सुकून

डॉ. प्रीति सुरेंद्र सिंह परमार (अंक: 247, फरवरी द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

 

सीता पेपर देने अपने पति के साथ भोपाल आई थी। पेपर अच्छा रहा लौटते समय एक सुलभ कांप्लेक्स के सामने गाड़ी रोक कर सीता के पति कहने लगे, “बड़ा साफ़ सुथरा है, सुलभ कांप्लेक्स। जब तुम पेपर देने गई थी तब हम लोग यहाँ आए थे। तुम भी फ़्रेश हो जाओ फिर रास्ते में इतना साफ़-सुथरा मिले ना मिले।”

सीता को भी अपने पति की बात सही लगी। वह तुरंत उतर कर आगे बढ़ी और कॉम्प्लेक्स की ओर गई। सीता ने जैसे ही क़दम रखा तो दंग रह गई, चारों ओर इतनी सफ़ाई थी कि पूछो मत। कीटाणुनाशक गोलियाँ, वॉश बेसिन में पड़ी हुईं थीं। हैंड वॉश रखा था। टॉयलेट भी एकदम चमक रहा था। तभी उसे एक महिला की आवाज़ आई जो एक छोटे से कमरे में पर्दा डाले हुए थी। बड़े प्यार से सीता को नमस्ते करके वह मुस्कुरा कर खड़ी हो गई। सीता की साड़ी थोड़ी स्लिप हो रही थी। उसने पर्दा पड़ा देखा तो महिला बोली, “आइए न।” सीता ने जब उसे कमरे में प्रवेश किया, देखा, लगभग आठ वाई आठ का ही कमरा होगा। एक ओर छोटी सी पुराना टीवी रखा थ। एक टूटे हुए बक्से के ऊपर। बक्सा पुराना था। कपड़े टँगे हुए थे बास पर। वह भी क़रीने से, और वह सब्ज़ी काट रही थी। ज़मीन ऐसी साफ़ थी, जैसे अभी पोंछा लगाया हो. . . 

सीता भी वैसे स्वभाव में बहुत सीधी थी। वह अपनी साड़ी ठीक करने लगी तभी वह महिला उससे बात करने लगी, “आप कहाँ से आई हैं?” 

सीता ने जवाब दिया, “पेपर देने आई थी।”

“अच्छा . . .” महिला बोली, “कहाँ से आई हैं आप?” 

सीता ने बताया ललितपुर के पास से। महिला के चेहरे के हाव-भाव देखकर और उसकी ख़ुशी देखकर सीता अचंभित हो गई। 

सीता ने पूछा, “यहाँ तुम्हारी ड्यूटी लगती है क्या?

वह बोली, “हाँ मेमसाहब मैं यहाँ की साफ़ सफ़ाई रखती हूँ और मेरे पति भी मेरे साथ रहते हैं। वह मज़दूरी करते हैं। मेरे दो बच्चे हैं वह स्कूल गए हैं मुझे यह कमरा रहने को दे दिया है। हम इसी में रहते हैं अभी बच्चे स्कूल से आते ही होंगे। आप काय से आई हैं?”

सीता ने जवाब दिया, “पति के साथ कार से।” 

वह बाहर उठकर कार देखने गई। एक बार तो सीता अचंभित ही रह गई इस महिला का सुकून तो देखो! चेहरा लाल बिंदी में चमक रहा था। उस के चेहरे पर जो मुस्कुराहट थी शायद वह लाखों अरबों रुपए ख़र्च करके भी नहीं पाई जा सकती थी। सीता ने उसकी ओर रुपए बढ़ाये पर उसने लेने से इनकार कर दिया, “आप तो हमारे गाँव के पास की है। हम भी ललितपुर के हैं। काम के सिलसिले में हम लोग यहाँ चले आए और जो साहब हैं, उन्होंने मेरी साफ़ सफ़ाई देखते हुए हमें यह कमरा रहने को दे दिया।”

उस आठ बाय आठ के कमरे को देखकर सीता बिंदेश्वरी पाठक को नमन करने लगी धन्य है . . . जिन्होंने एक पूरे परिवार को रहने गुज़रने का आश्रय दे दिया। सीता को याद है जब बिंदेश्वरी पाठक ने सुलभ कांप्लेक्स की शुरूआत की थी तो उन्हें अपने ही समाज का विरोध झेलना पड़ा था। पर उस दृढ़प्रतिज्ञ व्यक्ति ने महिलाओं के हित के लिए कितना सोचा और आज एक परिवार को भी नौकरी दे रहे थे। सीता बाहर आने लगी तो न करने पर भी उस महिला के हाथ में रुपये रख दिए, “बच्चों को दे देना कह देना कि उनकी चाची आई थी . . .” 

सीता उसकी सादगी पर मोहित हो गई थी। कोई हार नहीं था गले में, कोई महँगी साड़ी नहीं पहनी थी। बहुत ख़ूबसूरत भी नहीं थी। पर, ऐसा क्या था उसमें, वह थी  और उसकी सादगी . . . ईमानदारी से पैसे कमाने का सुकून . . . उसके चेहरे पर झलक रहा था। जहाँ दो मिनट हम रुक नहीं सकते वहाँ वह पूरा जीवन-गुज़र कर रही थी। अपने बच्चों को पढ़ा रही थी। आते समय सीता ख़ुद अपने आप को छोटा महसूस कर रही थी। कार में बैठने के बाद बहुत दूर तक वह इसी ख़्याल में खोई रही। इस महिला से उसे बहुत कुछ सीखने को मिल गया था। जीवन में हमारे पास सब कुछ होता है। पर सुकून नहीं होता जिस सुलभ कांप्लेक्स में 2 मिनट जाकर हम जल्दी से आ जाते हैं। तंबाकू की पीक से रँगी हुई दिवालें होती हैं इस महिला ने उसे स्वर्ग बना रखा था। उसमें वह अपना जीवनयापन कर रही थी और उसका सुकून तो लाखों पैसे देकर भी नहीं ख़रीदा जा सकता था। वास्तव में ऐसे लोग अच्छे-अच्छे अमीरों को पाठ पढ़ा देते हैं। जीवन भर सब कुछ होने के बावजूद आदमी की माँगे कभी ख़त्म नहीं होतीं और वह महिला . . . उसी के बारे में सोचते-सोचते जाने कब उसके पति ने उसे झकझोरा, “अरे खाना नहीं खाना है? होटल आ गया है। रात को घर पहुँचने में देर हो जाएगी।” 

वह इतनी दूर उसी के ख़्यालों में डूबी हुई चली आई थी। सीता अपने मन की भूख वह शांत कर आई थी; पेट की भूख मिटाने के लिए उसे उतरना पड़ रहा था। आज भी सीता का जब भी भोपाल जाने का मन होता है तो सीता के ज़ेहन में महिला की तस्वीर आ जाती है। उससे वह दोबारा मिलना चाहती है। जिसने उसके मन को भी सुकून दे दिया था। 
 

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