपनों को नौकरियों के दरवाज़े पर लटका चुके हैं। पढ़ाई के नाम पर सालों की मेहनत और फिर चाय-पानी लेकर साहब को ख़ुश करने की तैयारी। ये वही देश है जहाँ “डिग्रीधारी” होना गर्व की बात थी, अब “सरकारी चपरासी” होना सफलता की पहचान बन चुका है।
डॉक्टरों का हाल पूछिए मत। इलाज के नाम पर बीमारियाँ पैदा करने का हुनर उन्हें बख़ूबी आता है। मर्ज़ छोटा हो या बड़ा, दवाओं का ऐसा “कॉकटेल” बना देंगे कि आदमी सोच में पड़ जाए कि बीमारी बड़ी है या बिल। अस्पताल में पहुँचते ही मरीज़ नहीं, बल्कि ATM मशीन की तरह व्यवहार होने लगता है।
वकीलों की बात तो क्या ही कहें! ये तो ऐसी व्यवस्था के पहरेदार हैं, जो न हिलती है न डोलती है। केस को खींचने का हुनर इन्हें विरासत में मिलता है। ‘पेशी पर पेशी’ बढ़ाने का खेल ऐसा कि तारीख़ पर तारीख़ सुनकर मुवक्किल की ज़िन्दगी भी तारीख़ों में तब्दील हो जाती है। काम है या नहीं, पर उपस्थिति दर्ज कराना अनिवार्य है। ‘साइन’ हो गया, समझो काम पूरा हुआ!
ये व्यवस्था का ऐसा चित्र है, जहाँ हर कोना सवाल खड़ा करता है। शिक्षा, नौकरी, स्वास्थ्य और न्याय—सबका हाल बेहाल। पर हम क्या करें? . . . हम तो वही हैं, जो इस व्यवस्था को पालते-पोसते हैं। व्यंग्य तो कर लिया, अब बदलाव के लिए कुछ करें? या फिर तारीख़ पर तारीख़ का इंतज़ार करें?
नई लेखिका का डर
डर तो स्वाभाविक है, ख़ासकर जब आप ‘नई लेखिका’ हैं। यह डर ऐसा है जैसे पहली बार रसोई में क़दम रखने पर चाय बना रही हों और पूरी कॉलोनी को लगता है कि बम बना रही हैं। लिखना चाहती हैं, पर हर शब्द के साथ डर, “लोग क्या कहेंगे?”
सच कहें, तो नई लेखिका का डर सबसे ख़ास होता है। शब्द लिखते समय ऐसा लगता है मानो हर अक्षर किसी की अदालत में पेश हो रहा हो। “ये क्यों लिखा?”, “ऐसा क्यों सोचा?”, “इसका मतलब क्या है?” और अगर ग़लती से आपने समाज या व्यवस्था पर कुछ लिख दिया, तो आलोचक ऐसे टूट पड़ते हैं जैसे आपसे उनकी पर्सनल दुश्मनी हो।
नई लेखिका का सबसे बड़ा डर होता है कि लोग उसे गंभीरता से लेंगे या नहीं। मन में सवाल उठता है, “अगर मैंने लिख दिया कि चाँद भी कभी उदास होता है, तो क्या लोग कहेंगे कि यह पागल है?” और अगर कुछ अलग लिख दिया, तो चिंता होती है कि कहीं लोग यह न समझ लें कि आप ज़्यादा ही समझदार बनने की कोशिश कर रही हैं।
असल में यह डर है-समाज का, व्यवस्था का, या ख़ुद के मन का।
लिखूँ या न लिखूँ? यही तो सवाल है। लिख दिया तो लोग कहेंगे, “अरे, ये तो क्रांति की बात कर रही है!” और न लिखा तो ख़ुद का ज़मीर बोलेगा, “तू भी डर गयी?” अब इस बेचारी लेखिका का क्या दोष? क़लम तो चलाना चाहती है, पर काग़ज़ का भी एक डर है—कहीं ये काग़ज़ जेल की फ़ाइल न बन जाए।
डर बड़ा ही अजीब होता है। सच बोलने का डर, झूठ पकड़ने का डर, और सबसे बड़ा—ख़ुद की आवाज़ दब जाने का डर। समाज कहता है, “सच लिखो”, लेकिन जब सच लिखा जाता है, तो वही समाज कहता है, “अरे, ये तो बग़ावत कर रहा है!”
अब आप ही बताइए, जो लिखता है, उसे लोग देश का दुश्मन समझते हैं। जो चुप रहता है, उसे कायर कहते हैं। लेखिका बेचारी बीच में फँसी रहती है। वो सोचे कि लिख दूँ? फिर दिमाग़ में आवाज़ आती है, “लेखिका, ज़्यादा लिखोगी तो नौकरी जाएगी।” और न लिखूँ तो दिल कहता है, “बहन, क़लम बेकार हो जाएगी।”
तो क्या किया जाए? लिखो भी, पर ऐसा लिखो कि सच भी निकल आए और किसी की भौं भी न तने। जैसे कि “आज के दौर में चाय बड़ी महँगी हो गई है।” सुनने वाले समझ जाएँगे कि चाय तो बहाना है, मुद्दा कुछ और है।
मेरे गुरु बोले, “डरो मत लिखो ज़रूर, लेकिन क़लम को तलवार मत बनाओ। और डर? वो तो हर किसी को लगता है। बस फ़र्क़ इतना है कि कोई डर के आगे सिर झुका देता है, और कोई उसे कहानी बना देता है।”
डर और लेखन का रिश्ता बड़ा पुराना है। डर न हो, तो क़लम चलती ही नहीं। लेकिन ज़्यादा डर हो, तो क़लम रुक जाती है। और यही नई लेखिका की असली परीक्षा होती है।
तो डरने का एक उपाय है: बस लिख डालिए। डर के साथ लिखिए। डर को अपनी कहानी का किरदार बनाइए। जब आलोचक आएँ और कहें, “ये क्या लिखा है?” तो मुस्कुराइए और कहिए, “डर ने लिखा है। मैं तो बस उसका माध्यम हूँ।”
याद रखिए, हर बड़ी लेखिका कभी “नई” थी। फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है कि उन्होंने डर को हारने नहीं दिया, बल्कि उसे शब्दों में बदल दिया। आप भी लिखें। डर को कहानी बनाएँ, व्यंग्य बनाएँ, कविता बनाएँ। और हाँ, लोगों का क्या है—उन्हें तो हमेशा कुछ न कुछ कहना ही है!
0 टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
-
- अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस और असली हक़ीक़त
- अपराध की एक्सप्रेस: टिकट टू अमेरिका!!
- अस्त्र-शस्त्र
- आओ ग़रीबों का मज़ाक़ उड़ायें
- आहार दमदार आज के
- एमबीबीएस बनाम डीआईएम
- कचरा संस्कृति: भारत का नया राष्ट्रीय खेल
- गर्म जेबों की व्यवस्था!
- चंदा
- झुकना
- टमाटर
- ताक़तवर कौन?
- पेट लवर पर होगी कार्यवाही
- मज़ा
- यमी यमी मिल्क राइस
- रीलों की दुनिया में रीता
- रफ़ा-दफ़ा
- विदेश का भूत
- विवाह आमंत्रण पिकनिक पॉइंट
- संस्कार एक्सप्रेस–गंतव्य अज्ञात
- क़लम थामी जब
- नज़्म
- कविता
- चिन्तन
- कहानी
- लघुकथा
- विडियो
-
- ऑडियो
-