हिंदी ग़ज़लों में अंग्रेज़ी के तत्त्व

15-04-2024

हिंदी ग़ज़लों में अंग्रेज़ी के तत्त्व

डॉ. जियाउर रहमान जाफरी (अंक: 251, अप्रैल द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

 

हिंदी भारत ही नहीं विश्व की एक महत्त्वपूर्ण संवाद की भाषा है। एक भाषा के साथ यह हमारी अस्मिता और सांस्कृतिक मूल्यों की निशानी भी है। इसके पास एक समृद्ध व्याकरण, भाषा और काव्यशास्त्र तथा अन्य भाषाओं के शब्दों को पचाने की अद्भुत क्षमता है। हिंदी में जो बोली जाती है, वही लिखी जाती है। इसमें साइलेंट शब्द नहीं होते। यह भाषा अपनी प्रमुख बोलियों अवधि, कन्नौजी, बुंदेली, बघेली भोजपुरी, राजस्थानी, छत्तीसगढ़ी मालवी, नागपुरी मगही, मैथिली और कई देशज तथा विदेशज शब्दों से मिलकर बनी है। इसलिए हिंदी ग़ज़ल का स्वभाव हिंदी भाषा के स्वभाव से मिलता-जुलता है। हिंदी ग़ज़ल महबूब की भाषा है, और एक महबूब की भाषा वही होती है जिसमें किसी भाषा की बंदिश नहीं होती। जो मिठास के साथ ज़बान से निकल जाए गुफ़्तुगू बन जाती है। 

भाषा के स्तर पर भी ग़ज़ल ने कई दौर देखे हैं। ग़ज़ल जब अरबी में थी, फिर फ़ारसी और उर्दू में आई तो उस समय तक यह बोलचाल की भाषा की ग़ज़ल नहीं थी। उसके अपने कारण भी थे। यह बादशाह के हरम में पली-बढ़ी, इसलिए वहाँ भाषाई ललित्य से ज़्यादा भाषाई ज्ञान और कौशल पर ध्यान दिया गया। 

उर्दू में ग़ालिब ने सबसे पहले ग़ज़ल को आम फ़हम शब्दों में लाने की कोशिश की। उनकी ग़ज़ल पहली बार सल्तनत से निकलकर आम लोगों तक पहुँची, और शायद यही कारण है कि उर्दू ग़ज़ल में ग़ालिब का मुक़ाम आज भी काफ़ी ज़्यादा है। उन्होंने फ़ारसी की चली आ रही ग़ज़ल को हिंदुस्तानी ज़बान में लाने की कोशिश की, और उन्हें नज़्म-उद-दौला जैसा ख़िताब भी मिला। कहने को ग़ालिब से पहले मीर की शायरी में भी ग़ज़ल को सहज बनाने का यत्न देखा जा सकता है, लेकिन ग़ालिब की शायरी उनसे ज़्यादा आम लोगों से जुड़ती है। उनका एक बड़ा मशहूर शेर भी है:

“हैं और भी दुनिया में सुखनवर बहुत अच्छे
कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाज़े-बयाँ और”

असल में किसी कविता की भाषा उसके कथन और अंतर्वस्तु से बनती है। अज्ञेय कविता के गुण और भाषा के गुण को एक करके देखते थे। कविता की कुछ विधायें व्यंजनात्मक होती हैं तो कुछ में सपाट बयानी पाई जाती है। कभी-कभी कवि का मूड भी भाषा को प्रभावित करता है। एक समय में होने के बावजूद मुक्तिबोध, रघुवीर सहाय, धर्मवीर भारती और कुँवर नारायण की कविता के भावबोध में अंतर पाया जाता है। 

हिंदी ग़ज़ल जहाँ आरंभ से ही भाषा को सरल और सहज करने की कोशिश में लगी हुई है, वहीं आधुनिक हिंदी कवि मानते हैं कि एक ही शब्द, मुहावरे प्रतीक और बिंब कविता में बार-बार प्रयोग होने से अपना अर्थ गाम्भीर्य खो देते हैं। सच तो यह है कि बौद्धिक विमर्श वाली कविता किसी ख़ास व्यक्ति तक सीमित हो कर रह जाती है। हिंदी कविता का इतिहास बताता है कि आम जनता के बीच जिस तरह दोहे और ग़ज़ल अपनी सहजता और सम्प्रेषणीयता के कारण लोकप्रिय हुए, वह स्थान अलग-अलग भाषा विधान और अमूर्तता के कारण काव्य की अन्य भाषा नहीं ले सकी। 

हिंदी ग़ज़ल में जितने हिंदी के शब्द हैं, उतने ही अन्य भाषाओं के भी, या फिर यूँ कहें कि हिंदी ग़ज़ल में जितना भाषा का सवाल है उससे ज़्यादा अभिव्यंजना का सवाल है, पर ऐसा भी नहीं कि हिंदी के तमाम ग़ज़लकार और समीक्षक इसके पैरोकार रहे हों। हिंदी ग़ज़ल का एक वर्ग ऐसा भी है जो हिंदी ग़ज़लों में शुद्ध हिंदी और संस्कृतनिष्ठ शब्दों में लिखने का हिमायती है। कुछ ग़ज़ल प्रधान पत्रिका के संपादक भी ऐसे हैं जिन्होंने हिंदी-संस्कृत शब्दों से युक्त शुद्ध ग़ज़ल भेजने का बोर्ड टाँग रखा है। असल में ग़ज़ल लेखन एक स्वतः प्रक्रिया है। उसकी ज़बान ख़ुद चलकर शायरी के पास आती है, जिसे किसी संश्लिष्ट भाषा में क़ैद नहीं किया जा सकता। एक कवि या शायर अपनी रचना में जिस विचार को रखता है, वह विचार भाषा के रूप में हमारे सामने आती है। हिंदी ग़ज़ल में कहन, सुख-दुख और तकलीफ़ में भी आम आदमी की है, तो भाषा में भी उन्हीं के अनुभव, चिंतन-मनन और संवेदनाओं से जुड़ी हुई है। संसद से सड़क तक के धूमिल जब कहते हैं:

“अधजले शब्दों के ढेर में तुम क्या तलाश रहे हो”

तो वह एक प्रकार से आमजन की भाषा में लौटने का आग्रह करते हैं। 

हिंदी ग़ज़ल में उर्दू-हिंदी और लोक भाषा के शब्द ही नहीं हैं, बल्कि ऐसे अंग्रेज़ी शब्द भी हैं जो हमारी जवान में घुल-मिल गए हैं। ऐसे शेरों में जब अंग्रेज़ी के वर्ड आते हैं तो उससे शेर की ख़ूबसूरती में और ज़्यादा इज़ाफ़ा हो जाता है। साथ ही अशआर में पुख़्तगी भी आती है, और लालित्य भी पैदा होता है। कुछ शेर देखें:

“साल चढ़े ही छुट्टी लेकर बैठ गया
 सूरज की अब्सेंट लगाई जाएगी” 
        —(अशोक अग्रवाल नूर)

“मेरे आने की तारीख़ें बराबर देखती होगी
 वो हर शब सोने से पहले कैलेंडर देखी होगी”
                —ए.एफ़ नज़र

“एक कश लेकर महज़ सिगरेट तुमने फेंक दी
और मैं बेचैन होकर देर तक जलता रहा”
                —विनय मिश्र

“बहुत मिस्टेक होती जा रही है
 मोहब्बत फेक होती जा रही है”
            —एम.ए. तुराज़

“हमारे कान कोई डस्टबिन हैं 
जो इनमें फेंक दो बेकार बातें”
            —के पी अनमोल

“वक़्त के इस शार्पनर में ज़िन्दगी छिलती रही
 मैं बनाता ही रहा इस पेंसिल को नोकदार” 
                —हरेराम समीप

अगर आप ग़ौर करें तो इस अशआर को देखकर पाएँगे कि यहाँ एब्सेंट, कैलेंडर, सिगरेट, मिस्टेक, डस्टबिन जैसे शब्दों से शेर मज़ीद ख़ूबसूरत और दिलकश बन गए हैं। उनकी जगह पर अगर दूसरे शब्द रखे जाते तो शायद यह इतने प्रभावपूर्ण नहीं बनते। 

हिंदी भाषा की यही विशेषता है कि यह सगी माँ किसी की भाषा से सौतेलापन नहीं रखती, कुछ और ऐसे शेर देखे जा सकते हैं:

“ख़ुशी से काँप रही थी यह उँगलियाँ इतनी
 डिलीट हो गया एक शख़्स सेव करते हुए”
            —फहीम बदायूंनी 

“मुझे डायवोर्स देकर तू भला क्यों
 मेरी सेहत बराबर पूछता है”
            —हरेराम समीप

“चित्रपट पर सत्यता को ओढ़ कर आयें सभी
 रेप के हर सीन का किरदार आला चाहिए”
                —नज़्म सुभाष

“कब न जाने लौट कर आ जाए तू ये सोचकर
 इस मकाने-दिल पर चस्पा आज तक टूलेट है”
                    —वही

“वायरस मोहब्बत का बढ़ रहा है तेज़ी से
 इसके वास्ते भी एक वैक्सीन ज़रूरी है”
            —फौज़िया अख़्तर
“बस इस सबब से कि उसमें तुम्हारा अक्स रहा
 मैं आईनों से कई डील करता रहता था”
            —शानुर रहमान साबरी

“वह जो सारे शहर का गाइड है 
 उसको अपना पता नहीं मालूम”
            —बशीर बद्र

यह हिंदी ग़ज़ल में प्रयुक्त अंग्रेज़ी के ऐसे शब्द हैं, जिसके माध्यम से सच्चाई की तीव्रता और गहराई को समझने में मदद मिली है। इसमें भाषा आरोपित नहीं बल्कि वास्तविक होकर हमारे सामने आई है। हिंदी ग़ज़ल में यह शब्द प्रयोग के तौर पर पहली बार प्रयुक्त हुए हैं, जिसे कविता के योग्य नहीं समझा गया था। नई कविता में जो कुछ अंग्रेज़ी के शब्द ‘रिपीट’ होते हैं वह वास्तव में यौन क्रिया से सम्बन्धित ऐसे शब्द हैं जिसे नग्नता छिपाने के लिए प्रयोग किया गया है, पर हिंदी ग़ज़ल में जहाँ प्रेम का वर्णन है, वहाँ भी ख़ालिस पाकीज़गी और श्लीलता का होना लाज़िम है। यह ऐसी महबूबा है जिसे बेहियाई और उरयानियत नापसंद है। 

ग़ज़ल में मौजूद यह अंग्रेज़ी भाषा के शब्द समकालीन जीवन की अवस्था की वास्तविकता को मज़बूती से रखते हैं। यह ऐसे शब्द हैं जो ग़ज़ल को स्पष्ट करते हैं ना कि दुरूह बनाते हैं कुछ और शेर मुलाहज़ा हों:

 “अम्न के मुद्दे पर हर भाषण में फ़ोकस भी किया
 किन्तु पैने युद्ध के हथियार भी करते रहे”
                —ज़हीर कुरैशी

“उसको तालीम मिली डैड-ममी के युग में
 उसकी माँ-बाप पुराने नहीं अच्छे लगते”
                —उर्मिलेश

“हम तो सूरज है ठंड मुल्कों के
 मूड आता है तब निकलते हैं”
                —विज्ञान व्रत

“कहाँ तुम प्यार के पीछे पड़े हो
 ये दुनिया फ़ास्ट होती जा रही है”
            —ज़ियाउर रहमान जाफ़री

“किताबें खोल कर बैठे हैं लेकिन
 रिवीजन बस तुम्हारा हो रहा है”
            —प्रतीक शुक्ला

“चाहो तो सारी रात रहो ऑनलाइन तुम
 अब राब्ता नहीं है तेरे लास्ट सीन का”
            —राहुल कुमार

“बाद मरने के मेरे तकिये के नीचे जो मिला
 सब सुसाइड नोट समझे थे मेरी ताज़ा ग़ज़ल”
            —अशोक मिज़ाज

ग़ज़ल अपने इसी भाषाई समन्वय और लालित्य के कारण लोकप्रिय होती गई। आज मुशायरों का मतलब ही ग़ज़ल समझा जाने लगा है। एक समय था जब फ़िल्मों को सफल बनाने में ग़ज़ल की अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। असल में ग़ज़ल जज़्बातों का बयान है, और अपने जज़्बात को प्रस्तुत करने के लिए भाषा स्वाभाविक तौर पर सहजता से सामने आती है। 

फ़िराक़ कहा करते थे कि कंठ से जो दर्द भरी आह निकलती है, वही ग़ज़ल है। भाषा के सम्बन्ध में यह बात बार-बार दोहराई गई है कि जो भाषा दूसरी भाषा के शब्दों को पचा पाती है, वही भाषा ज़िन्दा रहती है। अंग्रेज़ी में हर वर्ष सैंकड़ों नये शब्द जुड़ जाते हैं और शब्द सम्पदा को समृद्ध करते हैं। ग़ज़ल हमेशा ख़ालिस ग़ज़ल बनकर हमारे सामने आती है। ग़ज़ल की अपनी रचना प्रक्रिया और नख़रे हैं। हर साल को ग़ज़ल के शिल्प और नख़रे का ध्यान रखना होता है। यहाँ यह भी समझना ज़रूरी है कि ग़ज़ल सिर्फ़ बहर नहीं है उसमें कथ्य का होना भी उतना ही ज़रूरी है। 

चंद्रसेन विराट और चाँद मुंगेरी जैसे शायर हिंदी ग़ज़ल में हिंदी के जातीय शब्दों के हिमायती रहे हैं, पर दुष्यंत से लेकर आज के अधिकांश गज़लगो—अनिरुद्ध सिंहा, ज्ञान प्रकाश विवेक, डॉ. भावना, विज्ञान व्रत, कमलेश भट्ट कमल, नूर मोहम्मद नूर, वशिष्ठ अनूप आदि ग़ज़ल में उस भाषा के हिमायती रहे हैं जो जन सामान्य में रच बस गई है। यही कारण है कि हिंदी ग़ज़ल में उर्दू अरबी और फ़ारसी शब्दों के साथ अंग्रेज़ी के शब्द भी इसी सरलता और संपूर्णता से देखे जा सकते हैं। चंद और शेर देखें:

“टेबल पर हमने ख़त लिखकर छोड़ दिया
 भारी मन से फिर अपना घर छोड़ दिया”
                —अनिरुद्ध सिन्हा

“बहुत कंफ्यूज करती है हमेशा
 सड़क के बीच ये उलझन की आदत”
                —डॉ. भावना

“क्यों नहीं निज प्रांत में ही जॉब हो
 आप क्या-क्या कर रहे हैं क्या कहें”
            —हरि नारायण सिंह हरि

 “कितना मुश्किल है अपने खो देना
 हम इमेजिन भी कर नहीं सकते”

“आदर्शो को रहने दो
 सिस्टम भ्रष्टाचारी है”
        —एस सी शर्मा

“आओ गूगल पे चैट करते हैं
 कौन चिट्ठी का इंतज़ार करे”
        —राजेंद्र तिवारी

“कोका-कोला क्रेज़ बढ़ाये 
 दूध दही से तोबा तोबा”
        —अविनाश भारती

“सुबह की भीड़ में अक़्सर यह ट्रैफ़िक जाम होती है
 अगर हम देर से पहुँचे हमारी बेबसी होगी”
                    —विकास

“साँस लेने पर भी जीएसटी लगे
 वो मसौदा भी बनाया जा रहा”
            —डी एम मिश्र

ज़ाहिर है हिंदी ग़ज़ल में अंग्रेज़ी के यह शब्द न मात्र इसकी तासीर बढ़ा देते हैं, बल्कि हमें अभिभूत भी करते हैं। एक ही शेर में गूगल और चिट्ठी शब्द तथा प्रांत और जॉब जैसे शब्द यह बताने के लिए काफ़ी है कि हिंदी ग़ज़ल को ग़ज़ल से मतलब है वह भाषा की सीमा या वर्गीकरण के पीछे नहीं पड़ती। 

हिंदी की कुछ ऐसी भी ग़ज़लें हैं, जिसमें प्रयोग के तौर पर ग़ज़ल के हर शेर में अंग्रेज़ी शब्दों का बख़ूबी निर्वाह हुआ है। हिंदी के युवा ग़ज़लकार अभिषेक सिंह अपनी ग़ज़लों में बराबर प्रयोग कर रहे हैं। उनकी एक ग़ज़ल के तीन शेर देखें:

“तमाम उम्र भला कौन ऐसे धड़केगा
हमारे दिल में ख़ुदा का मशीन लगता है”

करूँ तो सॉल्व में कैसे पुराने मेथड से
हमारा इश्क़ का परचा नवीन लगता है

समय के कैमरे में क़ैद हो रहे हैं हम
ये ज़िन्दगी किसी मूवी का सीन लगता है”
                —अभिषेक सिंह

इसके बरअक्स ऐसी भी ग़ज़लें मिलती हैं, जिसमें कुछ अप्रचलित अंग्रेज़ी के शब्द भी दिख़ते हैं, पर उसे भी पढ़ते हुए आनंद मैं कोई ख़लल पैदा नहीं होता:

“अजब यही था कि दुनिया की रश में होता था
वह एक शख़्स जो मेरे क्रश में होता था

तुम्हारी कुरबतें एम्यूज़ मुझको करती थीं 
मैं उसके बाद मुसलसल ब्लश में होता था”
            —शानुर रहमान साबरी

पर जहाँ यह शब्द सहजता से आते हैं, वह शेर और अधिक प्रभावपूर्ण बन जाते हैं:

“किचन की खिड़कियों का रुख़ बदल दो
मेरे बच्चे बहुत रोते हैं साहब”
            —तनवीर साकित

“जो अक़्सर खोये-खोये अपने ही पैकर में रहते हैं
नई तहज़ीब के बच्चे हैं कंप्यूटर में रहते हैं”
                —ए.एफ़. नज़र

“ख़ुशी के साथ ग्लोबल आपदाएँ
भई ख़तरा तो हर व्यापार में है”

“आजकल जो उड़ रहे हैं रोज़ चार्टर प्लेन से
वे चुनावी रैलियों में फिर दलित हो जायेंगे”
                —राहुल शिवाय 

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि हिंदी ग़ज़ल जिस तरह से अपना सफ़र तय कर रही है, और आम लोगों की ज़बान पर मौजूद है इसका कारण यह है कि यहाँ इसकी बात उसी की ज़बान में है यह ज़बान किस भाषा की है प्रश्न यह नहीं है। प्रश्न यह है कि आम आदमी उस भाषा और अभिव्यक्ति से अपने आप को कितना जोड़ पाता है। हिंदी शेर में जहाँ भी अंग्रेज़ी, अरबी, फ़ारसी उर्दू के शब्द इस्तेमाल हुए हैं उसने ग़ज़ल के सौंदर्य और संपदा में वृद्धि की है इसलिए ऐसे प्रयोग को स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए। 

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