तज कर चुप्पी हल्ला बोल: ग़ज़ल में बोध और विरोध का स्वर

15-04-2024

तज कर चुप्पी हल्ला बोल: ग़ज़ल में बोध और विरोध का स्वर

डॉ. जियाउर रहमान जाफरी (अंक: 251, अप्रैल द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

समीक्षित पुस्तक: तज कर चुप्पी हल्ला बोल (ग़ज़ल संग्रह) 
लेखक: रवि खण्डेलवाल
प्रकाशक: श्वेतवर्णा प्रकाशन, नई दिल्ली-110041
मूल्य: ₹160। 00
पृष्ठ संख्या: 128
ISBN: 978-81-96190-74-3
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रवि खंडेलवाल ख़ालिस ग़ज़ल के शायर नहीं हैं, उन्होंने ग़ज़ल के साथ नवगीत, दोहे और मुक्तक के फ़न को भी पाबंदी से आज़माया है। उनकी समकालीन कविताओं का संग्रह उजास की एक किरण, मुक्तक-मौत का उत्सव और अभी-अभी प्रकाशित नवगीत की किताब 'कागज की देहरी पर' की की चर्चा काफ़ी पहले से हिन्दी पट्टी में हो रही है। 

तज कर चुप्पी हल्ला बोल उनकी ग़ज़लों का मक़बूल संकलन है, जिसमें अलग-अलग स्वभाव और तेवर की ग़ज़लें हैं, पर यह ग़ज़लें असल में परंपरागत ग़ज़लों से अलग-थलग हैं। इन ग़ज़लों की कथन भंगिमा, शैली विन्यास, विषय और विस्तार में भी काफ़ी अंतर दिखता है। आमतौर पर शायरी को ख़ामोशी पसंद है। इसमें लताफ़त और नज़ाकत के गुण पाए जाते हैं, इसलिए शोर-शराबे वाली हिंदी की प्रगतिशील कविता कभी ग़ज़ल को काव्य विधा के तौर पर स्वीकार नहीं करती। 

रवि खंडेलवाल की कृति ‘तज कर चुप्पी हल्ला बोल’ पहली बार ग़ज़ल में ख़ामोशी के ख़िलाफ़ अपनी आवाज़ बुलंद करती है, और ग़ज़ल की यह माशूक़ा अपनी आरोपित स्मित मुस्कान से मारपीट पर उतर आती है। असल में शायर यूँ ही हल्ला बोल की तरफ़ उतर नहीं जाता बल्कि वो नुक्कड़ नाटकों वाली यह गीतात्मक शैली इसलिए अपनाता है कि अब ख़ामोश मिज़ाजी से यह काम चलने वाला नहीं है। देखें कुछ शेर:

“तज कर चुप्पी हल्ला बोल
कस कर मुट्ठी हल्ला बोल
 
हर बैरी की दुश्मन की
कर दी छुट्टी हल्ला बोल
 
मेहनतकश के जीवन की
पी कर घुट्टी हल्ला बोल”

ऐसा नहीं है कि संग्रह के हर शेर ऐसे ही हैं। बल्कि सामाजिक भेदभाव, विद्रूपता, राजनीति और मीडिया का चरित्र भाई भतीजावाद, लालफीताशाही धार्मिक तांडव, और शबो-रोज़ बढ़ते छल-बल भी उनकी ग़ज़लों के वर्ण्य विषय बने हैं। नई कहानी में जो अस्मिता, अस्तित्व और संघर्ष की बात आती है, हिंदी ग़ज़ल में वही बात रवि खंडेलवाल से शुरू होती है कुछ शेर देखें:

“वो यक़ीनन मुल्क़ के गद्दार हैं जो
ग़ैर के परचम को लहराने लगे हैं”
 
“वो खा रहे हैं एकता की क़समें बारहा
हाथों में जिनके अपने-अपने इश्तिहार हैं”
 
“ख़ून को इतना उबालो
हाथ में पत्थर उठा लो” 

उनकी ग़ज़लों की जो एक और विशेषता है वह यह है कि यह हमारी संवेदनाओं से सीधे स्पर्श करती हैं। एक बड़ा शायर वही होता है जिसकी शायरी में उसकी बातें अपनी होती हैं पर दुख ज़माने का होता है। शायर यहाँ कई तकलीफ़ों से गुज़रता है। दुष्यंत इसके लिए दोहरी ज़िन्दगी शब्द का इस्तेमाल करते हैं। उसे तकलीफ़ है कि धर्म के नाम पर भेदभाव क्यों है? इंसानियत क्यों ख़त्म होती चली जा रही है? आदमी कैसे भीड़ तंत्र का हिस्सा बन रहा है। लोग अपने स्वार्थ के लिए क्यों किसी की परवाह नहीं कर रहे हैं शायर कहता है:

“कोई और नहीं आये हैं
अँधियारे के ही साये हैं”
 
“असलियत का आज गौना हो गया है
आपका व्यक्तित्व बौना हो गया है”
 
“देख कर क़त्ल भाईचारे का
दिल गली का दहल गया यारों” 

इस पुस्तक में प्रकृति भी है और प्रेम भी। प्रकृति हमेशा से प्रेम की सहचरी रही है। इसी प्रकृति के फल-फूल और पत्ते प्रेम के अवलंब बनते हैं। फिर ग़ज़ल से तो प्रेम का पैदाइशी रिश्ता रहा है। प्रायः यह बात लिख दी जाती है कि हिंदी ग़ज़ल में प्रेम नहीं है, वह उर्दू की रवायत में शामिल है। यह बात पूरी तरह दुरुस्त नहीं है। यह ठीक है कि हिंदी ग़ज़ल में इश्क़ और प्यार से अधिक घर-बार की बात है, पर इसका मतलब यह नहीं कि यहाँ प्रेम पूरी तरह से ख़ारिज है। हिंदी की पहली ग़ज़ल कबीर के ‘हमन है इश्क़ मस्ताना’ से शुरू होती है, फिर हिंदी ग़ज़ल को प्रेम से कैसे ख़ारिज किया जा सकता है। रवि खंडेलवाल की ग़ज़लों में भी प्रेम और प्रकृति दोनों मौजूद है कुछ शेर मुलाहज़ा हो:

“साथ जिसका मिला नहीं यारों
आज उसका ही रास्ता देखा”
 
“आग नफ़रत की कैसे बुझेगी रवि
प्रेम जल आपने तो पिया ही नहीं”

“ये जो पैरहन है तुम्हारा हमारा 
किसी ने दिया है किसी से मिला है”
 
“यहाँ पानी माँगो तो मिलता नहीं है
न माँगे लहू की नदी पा रहा हूँ” 

ग़ज़ल चाहे जिस भाषा में लिखी गई हो उसे पाबंदी पसंद है। शायरी को शब्दों की फ़ुज़ूल ख़र्ची कभी नहीं भाती। यहाँ इज़ाफ़त के शब्द शायरी के अवगुण माने गए हैं। शायरी कम से कम शब्दों में सारगर्भित बात कहने की कला है। शायर रवि के ख़्याल एक तरल पदार्थ के रूप में हमारी आत्मा तक पैवस्त कर जाते हैं, कुछ शेर आप भी देखें:

“डाक पहुँचेगी उस तरफ़ कैसे
जिस तरफ़ डाकिया नहीं जाता”
 
“ज़िन्दगी में ये माना उजाले न थे
थे अँधेरे मगर ऐसे काले न थे”
 
“चोट खा कर भी जान बाक़ी है
हौसला है उड़ान बाक़ी है” 

आमतौर पर ग़ज़ल लेखन में बहर की बात की जाती है। बहर ग़ज़ल का अंदरूनी आवरण है, सिर्फ़ इससे कोई ग़ज़ल मुकम्मल नहीं बन जाती। ग़ज़ल अच्छी होने के लिए ख़्याल की उम्दगी भी उतनी ही ज़रूरी है। हर ग़ज़ल में तरन्नुम, तकल्लुम, और मौसिकी का होना ज़रूरी है। ग़ज़ल में हम जिस बहर की बात करते हैं वो भी सिर्फ़ इसलिए है कि उसकी धुन बनी रहे। ग़ज़ल का क़ाफ़िया और रदीफ़ भी ग़ज़ल की मौसिकी में इज़ाफ़त करते हैं। रवि खंडेलवाल की ग़ज़लों से गुज़रते हुए भी यह साफ़ दिखता है कि सुख़नवर ग़ज़लों की ख़ूबसूरती के प्रति कितना सचेत है। कुछ शेर द्रष्टव्य हैं:

“डर के डर से बाहर निकलो
अब तो घर से बाहर निकलो”
 
“पेड़-पौधों का नहीं आधार होता
साँस लेना भी यहाँ दुश्वार होता”
 
“कल महल था आज खंडहर सा लगे
क्या हुआ हर खेत बंजर सा लगे” 

इन दिनों हिंदी ग़ज़ल की भाषा को लेकर पर्याप्त बहस चल रही है। हिंदी ग़ज़ल के नाम पर हिंदी-संस्कृत के कठिन और अबोध शब्दों को ग़ज़ल में पिरोया जा रहा है। इससे ग़ज़ल की न मात्र संप्रेषणीयता ख़त्म हो रही है बल्कि उसकी रवानी भी ख़त्म हो रही है। रवि खंडेलवाल अपनी ग़ज़लों में उन्हीं शब्दों का इस्तेमाल करते हैं, जो हमारी रोज़मर्रा की ज़रूरत का हिस्सा है। वह अपनी ग़ज़लों में किसी आरोपित शब्द को नहीं लेते। उनकी ग़ज़लें आवाम की ज़ुबान में कही गई हैं, इसलिए उनकी एक ही ग़ज़ल में टिमटिमाना जैसे देशज शब्द भी है, अंधविश्वासी जैसे हिंदी के शब्द भी और ज़ालिम जैसा उर्दू फ़ारसी का लफ़्ज़ भी है। उनके कई शेर में अंग्रेज़ी के प्रचलित शब्दों का भी ख़ूबसूरती से उपयोग हुआ है। ग़ज़ल अपनी इसी समरसता, संप्रेषण और भाषाई लालित्य के कारण आसानी से याद हो जाती है, और यही बात हिंदी कविता के परम्परावादी पैरोकार को गले नहीं उतरती। तमाम विरोध-अवरोध और आरोप के बावजूद भी हिंदी ग़ज़ल इसलिए आगे बढ़ रही है कि उनके पास रवि खंडेलवाल जैसे शायर हैं। आज अगर ग़ज़ल शोध का हिस्सा है, पाठ्यक्रम में शामिल है ग़ज़लकारों पर स्वतंत्र किताबें लिखी जा रही हैं। पत्रिकाओं के ग़ज़ल विशेषांक आ रहे हैं तो इसने यह अपने दम-ख़म पर सब हासिल किया है। क्योंकि ग़ज़ल के साथ आलोचकीय उदासीनता हमेशा से बनी रही है। यही कारण है कि हिंदी साहित्य के इतिहास लिखने वाले आलोचक हिंदी कविता परंपरा में ग़ज़ल का ज़िक्र भी करने से डरते हैं। हिन्दी ग़ज़ल के अधिकतर आलोचक वही हैं, जो ग़ज़ल के शायर भी हैं, इसलिए उनकी आलोचना उनके सम्पर्क के लोगों तक सिमट कर रह जाती है। इसी संकलन में रवि खंडेलवाल का एक शेर भी है:

“एक सूरज क्या ढल गया यारों
दिन का हुलिया बदल गया यारों”

ग़ज़ल इसी सूरज के समान हिंदी कविता में जगमगा रही है। 1975 में जब दुष्यंत की मृत्यु हुई तो सारिका पत्रिका ने अपने आवरण पर इसी सूरज को डूबते हुए दिखाया था। असल में दुष्यंत के बिना हिंदी ग़ज़ल पंगु है। अगर दुष्यंत नहीं होते तो हिंदी ग़ज़ल एक विधा की तरह कभी पहचानी नहीं जाती, यह बात निर्विवाद है। 

आज हिंदी ग़ज़ल में विज्ञान व्रत, बालस्वरूप राही, राजेश रेड्डी, कुँवर बेचैन अनिरुद्ध सिंहा, डॉ. भावना, मधुवेश, हरेराम समीप, चाँद मुंगेरी, नूर मुहम्मद नूर, राहुल शिवाय, अभिषेक कुमार सिंह अविनाश भारती, के. पी. अनमोल, सुभाष पाठक, ज़िया, ए. एफ़. नज़र, ओमप्रकाश यती, रामनाथ बेख़बर, रवि खंडेलवाल जैसे कई शायर हैं जिनकी मौजूदगी हिंदी ग़ज़ल को आश्वस्त करती है। 

ग़ज़ल कविता की तरह शेर को स्वतंत्र विचरण करने नहीं देती। यहाँ पाबंदियों का सामना करना पड़ता है। वज़न और बहर की पाबंदी, काफ़िया और रदीफ़ की पाबंदी, शब्दों के सजाने सँवारने की पाबंदी और सबसे बड़ी बात है कि एक मुकम्मल शेर की पाबंदी। इन सबसे ग़ज़ल एक मुश्किल फ़न बन जाता है। एक अरबी कहावत है कि जिसे सौ शेर याद हों वही एक शेर लिखकर देखें। 

कोई भी शेर तब मुकम्मल बनता है, जब वह फ़न और बारीक़ियाँ के साथ एक मुकम्मल ख़्याल पेश करता है। जब शेर पढ़ कर पाठक थोड़ी देर रुक जाता है, उस शेर में खो जाता है और शेर जब उसके दिलो-दिमाग़ पर सवार हो जाता है तो वह उसे भूल नहीं पाता, तो वाक़ई ऐसा ही शेर हमेशा के लिए ज़िन्दा जावेद बन जाता है। रवि खंडेलवाल के शेर भी ऐसे ही हैं:

“बेशक बनके सूरज निकलो अच्छा है
मेरे घर से होकर गुज़रो अच्छा है”

कहना ना होगा कि ‘तज कर चुप्पी हल्ला बोल’ की ग़ज़लों के साथ रवि खंडेलवाल ने जो परंपरा विकसित की है आने वाले समय में ये विरोध और बोध की ग़ज़लें उनकी शनाख़्त बन जाएँगी। 

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