मौन

डॉ. प्रीति सुरेंद्र सिंह परमार (अंक: 234, अगस्त प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

 

सुधा ने अपने पति से पूछा, रोज़ की तरह उसकी आदत थी, “बाहर जा रहे हो कब तक लौट आओगे?” 

यह जानकारी वह जानकारी हासिल करने के लिए नहीं लेती थी। या उन पर पहरेदारी नहीं करती थी। बल्कि वह जानना चाहती थी। यदि देर से आ रहे हैं तो फिर कुछ खाना बनाकर खिला दिया जाए। जब तक पति नहाए-धोए, पूजा की, तब तक पत्नी ने पुलाव बना दिया था। 

सुधा ने किचन से ही पूछा, “टिफ़िन लगा दूँ?”

प्रतिउत्तर में ना सुनाई दिया। 

सुधा बोली, “ठीक है। तो थोड़ा खा कर चले जाओ।”

इतना उसका कहना ही था पति ने तुरंत कहा, “खा-खा कर मर जाओ। तुम्हारा काम ही क्या है? खाना बनाना और खिलाना।”

पर सुधा शांत रही और मुस्कुरा दी; जानती थी इस इस समय मौन रहना ही उचित है। क्योंकि खाने वाले का स्वाद चला जाएगा। वो तन्मयता से नहीं खाएगा . . . साथ ही पत्नी का एक धर्म यह भी होता है कि वह पति का ख़्याल रखे—मौन स्वास्थ्यवर्धक था उस समय। उसके पति के भविष्य के स्वास्थ्य के लिए। 

मौन भी एक संस्कार है। जो माँ से बेटी में आता है। 

और बहुत से विवादों को रोक पाता है! सुधा को आत्मिक संतुष्टि थी कि पति ने कुछ खा लिया है। 

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