कवि निराला की हिन्दी ग़ज़लें
डॉ. ज़ियाउर रहमान जाफरी
निराला हिंदी में छायावाद के कवि माने जाते हैं। छायावाद का समय मोटे तौर पर 1918 से 1936 के बीच का है। छायावाद के चारों कवियों में छंद पर सबसे ज़्यादा अधिकार निराला का था। शायद यही कारण है कि वह राम की शक्ति पूजा और तुलसीदास जैसी रचनाएँ लिख सके। उन्हें मुक्त छंद के प्रवर्तक के रूप में भी जान जाता है। अपने छंद प्रयोग के कारण ही निराला ने अपनी कीर्ति बेला में ग़ज़लें भी लिखीं। यह ग़ज़ल भी उस वक़्त लिखी गई जब हिंदी में ग़ज़ल लिखने की कोई वास्तविक परंपरा नहीं थी। निराला से पहले कबीर, जायसी और भारतेंदु आदि की ग़ज़लें मिलती हैं लेकिन भारतेंदु की ग़ज़लें उर्दू लबो-लहजे की थीं जिसका विषय भी वही परंपरागत प्रेम था। निराला ने ग़ज़ल के कथ्य को बदला और उसे प्रेम के संसार और दरबार से घर-बार की तरफ़ लेकर आए। बाद में इसी रूप और तेवर को अख़्तियार कर दुष्यंत ने हिंदी ग़ज़लें लिखीं और ग़ज़ल सम्राट के रूप में जाने और पहचाने गए। यह भी सच है कि हिंदी ग़ज़ल को स्थापित करने में दुष्यंत की बड़ी भूमिका है। वह न होते तो हिंदी ग़ज़ल आज जिस रूप में स्थापित हो गई है वह उस रूप में स्थापित नहीं हो पाती।
निराला की कविताओं की तरह उनका बचपन भी विविधताओं से घिरा रहा है। उत्सव का प्रतीक वसंत में उनका जन्म भले हुआ पर ज़िन्दगी पतझर की तरह अभावों में गुज़र गई। जन्म के कुछ समय के बाद माँ का देहावसान हो गया। कुछ समय के बाद पिता भी जल्दी गुज़र गये। महामारी के प्रकोप से परिवार के कई सदस्य चल बसे। यहाँ तक कि पत्नी मनोहरा देवी भी उसका शिकार हो गईं। महिषादल में मालिक से विवाद होने पर उनकी जो छोटी-मोटी नौकरी थी वह भी ख़त्म हो गई। साहित्य में जब दिलचस्पी बढ़ी तो उन्होंने 1916 में ‘जूही की कली’ नाम की पहली कविता लिखी, जिसे उस समय की महत्त्वपूर्ण पत्रिका सरस्वती ने वापस कर दिया। यह अलग बात है कि निराला की पहचान आगे चलकर यही कविता बनी, जिसे हिंदी की पहली मुक्त छंद कविता के रूप में भी स्वीकारा गया है। अर्थ के दृष्टिकोण से इसमें रीतिकालीन कविता का भले प्रभाव हो, पर इसका प्रस्तुतीकरण बिल्कुल अपना है। समन्वय और मतवाला लिखते हुए एक कवि के रूप में उनकी पहचान बनती चली गई। छह फुट से अधिक लंबे चौड़े, कुश्ती के जानकार निराला के स्वास्थ्य की दशा की बनती-बिगड़ती रही। जिस कारण उन्हें कोलकाता को छोड़कर इलाहाबाद में शरण लेनी पड़ी, जहाँ उन्हें आर्थिक विपन्नता के दिन गुज़ारने पड़े। इस दौरान उन्होंने सुधा पत्रिका में संपादकीय विभाग में नौकरी कर ली, पर उससे इतना कम पैसा मिलता था कि जीवन जीना मुश्किल था। अपनी इकलौती पुत्री का ठीक से इलाज तक न कराने का दुख उनकी कविता ‘सरोज स्मृति’में देखा जा सकता है। जिसे हिंदी का पहला ‘शोक काव्य’ के रूप में भी स्वीकारा जाता है।
निराला छंद और मुक्त छंद दोनों के कवि हैं। ग़ज़ल लिखते हुए जहाँ उन्होंने फ़ारसी के प्रचलित बहर का पालन किया है, वहीं कविता को छंद से मुक्ति दिलाने का भी प्रयास करते रहे। उन्होंने परिमल की भूमिका में लिखा है—मनुष्यों की मुक्ति की तरह कविता की भी मुक्ति होती है। मनुष्य की मुक्ति कर्म के बंधन से छुटकारा पाना है और कविता की मुक्ति छंद के शासन से अलग हो जाना है।
अन्यत्र मेरे गीत नामक एक निबंध में भी उन्होंने इस बात को दोहराते हुए लिखा है, “भावों की मुक्ति छंदों की भी मुक्ति चाहती है।” निराला की मुक्त छंद की कविताओं को देखते हुए यह भी कहा जा सकता है कि उनकी कविताओं में तुक का तो आग्रह है पर मात्राओं का बंधन नहीं है।
निराला की कविताओं में कई रंग मिलते हैं; जब वह राम की शक्ति पूजा या तुलसीदास लिखते हैं तो उनके कवित्व का पौरुष और ओज झलकता है। पर यही कवि जब कुकुरमुत्ता जैसी कविता लिखते हैं तो उनका लहजा बदल जाता है। यद्यपि इस कविता में भी कवि पूँजीपतियों को शोषक के तौर पर रेखांकित करता है।
निराला की कविताएँ हों, कहानियाँ हों या ग़ज़लें वह परंपरागत रूढ़ियों का विरोध करते हैं और सर्वहारा वर्ग के साथ हो जाते हैं।
निराला से पहले भारतेंदु, भगवानदीन, प्रताप नारायण मिश्र, श्रीधर पाठक, जयशंकर प्रसाद आदि की ग़ज़लें हमें मिलती हैं, पर इन सब ने विद्या के तौर पर हिंदी ग़ज़ल को स्थापित करने की कोई कोशिश नहीं की, बल्कि शौक़ या प्रयोग के तौर पर कुछ ग़ज़लें लिखीं। ज्ञान प्रकाश विवेक की मानें तो निराला ने इन सब शायरों के बीच ग़ज़ल का एक माहौल बनाया। बेला की भूमिका में निराला लिखते हैं—नई बात यह है कि अलग-अलग बहरों की ग़ज़लें भी हैं। जिसमें फ़ारसी के छंद शास्त्र का निर्वाह किया गया है। छायावादी कवियों में प्रसाद ने भी ग़ज़ल शैली की रचना की है लेकिन उन्होंने अपनी किसी कृति को ग़ज़ल का नाम नहीं दिया। निराला बेला की रचना को ग़ज़ल घोषित करते हैं उन्होंने अपनी ग़ज़लों में बकौल डॉ. रामविलास शर्मा उर्दू की बोलचाल का रंग अपनाया है। निराला की एक दो ग़ज़लों के कुछ शेर इस सम्बन्ध में देखे जा सकते हैं:
“किनारा वह हमसे किया जा रहे हैं
दिखाने को दर्शन दिए जा रहे हैं
जुड़े थे सुहागिन के मोती के दाने
वही सूत तोड़े लिए जा रहे हैं
छिपी चोट की बात पूछे तो बोले
निराशा के डोरे सिए जा रहे हैं
ज़माने की रफ़्तार में कैसा तूफां
मरे जा रहे हैं जिए जा रहे हैं
खुला भेद विजयी कहाये हुए जो
लहू दूसरे का पिए जा रहे हैं”
निराला की एक ऐसी ही प्रसिद्ध ग़ज़ल है जिसमें पूँजी पतियों की ख़ैरियत तलब की गई है:
“भेद खुल जाए वह सूरत हमारे दिल में है
देश को मिल जाए जो पूँजी तुम्हारे मिल में है
हल होंगे हृदय के खुलकर गाने सभी नये
हाथ में आ जाएगा वो राज जो महफ़िल में है
ताक पर है नमक मिर्च लोग बिगड़े या बने
सीखा क्या होगी पराई जब सिलाई सिल में है”
पूरी उर्दू ग़ज़ल की रवायत को दरकिनार करते हुए हिंदी की यह पहली ग़ज़ल है, जिसमें बुर्जुआ वर्ग को चुनौती दी गई है। आगे चलकर विरोध का यही लहजा हिंदी ग़ज़ल का तेवर बन जाता है। निराला की ग़ज़लों में एक ऐसा निरालापन है जो ऐसे काफ़ियों को चुनते हैं जिस पर ग़ज़ल की ज़मीन मुश्किल से खड़ी होती है। शोले, गोले, तोले, चोले, झोले जैसे रदीफ़ों से ग़ज़ल लिखना सिर्फ़ निराला की ही बस की बात थी। जिनके पास शब्दों की विशाल संपदा रही है। देखें ग़ज़ल के शेर:
“आँखों के आँसू ना शोले बन गए तो क्या हुआ
काम के अवसर न गोले बन गए तो क्या हुआ
पेच खाते रह गये ग़ैरों के हाथों आज तक
पेच में डाले ना चोले बन गए तो क्या हुआ”
निराला को हिंदी साहित्य का चमकता हुआ नक्षत्र नाम से भी जाना जाता है। अन्याय और शोषण के ख़िलाफ़ लिखने वाले छायावाद के वह पहले कवि हैं। ‘भिक्षुक’, ‘तोड़ती पत्थर’ और ‘कुकुरमुत्ता’ जैसी कविताएँ शोषक वर्ग की कलई खोल कर रख देती हैं। किसान, श्रमिक वर्ग, निम्न वर्ग, मज़दूर मेहनतकश समेत तमाम साधनहीन लोगों के वे सर्वप्रिय प्रगतिशील कवि हैं। उनकी कविताओं में इतनी विविधता है कि कई बार यह निष्कर्ष निकलना मुश्किल हो जाता है कि उन्हें किस प्रकार का कवि कहकर पुकारा जाए। हर क्षेत्र में उनकी महानता दिखती है। उन्होंने अपनी कृतियों में इतिहास, धर्म, अध्यात्म प्रकृति, पुराण, सबका गहरा निचोड़ प्रस्तुत किया है। उनमें सिर्फ़ छायावाद नहीं वेदांतवाद, राष्ट्रवाद और रहस्यवाद भी है।
वह जब ग़ज़लें लिखते हैं तो समकालीन रिवायत के तहत इसके मिज़ाजी को अपनाते हैं, लेकिन जल्दी ही उनका ध्यान समाज और देश के हालात पर चला जाता है।
ग़ज़ल की यह विशेषता भी है कि उनका हर शेर अर्थ के दृष्टिकोण से अलग-अलग होता है। उदाहरण के लिए निराला की यह ग़ज़ल देखें जो प्रेम में आँखों के इशारे से शुरू होती है लेकिन उसमें प्रकृति, सुगंध, विद्रोह, सियासत सब की परतें खुलने लगते हैं:
“बदली जो उनकी आँखें इरादा बदल गया
गुल जैसे चमचमाया के बुलबुल मसल गया
यह टहनी से हवा की छेड़छाड़ थी मगर
खिलकर सुगंध से किसी का दिल बहल गया
ख़ामोश फ़तह पाने को रोका नहीं रुका
मुश्किल मुक़ाम ज़िन्दगी का जब सहल गया
मैंने कला की पाटी ली है शेर के लिए
दुनिया के गोलंदाज़ों को देखा दहल गया”
निराला की बहुत सारी ऐसी कविताएँ भी हैं जो ग़ज़ल की ज़मीन पर लिखी गई हैं जैसे यह पंक्तियाँ:
“बाहर में कर दिया गया हूँ
भीतर पर भर दिया गया हूँ”
निराला ने ग़ज़लें प्रयोग के तौर पर लिखी थीं। उन्होंने ग़ज़लें लिखकर एक प्रकार से ग़ज़ल को हिंदी कविता में लाने का प्रयास किया। निराला के पूर्व के ग़ज़लकारों और निराला की ग़ज़लों में एक अंतर साफ़ है कि पंडित निराला की ग़ज़लों में हिंदी का जातीय संस्कार झलकता है कुछ शेर देखें:
“बातें चली सारी रात तुम्हारी
आँखें नहीं खुली प्रात तुम्हारी”
X X X
“तितलियाँ नाचती उड़ाती रंगों से मुग्ध कर करके
प्रसूनों पर लदकर बैठती है मन लुभाया है”
X X X
“तुम्हें देखा तुम्हारे स्नेह के नयन देखे
देखी सलीला नलिनी के सलिल श्यन देखे”
निराला ग़ज़ल का अध्ययन करने वाले सरदार मुजावर मानते हैं कि उन्होंने अपनी ग़ज़लों की रचना विभिन्न छंदों में की है, जैसे उनकी यह प्रसिद्ध ग़ज़ल बहरे हजज सालिम में है:
“चढ़ी है आँख जहाँ की उतार लाएंगी
बढ़े हुए को गिरकर सँवार लाएंगी”
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि निराला की हिंदी ग़ज़लें इसलिए भी महत्त्वपूर्ण हैं कि उनसे पूर्व ग़ज़लों की कोई विकसित परंपरा नहीं थी। बावजूद उसके उन्होंने हिंदी में ग़ज़ल लिखने की समृद्ध परंपरा का निर्वाह किया। इन ग़ज़लों में हिंदी के शब्द लाए गए और इस धारणा को समाप्त किया गया की हिंदी भाषा में अच्छी ग़ज़लें नहीं लिखी जा सकतीं।
आज हिंदी ग़ज़ल हिंदी कविता की मुख्य-धारा में शामिल हो गई है। इससे छंद की वापसी तो हुई ही है, इसने पाठकों को एक बार फिर कविता से जोड़ने का कार्य किया है। आज हिंदी ग़ज़ल के कई नाम ऐसे हैं जिन्होंने अपनी साधना से इसे एक विधा के तौर पर स्थापित कर दिया है। हरे राम समीप, अनिरुद्ध सिंहा, डॉ. भावना, विज्ञान व्रत विनय मिश्र, ज्ञान प्रकाश विवेक, कमलेश भट्ट कमल आदि समकालीन हिंदी ग़ज़ल के प्रतिनिधि ग़ज़लकार हैं। युवा ग़ज़लकारों में भी केपी अनमोल, रामनाथ बेख़बर, ए एफ़ नज़र, दिलीप दर्श, अविनाश भारती, विकास, राहुल शिवाय, अभिषेक कुमार सिंह आदि की ग़ज़लें हमें मुतमइन करती हैं।
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