अंतिम भ्रम का अवशेष बचूँगा

01-09-2021

अंतिम भ्रम का अवशेष बचूँगा

संजय कवि ’श्री श्री’ (अंक: 188, सितम्बर प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

अंतहीन
अवसाद तुम्हारे,
स्वर
नीरव
नीरव नीरव;
खोकर
अरुणाई
तरुणाई;
वंचित
कुंठित
होकर कुरूप;
निर्बल
दुर्बल
अज्ञानी से;
नाम मात्र ही शेष बचे हो,
मानो भ्रम के अवशेष बचे हो।
 
युवा हूँ मैं
कुछ
अहं लिए,
अजर
शक्ति का
वहम लिए;
ज्ञान चक्षु
जो खुल जाते,
तो पाप
हमारे
धुल जाते;
कुछ
छल होने से
बच जाता,
कुछ
पुण्य कर्म भी
रच जाता;
बस
इतना
कल्पित
होता मुझको,
कि
जो तुम हो,
कल मैं होऊँगा;
प्राप्त किया
सब कुछ खोऊँगा;
नाम मात्र ही शेष बचूँगा,
अंतिम भ्रम का अवशेष बचूँगा।

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