अभी दीवार गिरने दो: जन चेतना को जाग्रत करने वाली ग़ज़लें 

15-06-2023

अभी दीवार गिरने दो: जन चेतना को जाग्रत करने वाली ग़ज़लें 

डॉ. जियाउर रहमान जाफरी (अंक: 231, जून द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)

समीक्षित पुस्तक: अभी दीवार गिरने दो
ग़ज़लकार: विकास
प्रकाशक: श्वेतवर्णा प्रकाशन, नई दिल्ली-41
वर्ष: 2022
पृष्ठ:100 
मूल्य: ₹120/-

विकास बिहार के युवा ग़ज़लकारों का प्रतिनिधित्व करते हैं। ‘अभी दीवार गिरने दो’ उनका नवीनतम ग़ज़ल संग्रह है, जिसने कम समय में ही अपार लोकप्रियता हासिल की है। 

किसी रचना का ग़ज़ल होने के साथ ही आवश्यक हो जाता है कि वह ग़ज़ल की बुनियादी शर्तों का पालन करती हो। ग़ज़ल अपनी बुनावट में ही नहीं अपनी बनावट के साथ ही बनती है। 

विकास के पास ग़ज़ल का लबो-लहजा है। उसे प्रस्तुत करने का तरीक़ा है। वह ग़ज़ल के शिल्प, छंद, स्वभाव और मुहावरे से परिचित हैं। इसलिए उनका हर शेर पाठकों को मुतमईन करता है। उनकी कोई रचना जल्दबाज़ी में लिखी नहीं होती। वह हर शेर पर मनन और मंथन करते हैं तब जाकर एक पूर्ण विचार उनकी ग़ज़लों में आ पाता है। सबसे बड़ी बात उनके शेरों में मौलिकता है। वह रटे-रटाये रदीफ़ का इस्तेमाल नहीं करते उनकी ग़ज़लें हमेशा एक मैयार के साथ हमारे सामने आती हैं। 

अभी दीवार गिरने दो उनकी ग़ज़ल की दूसरी और कुल तीसरी किताब है। वह जिस दीवार को गिराने की बात करते हैं, वो उस सियासत की दीवार है जिसने दिलों के बीच दूरियाँ पैदा कर दी हैं बकौल शायर:

“अभी दीवार गिरने दो सियासत की
 यहाँ ख़ामोश मंज़र का भ्रम टूटे”

शायरी एक पेचीदा सिन्फ़ है। इसे ख़ून जला कर लिखना पड़ता है लेकिन विकास को यह संपदा अपनी पीढ़ी से मिली है। वो हिंदी के नामवर शायर अनिरुद्ध सिन्हा के पुत्र हैं तभी तो कहते हैं:

“बात ही बात में ग़ज़ल कह दूँ
 ये हुनर यार ख़ानदानी है”

हिंदी ग़ज़ल की सबसे बड़ी विशेषता लोगों की फ़िक्र, तरद्दुद और ज़रूरतों से जुड़ जाना है। विकास के पास अपना अनुभव और सोच है। उदाहरण के लिए ‘कार’ का ज़िक्र बशीर बद्र की शायरी में भी है और विकास की शायरी में भी। बशीर बद्र की शायरी में कार जब झटके से रुकती है तो महबूब से सट कर रोमांच पैदा करती है, लेकिन हिंदी के शायर विकास जब उसी कार का ज़िक्र करते हैं तो उसकी तेज़ हवा से ग़रीबों का उड़ता हुआ बिस्तर दिखलाई पड़ता है:

“तुम्हारी कार ये फ़ुटपाथ पर चली ऐसी
किसी ग़रीब का बिस्तर नज़र नहीं आता”

विकास के कई ऐसे शेर हैं जिसमें ग़रीबी, विवशता, राजनीति का प्रपंच, धर्म और भाषाई विवाद, आपसी मनमुटाव अमीर और ग़रीब के बीच बढ़ती हुई खाई दिखलाई पड़ती है। कुछ शेर ग़ौरतलब हैं:

“नहीं कुछ लाज आती है भिनकती लाश पर उनको
अगर मौक़ा मिला तो वो कफ़न को नोंच डालेंगे”
 
“नफ़रत की आँधियाँ चली रिश्तों के दरमियां
सब कुछ उड़ा चली ये अदावत की पोटली”
 
“उनके वादे हैं सब धुएँ जैसे
क्या मिलेगा तुम्हें धुआँ छूकर’

कहना न होगा कि युवा ग़ज़लकार विकास के पास ग़ज़ल की फ़िक्र है। अपना कथ्य-कौशल है। शेर को प्रस्तुत करने के तौर-तरीक्रे हैं। उनके शेरों की तरह उनकी भाषा भी दैनिक जीवन में आम लोगों द्वारा प्रयुक्त होने वाली है। उनके क़दमों में जहाँ चिर परिचित उर्दू फ़ारसी के शब्द हैं तो वहीं देशज रंग भी मौजूद है। 

उनकी ग़ज़लें अपनी अभिव्यंजना, कहन, विचार और प्रभावोत्पादकता के कारण लोगों तक पहुँचती हैं। इसलिए जहाँ कहीं भी हिंदी ग़ज़ल का ज़िक्र होता है वहाँ विकास के शेर उद्धृत किए जाते हैं। 

ग़ज़ल में थोड़ी भी रुचि रखने वाले लोगों के लिए यह किताब मुफ़ीद तो होगी ही उनकी जिज्ञासा को भी शांत करेगी। श्वेत वर्णा प्रकाशन ने हमेशा की तरह इस किताब को भी पूरे मनोयोग से प्रकाशित किया है। 

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