ग़ज़ल लेखन में एक नए रास्ते की तलाश
डॉ. ज़ियाउर रहमान जाफरीओमप्रकाश यती की किताब: 'रास्ता मिल जाएगा'
समीक्षित पुस्तक: रास्ता मिल जायेगा (हिन्दी ग़ज़ल)
लेखक: ओमप्रकाश यती
पृष्ठ संख्या:103
मूल्य: 200/-
प्रकाशन वर्ष: 2022
प्रकाशकः श्वेतवर्णा प्रकाशन, नई दिल्ली
समकालीन हिंदी ग़ज़ल का नाम लेते ही जो कुछ चेहरे अकस्मात् हमारे ज़ेहन में आते हैं, उनमें एक नाम ओमप्रकाश यती का भी है। परंपरा से हटकर उन्होंने ग़ज़ल में कुछ नया कहने की कोशिश की है। अज्ञेय के शब्दों में कहें तो यह कोशिश लीक से हटकर कहने की है। आज जो ग़ज़लें लिखी जा रही हैं उसमें अधिकतर ग़ज़लें हल्की-फुल्की और जल्दबाज़ी में लिखी हुई है। उसमें तग़ज्जुल की कमी है और वह सपाट बयानी का शिकार होती जा रही है। ग़ज़ल में लेखक जितनी ऊर्जा वर्णों और मात्राओं को गिनने और उसे उठाने-गिराने में कर रहे हैं। उतना ध्यान ग़ज़ल की गज़लीयत पर नहीं दे पा रहे हैं। ग़ज़ल सिर्फ़ मतला मकता को फ़िट कर देने का नाम नहीं है बल्कि दो पंक्ति के एक शेर में पूरी कायनात को समेट लेने का नाम है। असल में ग़ज़ल में प्रभाव का आना लेखक के अनुभव और अभ्यास पर निर्भर करता है। लेकिन हिंदी के ग़ज़लकार जितनी ग़ज़लें लिख रहे हैं उतने दूसरे ग़ज़लकारों को पढ़ नहीं रहे। ऐसा नहीं है कि यह स्थिति सबके साथ है ऐसे भी ग़ज़लकार मौजूद हैं जिनका अध्ययन भी है और ग़ज़ल में कुछ नया प्रयोग करने का उत्साह और ऊर्जा भी है। ओमप्रकाश यती ऐसे ही जाने-माने ग़ज़लकार हैं। उनके पास ग़ज़ल की शैली है, लबो-लहजा है। ग़ज़ल का मुहावरा है। भाषागत सौंदर्य है और अपने प्राप्त किए हुए अनुभवों को प्रस्तुत करने का तौर-तरीक़ा और सुलझा हुआ सलीक़ा है। उनके अशआर में रोज़मर्रा की बातें हैं उनके प्रतीक और शब्द जाने-पहचाने हैं ऐसा इसलिए कि उन्हें पता है कि हिंदी की ग़ज़ल राजदरबारी नहीं है न वो किसी हरम की जीनत का हिस्सा ही है। बल्कि यह हमारी ज़रूरत है। हिंदी ग़ज़ल में हमेशा व्यवस्था की ख़ामियों को दिखाया गया है और इस विकृति पर मज़बूत प्रहार किया गया है। इस संग्रह के हर शेर में इसकी प्रतिध्वनि सुनी जा सकती है कुछ शेर देखें:
“आँकड़े देते हैं तस्वीर हमें दुनिया की
हर तरक़्क़ी सुनी उसकी ही ज़ुबानी हमने”
“शहर में तो हो रही कुछ तरक़्क़ी रोज़-रोज़
पर हमारा गाँव अब तक है वहीं ठहरा हुआ”
“हम दीप मोहब्बत के जलाना नहीं छोड़े
यह सच है कि नफ़रत की बहुत तेज़ हवा है” (पृष्ठ-20)
“उसे तो बात पर अपनी अरे रहने की आदत है
कभी अपनी किसी ग़लती को ग़लती कह नहीं सकता” (पृष्ठ22)
यती अपनी ग़ज़लों में पौराणिक प्रतीकों को भी आधुनिक संदर्भ में प्रस्तुत करते हैं। इस संग्रह में उनकी पहली ग़ज़ल वाक़ई सबसे ख़ूबसूरत ग़ज़ल है। उसी ग़ज़ल के एक-दो शेर मुलाहिज़ा हों:
“अगर वो इस तरह फ़िरका परस्ती को हवा देंगे
तो तय है एक दिन इंसानियत को ही मिटा देंगे
ग़ज़ल में रंग अपना हो कहन में कुछ नयापन हो
बहुत मुश्किल है कहना भाव हम बिल्कुल नया देंगे
ना आशा द्रोण को है एकलव्यों से अँगूठों की
अगर माँगे भी तो क्या शिष्य ऐसी दक्षिणा देंगे”
आमतौर पर यह ग़ज़ल के सब शेर इतने अच्छे नहीं होते लेकिन ओमप्रकाश यती जल्दबाज़ी में कुछ कह-लिख देने वाली शायर नहीं हैं। उन्हें पता है कि हर एक शेर काफ़ी मेहनत से किसी कैनवस पर उतरता है। अरब में एक मुहावरा है कि जिसे सौ शेर याद हो वही एक शेर लिख कर देखे। हमारे यहाँ बालस्वरूप राही एक दो शेर लिखने में ही ग़म के पर्वत टूटने की बात करते हैं।
खड़ी बोली हिंदी के एक वर्ष से अधिक के इतिहास में हिंदी की कई काव्यधारा विकसित हुईं लेकिन उसमें ग़ज़ल, दोहे के बाद सबसे ज़्यादा पाठकों के क़रीब रही। इसकी वजह ग़ज़ल का कहन, कथन, मनन और लगन है। ओमप्रकाश यती भी अपनी ग़ज़लों में कहने का नया सलीक़ा तलाश करते हैं। इस संग्रह में उनके कुछ शेर देखे जा सकते हैं:
“कितनी आफ़त के बाद समझोगे
क्या क़यामत के बाद समझोगे”
“सच्ची बात बता दो उनको
जिन से आँख चुराते हो तुम”
“उसके चेहरे को पढ़ के देखा तो
ख़ामुशी एक बयान लगती है”
यती की ग़ज़लें इस बात का भरोसा दिलाती हैं कि अगर आप ठान लें तो ज़िन्दगी में कुछ भी नामुमकिन नहीं है। जैसे कभी रसीद निसार ने कहा था:
“मैं कर्बला की लहू से गुज़र के आया हूँ
फिर माहो-साल से मिटते नहीं निशान मेरे”
ठीक है वैसे ही यती भी कहते हैं:
“घुप अँधेरे में भी कोई रोशनी मिल जाएगी
आप चाहेंगे अगर तो ज़िन्दगी मिल जाएगी”
लेकिन हालात ऐसे बदतर हैं कि यह हिम्मत बढ़ाने वाला शायर भी आज की व्यवस्था से चरमरा कर रह जाता है और कह उठता है:
“जब इतनी दूरी होगी तो बच पाएँगे रिश्ते भी नहीं
आशावादी हम हैं लेकिन हालात बहुत अच्छे भी नहीं”
और फिर इस दूरी की वजह भी वह अगले ही शेर में बता देते हैं:
“हम अपने सुख-दुख बाटेंगे ऐ दोस्त कहाँ यह मुमकिन है
जब एक ही शहर में रहते हैं और अरसे तक मिलते भी नहीं”
हिंदी के कई कवि ऐसे हैं जिनके कुछ शब्द प्रिय रहे हैं, नजीर बार-बार चाँद शब्द का इस्तेमाल करते हैं। परवीन शाकिर की शायरी में ख़ुश्बू लफ्ज़ बार-बार आता है, बशीर मोहब्बत शब्द को अपने सुखन में बार-बार रिपीट करते हैं, ठीक है ऐसे ही यती को भी मंज़िल, ख़्वाब, और रिश्ते शब्द बहुत प्यारे हैं। कुछ शेर आप भी देखें:
“जिसने हमारी राह में काँटे बिछा दिए
हमने उसके साथ भी रिश्ते बिछा दिए”
“चाह है मंज़िल पर जाने की अगर
एक दिन मिल जाएँगे रस्ता कोई”
हिंदी ग़ज़ल में यती का जो यह सकारात्मक नज़रिया है यह पूरी ग़ज़ल परंपरा में जिगर जालंधरी, रहमान राही और हफ़ीज़ मेरठी के अलावा कहीं दिखाई नहीं देता।
तुलनात्मक दृष्टिकोण से भी देखें तो उनके शेर हमें औरों की अपेक्षा अधिक प्रभावित करते हैं। जैसे प्रकृति हर शायरों की अपनी प्रेयसी रही है। यह उनके साथ पली और बढ़ी है। कुछ शेर देखे जा सकते हैं:
“मैं उसे ढूँढ़ता था आँखों में
फूल बनकर वो शाख़ पर निकला”
-बशीर बद्र
“रंग पेड़ों का क्या हुआ देखो
कोई पत्ता नहीं हरा देखो”
-मखमूर सईदी
“ये सूखी शाख़ कहाँ तक भला हिलाऊँ मैं
कहो तो फिर उसी दुनिया में लौट आऊँ मैं”
लेकिन जब यती प्रकृति की बात करते हैं तो वह कोई रीतिकालीन कवियों का बारहमासा नहीं लिखते और ना ही प्रयोगवादी कवियों की तरह उनका उपभोग करते हैं। बल्कि प्रकृति के साथ घुल-मिलकर उनसे सामंजस्य स्थापित कर लेते हैं कुछ शेर मुलाहज़ा हो:
“वहाँ शहर में रह न पाया मैं ज़्यादा
मुझे खेत खलिहान ही भा रहे हैं”
“देते रहे छाया सबको
धूप शजर तो ख़ुद सहते हैं”
“मिट्टी उसे इस योग्य बनाती है जतन से
ऐसे ही नहीं बीज से पौधा निकल आता”
यती की ग़ज़लें सबसे पहले और सबसे आख़िर में सामाजिक चेतना में आई गिरावट के विरुद्ध अपनी आवाज़ बुलंद करती हैं, उनकी ग़ज़लों में विद्रोह है लेकिन आक्रमकता या तल्ख़ी नहीं है। चेतावनी के स्वर हैं लेकिन तोड़फोड़ नहीं है। वह अपनी हर बात मिठास के साथ कहने के आदी हैं, और ग़ज़ल उसी मिठास को पसंद करती है जो किसी प्रेयसी के मुँह से निकली हुई है। ओमप्रकाश यती की सबसे बड़ी विशेषता है कि तमाम तरह के असंतोष, विडंबना, खाई नफ़रत और विद्वेष के बावजूद भी वह गाँव देश और समय को बचाए रखते हैं। तभी तो वह कहते हैं:
:पीछे किसी हुजूम के तुम मत बढ़ा करो मंज़िल तुम्हारी कौन सी है फ़ैसला करो लेकिन उस मंज़िल को पाने के लिए वह ग़लत रास्ता नहीं बनाते जो रास्ता अब्दुल बिस्मिल्लाह के लघु उपन्यास अपवित्र आख्यान की यासमीन बनाती है।”
शिल्प, संरचना, भाषाई ख़ूबसूरती, सौंदर्य, तथा कसावट की दृष्टि से भी उनकी ग़ज़लें मज़बूती से खड़ी मिलती हैं। उन्होंने अपने कई शेरों में ग़ज़ल के गिरते हुए स्तर का भी ज़िक्र और फ़िक्र किया है, और उसकी संरचना तथा विषय वस्तु का भी:
“मुझे तो ऐसा लगा उनमें ज़िन्दगी कम थी
तमाम नारे थे ग़ज़लों में शायरी कम थी”
इसलिए समकालीन हिन्दी ग़ज़ल में जब कभी शायरी के फ़न से गुज़रते हुए शायर की तलाश की जाएगी ओमप्रकाश यती वहीं उसके सिरहाने खड़े मिलेंगे। वह यक़ीनन हमारे दौर में ग़ज़ल में नया कहने और गढ़ने वाले प्रतिनिधि और अलाहिदा शायर हैं, जिनसे हिन्दी ग़ज़ल को काफ़ी उम्मीदें वाबस्ता हैं।
डॉ. जियाउर रहमान जाफरी
सहायक प्रोफ़ेसर
स्नातकोत्तर हिंदी विभाग
मिर्ज़ा ग़ालिब कॉलेज गया बिहार
9934847941
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