विदेश का भूत

डॉ. प्रीति सुरेंद्र सिंह परमार (अंक: 272, मार्च प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

आजकल हमारे समाज में एक अजीब-सा बुख़ार फैला हुआ है: “विदेश जाने का बुख़ार“! यह ऐसा बुख़ार है जो न डॉक्टर की दवा से उतरता है, न दादी के काढ़े से। एक बार किसी के सिर चढ़ गया, तो फिर उसे अपने देश की मिट्टी से सिर्फ़ धूल और विदेश की ज़मीन से सोना ही नज़र आता है। 

विदेश जाने की चाहत में आदमी ऐसे दलालों के चंगुल में फँस जाता है, मानो भारत में कारोबार करने का पाप हो। कोई कहेगा, “कनाडा में घास भी डॉलर की छपाई से उगती है”, तो कोई कहेगा, “ऑस्ट्रेलिया में सुबह-सुबह सूरज भी डॉलर की किरणें बिखेरता है।” और बेचारा आम आदमी, जिसे ‘विदेश’ शब्द सुनते ही आँखों में चमक और दिल में गुलाब जामुन जैसा मीठा सपना आ जाता है, दलालों के जाल में फँस जाता है। 

दलाल भी क्या ग़ज़ब के कलाकार होते हैं! ऐसा सपना बेचते हैं मानो विदेश में क़दम रखते ही एयरपोर्ट पर नोटों की माला पहनाई जाएगी। कहते हैं, “बस ज़मीन बेच दो, मकान गिरवी रख दो, वीज़ा तो पक्का समझो!” और हम भी आँख मूँदकर अपनी पुश्तैनी ज़मीन और घर बेचकर तैयार हो जाते हैं, मानो ये सम्पत्ति नहीं, किसी पुराने जमाने का कबाड़ हो। 

फिर जब ये लोग विदेश पहुँचते हैं, तो हक़ीक़त का झटका ऐसा लगता है जैसे गर्मी के मौसम में बिजली चली जाए। वहाँ न कोई “अरे भैया, कैसे हो?” पूछता है, न कोई पड़ोसी मुफ़्त में चाय पिलाता है। दिनभर खटते हैं, रात को थक कर गिरते हैं, और तब याद आता है कि भारत की वही गली, वही चौपाल, और वही चाय की टपरी कितनी अनमोल थी। 

लेकिन तब तक देर हो चुकी होती है। भारत लौटने के लिए पासपोर्ट में सिर्फ़ मुहरें होती हैं, वो अपनापन नहीं, वो ज़मीन नहीं, और वो छाँव नहीं। इस तरह विदेश का भूत, दलालों की चाल और हमारी अपनी ग़लतफ़हमी मिलकर हमें अपनी ही ज़मीन से बेगाना बना देती है। 

काश! लोग समझ पाते कि सोने की चिड़िया की तलाश में विदेश उड़ जाने से बेहतर है अपनी मिट्टी में मेहनत करके उसे फिर से सोने की चिड़िया बनाना! 

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