गर्म जेबों की व्यवस्था!
डॉ. प्रीति सुरेंद्र सिंह परमार
हमारे देश में व्यवस्था ऐसी बनी है कि अधिकारी और नेताओं का अजब-ग़ज़ब खेल चलता है। एक नेता आते हैं, बड़ी अदा से कहते हैं, “अरे साहब, यह मेरा आदमी है, काम कर दीजिए।” अधिकारी मुस्कुराते हुए गुटका चबाते हैं और सिर हिलाते हैं, मानो कह रहे हों, “आप तो कहिए, काम आपके कहने से ही होगा।” लेकिन अभी साहब की पान की पीक दीवार पर पहुँची भी नहीं होती कि दूसरे नेता आ धमकते हैं, “सुनिए, यह काम नहीं होना चाहिए, ये नियमों के ख़िलाफ़ है।”
अधिकारी साहब के चेहरे पर उलझन की रेखाएँ दिखती हैं, लेकिन जेब गर्म है, तो धैर्य बनाए रखना भी एक कला है। इन दोनों नेताओं के बीच से तीसरे प्रकार के नेता आते हैं, जो हर जगह अपनी जड़ें जमाए बैठे हैं। उनके लिए यह काम हो या न हो, कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। वे तो सिर्फ़ कुर्सी पर बैठे अपनी मूँछों को ताव देकर तमाशा देखने का मज़ा लेते हैं।
अब आते हैं चौथे प्रकार के नेता—ये अपने आप में एक अद्भुत प्राणी हैं। कहते हैं, “साहब, आप काम कर दीजिए, पैसे की चिंता मत कीजिए। सब इंतज़ाम कर देंगे।” अधिकारी साहब मुस्कुराते हैं, मानो कह रहे हों, “सचमुच, आप जैसे लोग ही देश को चला रहे हैं।”
पर असली मज़ा तो अधिकारी साहब का है। जनता आश्वासन की साड़ी पहनकर थक चुकी है, पर अधिकारी साहब की जेब हमेशा गर्म रहती है। गर्म जेब का कमाल यह है कि सर्दी कितनी भी पड़ जाए, साहब के ख़र्चे कभी रुकते नहीं। जेब गर्म है, तो साहब की गाड़ी भी गर्म है, घर का हीटर भी गर्म है और दिल भी गर्म है।
भ्रष्टाचार का आलम यह है कि नीचे के तीन स्तर तो रोटी पकाने की तरह पैसे सेंकते ही हैं। ऊपर तक पहुँचाने के लिए अधिकारी साहब का अपना अलग तंत्र है। और ऊपर पहुँचाना मतलब ईश्वर तक नहीं, बल्कि साहब तक पहुँचाना है।
यह व्यवस्था ऐसी है कि नेता परेशान, जनता बेचारी, लेकिन अधिकारी मस्त। उनकी मुस्कान ऐसी होती है, जैसे कह रहे हों, “आप लड़ते रहिए, हम जेब गर्म करते रहेंगे।”
जय हो इस व्यवस्था की, जहाँ अधिकारियों की जेब हमेशा गर्म रहती है और जनता के आँसू हमेशा ठंडे।
कार्यकर्ता का “दल-दल” संघर्ष
हमारे लोकतंत्र में कार्यकर्ता वो प्राणी है, जो हमेशा बीच चौराहे पर खड़ा रहता है। न इधर का, न उधर का। उसके मन में हमेशा यही दुविधा रहती है, “पहले नेता जी के साथ जाऊँ, जो कह रहे हैं कि काम करवा देंगे, या उस बड़े नेता जी के साथ, जो कह रहे हैं कि काम होना ही नहीं चाहिए? या फिर तीसरे नेता जी के साथ, जो सिर्फ़ मूँछें ताव देकर चाय सुड़कने में व्यस्त हैं?” बेचारा कार्यकर्ता ठगा-सा सोचता है कि आख़िर क्या करें!
कुछ देर उधेड़बुन के बाद उसे लगता है, “क्यों न मैं भी नेता बन जाऊँ? आख़िर नेतागिरी में ही तो असली मलाई है!” लेकिन नेतागिरी का सपना देखना आसान है, रास्ता आसान नहीं। तब तक उसे पार्टी बदलने का खेल करना पड़ता है।
दल बदलने का हुनर तो कार्यकर्ता में बचपन से होता है। वो सुबह एक पार्टी का झंडा उठाता है, शाम को दूसरी पार्टी की टोपी पहन लेता है। और अगर दोनों से काम न बने, तो अगली सुबह तीसरी पार्टी के साथ पोस्टर चिपकाता हुआ नज़र आता है। जब उससे पूछा जाए कि आख़िर तुम हो किसके? तो बड़े गर्व से कहता है, “जहाँ क़िस्मत साथ दे, वहीं हमारा भविष्य है!”
मगर क़िस्मत का यह पिटारा हर किसी के लिए नहीं खुलता। कार्यकर्ता दिन-रात नेताओं की चापलूसी करता है, चुनावी भीड़ जुटाता है, पोस्टर-पर्चे चिपकाता है, लेकिन अंत में उसके हिस्से आती है सिर्फ़ नेताओं की डाँट और अधिकारियों की उपेक्षा। बेचारा कार्यकर्ता पिसता है, जैसे चक्की में गेहूँ।
इधर अधिकारी साहब अपनी गर्म जेब के साथ मुस्कुराते हुए तमाशा देख रहे होते हैं। उन्हें इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि कार्यकर्ता किस पार्टी में है। उनके लिए तो हर पार्टी का कार्यकर्ता एक ही है—“सुविधा शुल्क का साधक।”
जब कार्यकर्ता दिन-रात नेताओं के पीछे दौड़-दौड़कर थक जाता है, तो सोचता है, “मजदूर से ही अच्छा था। कम से कम मेहनत का मेहनताना तो मिलता था। यहाँ तो बस वादे मिलते हैं और अपमान का बही-खाता।”
लेकिन फिर एक नई उम्मीद जगती है। शायद कल क़िस्मत पलटे और वो ख़ुद नेता बन जाए! इस उम्मीद में बेचारा कार्यकर्ता कभी एक पार्टी के पीछे भागता है, तो कभी दूसरी के पीछे। अंततः दल-बदलू की पदवी पाकर अपनी राजनीति का अंत भी दल-दल में डूबकर करता है।
और इस पूरे खेल में असली मज़ा किसे आता है? अधिकारी साहब को। उनकी गर्म जेबें, गरम सीटें और गरम चाय हमेशा तैयार रहती हैं। वो हँसते हैं और कहते हैं, “भागते रहो बेटा, हमारा तो बस जेब गर्म रहनी चाहिए।”
जय हो इस व्यवस्था की, जहाँ कार्यकर्ता दौड़ते रहते हैं, जनता रोती रहती है, और अधिकारी बस जेब गर्म करके मुस्कुराते रहते हैं।