दुष्यंत के पहले के ग़ज़लकार: राधेश्याम कथावाचक 

15-10-2024

दुष्यंत के पहले के ग़ज़लकार: राधेश्याम कथावाचक 

डॉ. ज़ियाउर रहमान जाफरी (अंक: 263, अक्टूबर द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

समीक्षित पुस्तक: पंडित राधेश्याम कथावाचक की ग़ज़लें 
संपादक: हरिशंकर शर्मा 
प्रकाशक: बोधि प्रकाशन जयपुर 6 
संस्करण वर्ष: 2024
मूल्य: ₹200.00
 पृष्ठ: 150 

जब भी हिंदी ग़ज़ल की बात चलती है, तो हमारा ध्यान अकस्मात्‌ दुष्यंत की तरफ़ जाता है। यह अलग बात है कि हिंदी ग़ज़ल की परंपरा पर बात करते हुए हम अमीर खुसरो, कबीर, भारतेंदु और शमशेर को भी हिंदी ग़ज़ल में जोड़ लेते हैं, पर इन सब के बीच एक और शायर आता है, जिनका नाम पंडित राधेश्याम कथावाचक (1890-1963) है। हिंदी ग़ज़ल जो दुष्यंत से पहचानी गई। यह देखकर आश्चर्य होता है कि कथावाचक की ग़ज़लें उनसे पहले की है। वह भी एक-दो की संख्या में नहीं बल्कि सौ की संख्या में है। यह अलग बात है कि हिंदी ग़ज़ल पर बात करते हुए उनका नाम कम ही लिया जाता है। या फिर यों कहें कि उनकी ग़ज़लों से अभी तक हमारा परिचय कम है। ग़ज़ल जो हरम में और बादशाहों के यहाँ पली-बढ़ी। राधेश्याम कथा वाचक उस ग़ज़ल का इस्तेमाल अपने विभिन्न प्रवचनों में करते हैं, इसलिए उनकी ग़ज़लों में भक्ति, कीर्तन, प्रार्थना, देश प्रेम आदि के तत्त्व अधिक दिखाई देते हैं; कुछ शेर आप भी देखें:

देखो तो कैसी लीला नटवर दिखा रहा है 
यमुना के तट पर बैठा बंसी बजा रहा है 
♦    ♦    ♦
 श्याम ने छवि जो दिखाई मेरा जी जानता है
 जैसी झाँकी नज़र आई मेरा जी जानता है
♦    ♦    ♦
 मुझको भाया है चपल छैल वो नंद का छौना 
 एक ही बार में राधे किया मुझ पर टोना 
♦    ♦    ♦
 वो और हैं जो तुम में संसार देखते हैं
 संसार में तुम्हीं का हम सार देखते हैं
♦    ♦    ♦
 झूठ जो चीज़ है फिर उससे मोहब्बत कैसी 
 ख़ाक हो जाए जो दम भर में वह सूरत कैसी 
♦    ♦    ♦
 हमें हज़रत तुम्हारी दिल्लगी अच्छी नहीं लगती 
 कहीं परदा कहीं बेपर्दगी अच्छी नहीं लगती 

राधेश्याम कथा वाचक के बहुत सारे जनकल्याणी कार्य भी हैं। उन्होंने मुसाफ़िरों के लिए कुएँ, यात्री पड़ाव और मंदिरों का भी निर्माण कराया था। कहते हैं कि उनका लिखा हुआ रामायण तुलसी और गुप्त के रामायण के बाद सबसे अधिक चर्चा में रहा। उनकी कथा सुनने के लिए दूर-दूर से लोग आते थे, और अपने राम काव्य में भी वह ग़ज़लों का ख़ूब इस्तेमाल करते थे, जिससे वतावरण शायराना बन जाता था। राधेश्याम कथा वाचक का समय देश की ग़ुलामी का भी है, इसलिए अँग्रेज़ों की नज़र भी उनकी ग़ज़लों पर थी। कई बार वह उसके कोपभाजन भी बने, पर लिखना जारी रखा। ग़ज़ल के साथ उन्होंने गीत और क़व्वाली वाली शैली की भी रचना की। भाषा की दृष्टि से भी उनकी ग़ज़लें हिंदी-उर्दू के बीच सेतु का काम करती हैं। उन्होंने अपनी ग़ज़लों को बेहद संजीदगी और सलीक़े से प्रस्तुत किया है। भक्ति और सूफ़ीपरक ग़ज़लों के लिए भी उनकी शायरी बेहद महत्त्वपूर्ण है। मुझे उम्मीद है कि हरिशंकर शर्मा के इस महत्त्वपूर्ण किताब के श्रमसाध्य संपादन के बाद हिंदी के ग़ज़ल आलोचकों का ध्यान राधेश्याम कथावाचक की तरफ़ अवश्य जाएगा, जिन्होंने दुष्यंत से काफ़ी पहले ही ग़ज़ल को हिंदी में स्थापित कर दिया था। 

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