बिहार की महिला ग़ज़लकारों का ग़ज़ल लेखन

01-12-2024

बिहार की महिला ग़ज़लकारों का ग़ज़ल लेखन

डॉ. ज़ियाउर रहमान जाफरी (अंक: 266, दिसंबर प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

हिंदी कविता में ग़ज़ल को हमेशा ख़ारिज करने की कोशिश की गई है। यही कारण है कि हिंदी साहित्य का इतिहास लिखते हुए हिंदी ग़ज़ल को नज़रअंदाज़ किया गया। यह अलग बात है कि ग़ज़ल की निरंतर बढ़ती लोकप्रियता को देखते हुए ग़ज़ल न मात्र लगातार लिखी जा रही है, बल्कि यह पत्र-पत्रिकाओं में प्रमुखता से प्रकाशित भी हो रही है। इस विधा पर जहाँ शोध हो रहे हैं, वहीं पत्रिकाओं का विशेषांक भी पाबंदी से आ रहा है। 

ग़ज़ल लेखन में हमेशा से पुरुषों का वर्चस्व रहा है। सिर्फ़ हिंदी साहित्य नहीं उर्दू साहित्य में भी ग़ज़ल लिखने वाली महिलाएँ कम हैं। वहाँ भी ले देकर हमारा ध्यान परवीन शाकिर और किश्वर नाहीद जैसे कुछ लोगों तक सिमट कर रह जाता है। 

जहाँ तक हिंदी ग़ज़ल की बात है इसमें भी महिलाओं की प्रस्तुति कम रही है पर यह देखकर हैरत होती है कि जो महिलाएँ ग़ज़लें लिख रही हैं उनमें बिहार की महिलाएँ अपने लेखन के दम पर सरे फ़ेहरिस्त नज़र आती हैं। 

असल में ग़ज़ल एक पेचीदा सिन्फ़ है। इसकी पेचीदगी अंदरूनी भी है, और बाहरी भी। ग़ज़ल की एक संरचना तो है ही वह बुनावट और बनावट की भी माँग करती है। ग़ज़ल अपनी बनी बनाई हुई तकनीक से बाहर नहीं निकलती, पर छंदशास्त्र के तक़ाज़े को पूरा कर लेना ही ग़ज़ल के लिए पर्याप्त नहीं होता है, उसमें शेरियत अथवा कथ्य का होना भी उतना ही ज़रूरी है। इसलिए इस फ़न को आज़माना इतना आसान नहीं होता। फिर भी मुश्किलों के बावजूद ग़ज़ल का जादू ऐसा है कि बिहार की सौ से अधिक महिलायें न मात्र पाबंदी से ग़ज़लें लिख रही हैं, बल्कि अपना स्थान भी पुख़्ता कर चुकी हैं। 

बिहार की महिला ग़ज़लकारों पर जब हम बात करते हैं तो हमारा ध्यान अकस्मात्‌ कई चेहरों की तरफ़ जाता है। पद्मश्री शान्ति जैन से लेकर आशा प्रभात होते हुए डॉ. भावना और डॉ. आरती कुमारी ग़ज़ल के ऐसे नाम हैं जो सिर्फ़ बिहार ही नहीं पूरी हिंदी पट्टी में जानी पहचानी जाती हैं। इन सब के पास ग़ज़ल के तरीक़े भी हैं और सलीक़े भी। इसमें डॉ. भावना को तो ग़ज़ल लेखन के लिए बिहार सरकार का महादेवी पुरस्कार भी प्राप्त हो चुका है। मिथिला यूनिवर्सिटी की एक छात्रा के द्वारा उनकी ग़ज़ल पर शोध कार्य भी किया जा रहा है। 

बिहार की महिला ग़ज़ल लेखन पर अगर ग़ौर करें तो देखेंगे कि यहाँ सिर्फ़ स्त्री के अपने सुख-दुख और प्रेम ही नहीं है, बल्कि वह पूरी दुनिया की घटनाओं पर नज़र रखती है। अक्सर हिंदी कविता में जो स्त्री की हताशा और निराश दिखाई देती है वह उनकी ग़ज़लों में मौजूद नहीं है। ग़ज़ल लिखते हुए उनका विज़न हमेशा पॉज़िटिव रहा है। ग़ज़ल को एक प्रेम काव्य की संज्ञा दी जाती है, पर इन शायरात की ग़ज़लें इस हुस्नो-इश्क़ से ऊपर है। जब पद्मश्री शान्ति जैन लिखती हैं:

“इक बूँद की तलाश थी दरिया निकल पड़े 
सूरज के पाँव रात की बस्ती में चल पड़े” 

तो शायरा की समझ के विस्तार का पता चलता है। सीतामढ़ी की ज़मीन से जुड़ी हुई आशा प्रभात पिछले चार दशक से लगातार ग़ज़लें लिख रही हैं। दरीचे (1990) जहाँ उनकी हिंदी ग़ज़लों का संग्रह है वहीं उर्दू में मरमूज़ (1996) संग्रह की काफ़ी चर्चा है। उनका यह शेर तो सबकी ज़बान पर है:

“गर हौसला होता तो किनारे भी बहुत थे 
तूफ़ान में तिनके के सहारे भी बहुत थे”

बिहार की सर ज़मीन की एक ख़ास शायरा रूबी भूषण भी हैं। मुँडेर पर रोशनी उनकी ग़ज़लों की किताब है। उनके पास ग़ज़ल का लबो-लहज़ा है और उसमें अर्थ की गंभीरता भी है। एक शेर आप भी देखें:

“कोई मिले तो सही घोंसला भी बन जाये 
अकेला पंछी भी बैठेगा शाख़ पर कब तक” 

कंकड़बाग पटना की आराधना प्रसाद भी लगातार ग़ज़लें लिख रही हैं और साहित्यिक आयोजन में उनकी शिरकत हो रही है। शताब्दी सम्मान से सम्मानित आराधना प्रसाद की चाक पर घूमती रही मिट्टी उनकी सौ ग़ज़लों का मज्मुआ है, जिनके यह शेर हर मुशायरों में चाव से सुने जाते हैं:

“एक नई ज़िन्दगी की चाहत में
चाक पर घूमती रही मिट्टी” 

आलोचक द्विजेंद्र द्विज उनकी ग़ज़लों को लहरों का सुकून कह कर पुकारते हैं। 

दिनकर की ज़मीन बेगूसराय से जुड़ी हुई नीलू चौधरी और रूपम झा की भी लगातार ग़ज़लें आ रही हैं। नीलू चौधरी का ग़ज़ल संग्रह आसमाँ चाहिए प्रकाशित हो चुका है, पर इन सब में हिंदी ग़ज़ल का जो सबसे बड़ा चेहरा नज़र आता है वह निर्विवाद रूप से डॉ. भावना का है। बिहार की महिला ग़ज़लकारों में सबसे ज़्यादा किताबें भी इन्हीं के ज़िम्मे में है। इनकी ग़ज़ल धार्मिता पर भी दो किताबें डॉ. माधवी और डॉ. ज़ियाउर रहमान जाफरी के संपादन में प्रकाशित हैं। वह लगभग एक दर्जन से अधिक ग़ज़ल संग्रह की शायरा हैं। 2012 मैं प्रकाशित अक्स कोई तुमसा, शब्दों के क़ीमत, मेरी माँ में बसी है, उनकी लोकप्रिय कृति है। आलोचना के स्तर पर भी उन्होंने काफ़ी काम किया है। हिंदी ग़ज़ल के विविध आयाम और बदलते परिवेश में हिंदी ग़ज़ल उनकी  चर्चित किताबें हैं। उन्होंने हज़ारों शेर लिखे हैं शायद इसलिए वह कह सकीं:

“समंदर से भी मोती छान लूँगी 
किसी भी दिन अगर मैं ठान लूँगी” 

डॉ. आरती कुमारी भी ग़ज़लों के लिए लगातार काम कर रही हैं। साल 2022 में साथ रखना है और 2023 में प्रकाशित मुंतज़िर है दिल उनके द्वारा रचित ग़ज़ल की कृति है। उन्होंने बिहार की महिला ग़ज़लकार के नाम से एक पुस्तक का संपादन भी किया है। 

हिंदी ग़ज़ल में कुछ समय से स्थापित हो जाने वालों में बिहार की श्वेता ग़ज़ल और स्वराक्षी स्वरा की अपनी शनाख़्त है। स्वरा ने गुंजिका नाम से एक ग़ज़ल संग्रह का प्रकाशन भी किया है। ठीक इसी तरह चाँदनी समर भी लगातार सृजनरत हैं। ख़ुश्बू परवीन, रानी सिंह और आस्था दीपाली ने भी आलोचकों का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया है। इसी क्रम में निधि लता आरती आलोक वर्मा, अनीता सिंह, रेखा भारती मिश्रा, नीलम श्रीवास्तव, और रख्शां हाशमी का नाम भी लिया जा सकता है। इश्क़ दोबारा हो सकता है रख्शां हाशमी की ग़ज़लों का संग्रह है, जिस पर समीक्षकों के द्वारा लगातार लिखा जा रहा है। 

बिहार के ग़ज़लों की सबसे बड़ी विशेषता ग़ज़ल का मीठापन भी है। स्वभावतः बिहार की ग़ज़लों में हिंदी-उर्दू के अतिरिक्त मैथिली मगही भोजपुरी, अंगिका, बज्जिका के भी शब्द मिल जाते हैं। यह भी देखने की बात है कि बिहार की महिलाएँ हिंदी-उर्दू ही नहीं यहाँ की लोक भाषाओं में भी लगातार ग़ज़ल रच रही हैं। बज्जिका में जहाँ पूनम सिन्हा, हेमा सिंह ग़ज़ल लिख रही हैं, तो अंगिका में रंजना आंगवानी, स्मिता श्री, संगीता चौधरी, भोजपुरी में कुँवर प्रभात, मैथिली में रूपम झा जयंती कुमारी तो मगही में लता पाराशर, रानी मिश्रा, पल्लवी जोशी और पूनम कुमारी की ग़ज़लें लगातार पढ़ने को मिल रही हैं। 

इधर बिहार की महिला ग़ज़लकार के ऊपर अविनाश भारतीय द्वारा संपादित की गई किताब दहलीज़ से आगे भी काफ़ी चर्चा में है। उन्होंने बिहार की बासठ महिला गाजरकारों की दो-दो ग़ज़लों के साथ इस किताब का संपादन श्वेतवर्णा प्रकाशन से किया है। उन्होंने इस किताब की भूमिका में ईमानदारी के साथ लिखा है कि बिहार की महिला ग़ज़लकारों की ग़ज़लों की अनुपलब्धता ने मुझे इस तरह की पुस्तक लिखने के लिए प्रेरित किया, ताकि कालांतर में बिहार की ग़ज़लों पर शोध कार्य करने वालों को कोई कठिनाई न हो। 

कहना ना होगा कि ग़ज़ल जिसे वह दुलहन कहा गया है, जिसके चाहने वाले बड़े, बूढ़े, बच्चे सब हैं। थोड़ी-बहुत शिल्पगत कमज़ोरियों के बावजूद इन महिला ग़ज़लकारों के पास आकर ज़्यादा बन सँवर और निखर गई है। आने वाले समय में जब हिंदी ग़ज़ल की बात होगी कि बिहार की इन महिला ग़ज़लकारों को दरकिनार करना सम्भव न होगा। 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

साहित्यिक आलेख
पुस्तक समीक्षा
पुस्तक चर्चा
कविता
किशोर साहित्य कविता
कविता - क्षणिका
बाल साहित्य कविता
स्मृति लेख
बात-चीत
नज़्म
ग़ज़ल
किशोर साहित्य कहानी
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में

लेखक की पुस्तकें