हिन्दी ग़ज़ल में दुष्यंत की स्थिति
डॉ. ज़ियाउर रहमान जाफरी
हिंदी और उर्दू ग़ज़लों का अंतर हम दो प्रकार से कर सकते हैं। एक शिल्प के स्तर पर और दूसरा कथ्य स्तर पर।
शिल्प के स्तर पर हिंदी और उर्दू ग़ज़ल में कोई अंतर नहीं है। बस दोनों की भाषिक संरचना थोड़ी बहुत अलग है। ग़ज़ल चाहे जिस भाषा में लिखी जा रही हो उसका जो बुनियादी ढाँचा है उसमें परिवर्तन सम्भव नहीं है। मतलब अगर वह ग़ज़ल है तो उसमें क़ाफ़िया, रदीफ़, मतला, मक़्ता बहर इन सब चीज़ों का होना लाज़िम है। इसके अभाव में वह चाहे जो भी हो कम से कम ग़ज़ल नहीं होती। हिंदी में क़ाफ़िया, रदीफ़, बहर के अलग-अलग नाम रख लिए गए हैं, पर वह हैं मूलतः वही चीज़। उर्दू के बहर को हिंदी में गण कह देने से या छंदों के जगन, मगन नाम रख देने से वास्तविक स्थिति बदल नहीं जाती। कुछ लोगों ने हिंदी में ग़ज़ल को तेवरी कहा, पर वो रही ग़ज़ल ही। नाम बदल देने से किसी भी विधा के संस्कार नहीं बदल जाते।
उर्दू और हिंदी ग़ज़ल का जो मूल अंतर है वह उसके कथ्य को लेकर है। उसकी भी अपनी वजह है। उर्दू ग़ज़ल फ़ारसी से आई और हिंदी ग़ज़ल उर्दू से आई। फ़ारसी ग़ज़लों में शुद्ध रूप से इश्क़-मुश्क के चर्चे रहे। इसलिए उर्दू शायरी भी काफ़ी वक़्त इसी के इर्द-गिर्द घूमती रही। लेकिन यह ग़ज़ल जब ग़ालिब इक़बाल, फैज़, फ़िराक़, साहिर आदि तक पहुँची तो उसमें सूफ़ियानापन, धर्म और दर्शन तथा प्रगतिशीलता के लक्षण भी दिखलाई देने लगते हैं। हिंदी ग़ज़ल इसी रास्ते से होकर आई, इसलिए उसने जो तेवर अख़्तियार किए उसमें देश और समाज के प्रति असंतोष भी था और विद्रोह भी। दुष्यंत ने कहा:
“वो कर रहे हैं इश्क़ पे संजीदा गुफ़्तुगू
मैं क्या बताऊँ मेरा कहीं और ध्यान है”
ज़ाहिर है दुष्यंत का ध्यान देश के बदलते हुए हालात पर था। आज़ादी से जो उम्मीदें थीं, उससे उन्हें निराशा लगी थी। हिंदी ग़ज़ल में जहाँ तक दुष्यंत का प्रश्न है, दुष्यंत के पहले भी हिंदी ग़ज़ल की समृद्ध परंपरा रही है। अगर आप हजरत अमीर खुसरो और कबीर आदि को छोड़ भी दें तो भारतेन्दु, निराला, प्रसाद मैथिलीशरण गुप्त से लेकर त्रिलोचन, शमशेर, रामनरेश त्रिपाठी, रंग आदि कई नाम हैं जो हिंदी में ग़ज़लें पाबंदी से लिख रहे थे। निराला के बेला में ख़ासतौर से ग़ज़लें पाई जाती हैं। यह अलग बात है कि हिन्दी ग़ज़ल को पहचान दुष्यंत कुमार से मिली। अगर दुष्यंत नहीं होते तो आज जहाँ हिंदी ग़ज़ल है वो यहाँ नहीं होती। दुष्यंत की ग़ज़लों में 1960 से 1975 तक के भारत के उठा-पटक का इतिहास है। दुष्यंत देश की व्यवस्था से असंतुष्ट दिखते हैं और नई कविता को छोड़कर ग़ज़लों की तरफ़ मुख़ातिब होते हैं, ताकि अपनी बातों को आम लोगों तक पहुँचाई जा सके। दुष्यंत कहते हैं:
“कहाँ तो तय था चिराग़ां हर इक घर के लिए
कहाँ चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए
यहाँ दरख़्तों के साए में धूप लगती है
चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए”
“तू किसी रेल सी गुज़रती है
मैं किसी पुल सा थरथराता हूँ”
“एक चिंगारी कहीं से ढूँढ़ लाओ दोस्तो
इस दिये में तेल की भीगी हुई बाती तो है”
“मैं जिसे ओढ़ता बिछाता हूँ
वो ग़ज़ल आपको सुनाता हूँ
एक जंगल है तेरी आँखों में
मैं जहाँ राह भूल जाता हूँ
तू किसी रेल सी गुज़रती है
मैं किसी पुल सा थरथराता हूँ
हर तरफ़ एतराज़ होता है
मैं अगर रोशनी में आता हूँ”
“यह ज़ुबाँ हमसे सी नहीं जाती
ज़िन्दगी है कि जी नहीं जाती
मुझको ईसा बना दिया तुमने
अब शिकायत भी की नहीं जाती”
“वह आदमी मिला था मुझे उसकी बात से
ऐसा लगा कि वो भी बहुत बेज़ुबान है”
“इस नदी की धार से ठंडी हवा आती तो है
नाव जर्जर ही सही लहरों से टकराती तो है
एक चिंगारी कहीं से ढूँढ़ लाओ दोस्तों
इस दीए में तेल से भीगी हुई बाती तो है”
“यह सारा जिस्म झुक कर बोझ से दोहरा गया होगा
मैं सजदे में नहीं था आपको धोखा हुआ होगा
यहाँ तक आते-आते सूख जाती हैं कई नदियाँ
मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा”
“सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना मेरा मक़सद नहीं
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए”
“कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं
गाते गाते लोग चिल्लाने लगे हैं
अब तो इस तालाब का पानी बदल दो
ये कमल के फूल कुम्हालाने लगे हैं।”
दुष्यंत कुमार की ग़ज़लें भारत की आज़ादी से मोहभंग की स्थिति से उत्पन्न होती हैं। ऐसा नहीं है कि यह मोहभंग की स्थिति सिर्फ़ ग़ज़लों में है। नई कहानी नई कविता, साठोत्तरी कविता इसी मोहभंग की स्थिति से पैदा हुई थी। दुष्यंत की ग़ज़लों में विद्रोह है, और भूख, बेकारी बेबसी, अन्याय, अनास्था, नाराज़गी बेचैनी आदि का चित्रण भी। दुष्यंत ने अपनी किताब “जलते हुए वन का वसंत” की भूमिका में लिखा भी है कि मेरे पास कविताओं के मुखौटे नहीं हैं। दुष्यंत ग़ज़ल में भी किसी मुखौटे का इस्तेमाल नहीं करते। जहाँ तक समस्या की बातें हैं। तो दुष्यंत की शायरी की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह सिर्फ़ समस्या खड़ी नहीं करते उसका समाधान भी प्रस्तुत करते हैं। दुष्यंत का एक शेर है कि:
“यहाँ तक आते-आते सूख जाती हैं कई नदियाँ
मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा”
तो बताते हैं कि योजनाएँ हमारे पास जब नहीं पहुँचती तो कहाँ ठहर जाती है। उन्होंने ख़ुद कहा है:
“सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना मेरा मक़सद नहीं
मेरी कोशिश हैकि ये सूरत बदलनी चाहिए”
“इस नदी की धार से ठंडी हवा आती तो है
नाव जर्जर ही सही लहरों से टकराती तो है”
एक चिंगारी कहीं से ढूँढ़ लाओ दोस्तों
इस शहर में तेल से भीगी हुई बाती तो है”
यहाँ चिंगारी प्रेरणा का सूचक है। दुष्यंत कहते हैं बस एक लौ जलाने की ज़रूरत है।
सिर्फ़ हिंदी ग़ज़ल ही नहीं भारतीय भाषाओं या विदेशी भाषाओं में भी जो ग़ज़लें लिखी जा रही हैं वह सभी ग़ज़ल के शिल्प और बुनियादी तत्वों का पालन करती है। कोई भी ग़ज़ल ग़ज़ल की संरचना से बाहर होकर नहीं लिखी जा सकती।
दुष्यंत की ग़ज़लों को प्रायः इमरजेंसी से जोड़कर देखा जाता है। हम जानते हैं कि 1975 से 1977 तक लगभग 21 महीने भारत में इमरजेंसी लागू रहे। इस दौरान लोगों के तमाम अधिकार छिन लिए गए। सरकार के पास तमाम शक्तियाँ आ गई। देश के बड़े नेताओं को गिरफ़्तार कर लिया गया। चुनाव स्थगित हो गए, और इमरजेंसी के बाद जब चुनाव हुए तो कांग्रेस 150 सीटों पर सिमट गई यहाँ तक कि इंदिरा गाँधी चुनाव हार गई। देखने की बात यह है कि साए में धूप का प्रकाशन भी 1975में हुआ, आपातकाल भी इसी वर्ष लगा। और दुष्यंत की मृत्यु भी इसी वर्ष हो गई। दुष्यंत ने लगभग 44 वर्ष की उम्र पाई और 52 ग़ज़लों की रचना की। ज़ाहिर है यह सारी ग़ज़लें आपातकाल की नहीं हो सकती, पर दुष्यंत के शेर ने आपातकाल के समय एक ऊर्जा का काम किया। जब दुष्यंत ने लिखा:
“एक बूढ़ा आदमी है मुल्क में या यूँ कहो
इस अँधेरी कोठरी में जैसे रोशनदान है”
तो आपातकाल के दौरान जयप्रकाश नारायण की हिमायत करते हुए दिखते हैं। जिसके लिए उस समय के राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने उन्हें तलब भी किया था।
दुष्यंत के वक़्त में सारिका पत्रिका का अपना स्थान था। जैसे सरस्वती या हंस पत्रिका का था। 1970 से 1985 तक यह पत्रिका प्रकाशित होती रही, पर यह कहानी केंद्रित पत्रिका थी, जिसमें दुष्यंत की ग़ज़लें भी आ जाती थीं। दुष्यंत को लोगों ने इस पत्रिका के माध्यम से भी जाना। आपका प्रश्न जो दुष्यंत की मित्र मंडली को लेकर है। दुष्यंत की मित्र मंडली में मोहन राकेश, कमलेश्वर और मार्कण्डेय की चर्चा होती है। उनकी मित्र मंडली में कोई ग़ज़लकार नहीं थे। अगर दुष्यंत इन मित्रों के सहारे आगे बढ़ते तो आज सम्भवतः उनका ज़िक्र नहीं होता। दुष्यंत अपनी प्रतिभा और ग़ज़ल शैली से पूरी दुनिया में जाने और पहचाने गए। और हिन्दी ग़ज़ल के पर्याय बन कर सामने आए।
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