कचरा संस्कृति: भारत का नया राष्ट्रीय खेल
डॉ. प्रीति सुरेंद्र सिंह परमार
भारत देश में समस्याएँ वैसे तो बहुत हैं, पर ‘कचरा प्रबंधन’ एक ऐसी समस्या है जो न केवल हमारी गलियों, बल्कि हमारे विचारों में भी ठसक से बसी हुई है। हम भारतीयों ने कचरा फैलाने को मानो एक राष्ट्रीय खेल का दर्जा दे दिया है। हर महल्ले, हर गली और हर नुक्कड़ पर ‘कचरा चैंपियनशिप’ बड़े धूमधाम से खेली जाती है।
कचरा फेंकने का भी एक ख़ास तरीक़ा है। पहले तो हम ये सुनिश्चित करते हैं कि कचरा सड़क के बीचों-बीच गिरे, ताकि हर आने-जाने वाले को ‘हमारे योगदान’ की झलक मिल सके। फिर, कचरा फेंकने के बाद, हम गर्व से चारों ओर देखते हैं, जैसे कोई स्वर्ण पदक जीत लिया हो।
अब सवाल उठता है कि क्या हम कचरे का समाधान कर सकते हैं? बिल्कुल कर सकते हैं! पर क्यों करें? यह तो ‘सरकार का काम’ है। हमारी ज़िम्मेदारी सिर्फ़ यह है कि कचरा फैलाएँ और फिर सोशल मीडिया पर सरकार को कोसें। कुछ लोगों को तो यह कहने में भी शर्म नहीं आती, “भाई, हमारे टैक्स का पैसा किधर जा रहा है?”
घर में ‘डीकंपोज़’ करना? अरे भई, यह तो विदेशों में होता है। हम भारतीयों के लिए, घर में कचरा प्रबंधन करना हमारी ‘शान’ के ख़िलाफ़ है। हमारे यहाँ कचरे को घर से बाहर फेंककर दूसरे के सिर पर डालने की पुरानी परंपरा है।
सरकार भी ‘कचरा प्रबंधन’ के नाम पर ख़ूब व्यस्त है। कभी कचरा उठाने के लिए नए-नए ट्रकों का उद्घाटन करती है, तो कभी स्वच्छता अभियानों की तस्वीरें खिंचवाती है। लेकिन असली तस्वीर वही है—कचरे के पहाड़ और उनसे उठती बदबू, जो हमारे विकास के ‘असली शिखर’ की कहानी बयाँ करती है।
समाधान तो सरल है। अगर हर व्यक्ति अपने घर में कचरे की ‘डीकंपोज़िंग’ शुरू कर दे, तो आधी समस्या वहीं हल हो जाएगी। पर हम समस्या का समाधान क्यों करें? हमारा काम तो सिर्फ़ समस्या पैदा करना और फिर उसके लिए दूसरों को ज़िम्मेदार ठहराना है।
गाय और कचरा: भारतीय नागरिक का आधुनिक सेवा भाव
हम भारतीयों का ‘सेवा भाव’ इतना विशाल है कि हम गायों को भी अपने कचरे के माध्यम से ‘भोजन’ कराते हैं। हाँ, चाहे वह भोजन प्लास्टिक बैग में लिपटा हुआ हो या टूटे-फूटे काँच के साथ परोसा गया हो, हमारा प्रेम तो हर हाल में गाय के प्रति अमर है।
अब देखिए, सब्ज़ियों के छिलकों की कहानी। क्या छिलके को सीधे गाय को खिलाना हमारी शान के ख़िलाफ़ है? अरे नहीं, हम उसे पहले कचरे में डालेंगे, फिर उसे सड़क पर फेंकेंगे और यह सुनिश्चित करेंगे कि वह दूसरे के घर के सामने गिरे। आख़िर हमारा ‘मूल अधिकार’ है कि अपने घर के सामने गंदगी न हो, भले ही दूसरे के घर के आगे पूरी कचरा मंडी खुल जाए।
गायों की हालत तो और भी ‘गौमय’ है। बेचारी ग़लती से सोचती है कि यह मानव जाति उसे पूजती है। लेकिन असल में, हम उसे ऐसे कचरे परोसते हैं जैसे कोई 5-स्टार होटल का मेन्यू हो। प्लास्टिक, जूठन, गंदगी . . . सब एक प्लेट में। फिर जब गाय बीमार पड़ती है, तो हम कहते हैं, “सरकार कुछ करती क्यों नहीं?”
कुछ लोग तो अपने ‘कचरा प्रबंधन’ में इतने होशियार हैं कि सब्ज़ियों के छिलकों के साथ टूटी हुई चप्पलें और फटे कपड़े भी गाय के सामने डाल देते हैं। क्योंकि आख़िरकार, गाय तो हमारी ‘माँ’ है, और माँ सब सहन कर सकती है।
समस्या की जड़ हमारी मानसिकता है। हमें लगता है कि कचरे को सही तरीक़े से फेंकने का काम हमारा नहीं, किसी और का है। अगर हम सब्ज़ियों के छिलकों को अलग रखें और शाम को गाय को सीधे खिलाएँ, तो न केवल गाय का स्वास्थ्य अच्छा रहेगा, बल्कि हमारी गलियाँ भी साफ़ रहेंगी। पर नहीं, हम ऐसा करके अपना ‘भारतीयपन’ थोड़ी न खो सकते हैं!
जिस दिन हम समझ जाएँगे कि गाय को प्लास्टिक नहीं, बल्कि पोषण चाहिए, और कचरा दूसरे के घर के सामने नहीं, बल्कि सही जगह पर फेंका जाना चाहिए, उस दिन हमारी गलियाँ ही नहीं, हमारी सोच भी स्वच्छ हो जाएगी। लेकिन तब तक, गाय बेचारी कचरा खाती रहेगी, और हम ‘गाय प्रेमी’ बने रहेंगे।
जिस दिन हम यह समझ जाएँगे कि कचरे की समस्या हमारी है, सरकार की नहीं, उस दिन हम भारतीय ‘विकसित’ देशों की सूची में सबसे ऊपर होंगे। पर तब तक, ‘कचरा फेंको, सरकार को कोसो’ वाला यह महान खेल जारी रहेगा।
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