रीलों की दुनिया में रीता

01-03-2025

रीलों की दुनिया में रीता

डॉ. प्रीति सुरेंद्र सिंह परमार (अंक: 272, मार्च प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

कभी सोचा है, हमारे देश की संस्कृति इतनी कोमल और पवित्र थी कि फूल की पंखुड़ियों की तरह सँभालकर रखी जाती थी। ऋषि-मुनियों की भूमि, जहाँ गुरुकुल में विद्या अर्जित होती थी, वहाँ अब “कंटेंट क्रिएशन” के गुर सिखाए जा रहे हैं। और ये गुर इतने ऊँचे हो गए हैं कि संस्कारों की ज़मीन ही दिखनी बंद हो गई है। 

रीलों की इस चकाचौंध भरी दुनिया में अब हर गली-मोहल्ले की रीता भी “इन्फ्लुएंसर” बन गई है। पहले माँ अपने शिशु को घूँघट के पीछे, शर्म की चादर में ढककर दूध पिलाती थी, और आज वही दृश्य इंस्टाग्राम पर “मदरहुड जर्नी” के नाम पर सरेआम परोसा जाता है। क्या ज़माना आ गया है— माँ का वात्सल्य भी अब व्यूज़ पर टिका है! 

जहाँ कभी आँगन में तुलसी का पौधा पूजा जाता था, अब वहाँ रिंग लाइट लगी होती है। ”नमस्ते” कहकर बड़े-बुजुर्गों का आशीर्वाद लेने वाली पीढ़ी अब “हाय गाइज़! वेलकम बैक टू माई चैनल” कहकर अपनी परंपरा निभा रही है। कपड़े इतने आधुनिक हो गए हैं कि कपड़ों का अस्तित्व ही सवालों के घेरे में आ गया है। लगता है जैसे फ़ैशन डिज़ाइनर्स ने ठान लिया है कि जितना कम कपड़ा, उतना ज़्यादा फॉलोअर्स! 

सरकार को चाहिए कि एक “संस्कार मंत्रालय” बनाए, जो इन रीलों की सेंसरशिप करे। और हाँ, एक संस्कार टेस्ट भी अनिवार्य कर दिया जाए— “पैरेंट्स से आख़िरी बार कब आशीर्वाद लिया था?” और अगर जवाब “नहीं याद” निकले, तो इंस्टाग्राम अकाउंट तत्काल सस्पेंड! 

समस्या ये नहीं है कि लोग रील बना रहे हैं, समस्या ये है कि लोग संस्कृति भूल रहे हैं। व्यूज़ के लालच में मर्यादा का दिवाला निकल चुका है। ऐसा लगता है जैसे संस्कार और सभ्यता किसी पुराने ज़माने के ऐप्लिकेशन की तरह “अनइंस्टॉल” हो गए हैं। 

भविष्य में इसकी ज़िम्मेदारी कौन लेगा? शायद वो ही लोग जो रील में “थ्रोबैक” डालकर रोएँगे—“ओल्ड इज़ गोल्ड” कहकर उसी संस्कृति को याद करेंगे, जिसे अपने हाथों से स्मार्टफोन में गाड़ दिया होगा। 

संस्कृति कोई ट्रेंड नहीं है, जिसे हर महीने बदल दिया जाए। ये वो विरासत है, जिसे सँभालना ही असली “कंटेंट क्रिएशन” है। वरना एक दिन हम सब “रील लाइफ़” जीते-जीते “रियल लाइफ़” भूल जाएँगे। और तब सिर्फ़ एक ही चीज़ बचेगी— “लास्ट सीन ऐट संस्कार!”

आज के दौर में सच बोलना ऐसे हो गया है जैसे सूई के छेद से ऊँट निकालना— मुश्किल भी और जोखिम भरा भी! लेकिन अगर मैं भी चुप रहूँगी, तो इस गुनाह में बराबर की हिस्सेदार बन जाऊँगी। आख़िर कोई तो होना चाहिए जो ये बताने का साहस करे कि संस्कृति कोई इंस्टाग्राम का फ़िल्टर नहीं है, जिसे ट्रेंड के हिसाब से बदल दिया जाए। 

सोचिए, कभी जिस देश में तुलसी चौरा पर दीप जलते थे, अब वहाँ रिंग लाइट जल रही है। जहाँ रसोई से उठती मसालों की ख़ुश्बू थी, अब वहाँ से “ब्लॉगिंग” की आवाज़ आ रही है—“हेलो फ्रेंड्स, आज हम बनाएँगे ट्रेंडिंग चैलेंज!” घरों के आँगन अब डांस स्टुडियो बन गए हैं, जहाँ ‘संस्कार’ शब्द से ज़्यादा ‘वायरल’ शब्द का महत्त्व है। 

लेकिन सबसे ख़तरनाक चीज़ ये नहीं है कि लोग ये सब कर रहे हैं— ख़तरनाक ये है कि बाक़ी लोग चुप हैं। ऐसे चुप, जैसे कुछ हुआ ही नहीं। मानो ये सब सामान्य हो गया हो, जैसे संस्कृति की अर्थी उठ रही हो और हम उसमें कंधा देने की जगह मोबाइल उठाकर “लाइव” जा रहे हों! 

कभी-कभी लगता है कि हमारी चुप्पी ही सबसे बड़ा अपराध है। क्योंकि जो ग़लत हो रहा है, उसे देखकर भी न बोलना, सबसे बड़ा गुनाह है। ये वही चुप्पी है, जिसने सभ्यता की नींव को हिला दिया है। जब माँ अपने बच्चे को दूध पिलाने का पवित्र क्षण रील के व्यूज़ से नापे, जब बेटियाँ शर्म और मर्यादा को “ओल्ड फ़ैशन” कहकर उतार फेंके, तब समझ लीजिए कि संस्कृति ख़तरे में नहीं, आईसीयू में है! 

और मज़े की बात ये है कि हर कोई देख रहा है, सुन रहा है, लेकिन कानों में इयरपॉड्स ठूँसकर बहाना बना रहा है—“हमें क्या?” इस “हमें क्या?” की बीमारी ने समाज का रक्तचाप बढ़ा दिया है। जब आँखों के सामने सब बर्बाद हो रहा हो और हम कहें “ये मेरी ज़िम्मेदारी नहीं है,” तब समझ लीजिए कि हम अपराधी बन गए हैं— बिना अपराध किए ही। 

मुझे ये चुप्पी मंज़ूर नहीं। अगर संस्कृति को बचाने के लिए आवाज़ उठाना गुनाह है, तो मैं ये गुनाह हर रोज़ करूँगी। मैं चाहती हूँ कि मेरी आवाज़ हर उस कान तक पहुँचे, जो बंद होने का नाटक कर रहे हैं। मैं चाहती हूँ कि मेरी लेखनी उस दीवार पर लिखी इबारत बने, जिसे पढ़कर लोग समझें कि संस्कृति कोई “कंटेंट” नहीं है, जिसे एडिट करके “वायरल” किया जाए। 

तो आइए, चुप्पी का गुनाह छोड़िए, बोलिए, चीखिए, आवाज़ उठाइए— क्योंकि जब संस्कार ही नहीं बचेंगे, तो फिर ये सोशल मीडिया के व्यूज़ किसे दिखाएँगे? एक दिन ऐसा न हो कि हमारे बच्चों को किताबों में पढ़ना पड़े— “कभी भारत नाम का एक देश था, जहाँ संस्कृति नाम की चीज़ होती थी! . . .”

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