जब भी सुनती है कुछ ख़बर बेटी
जाग जाती है रात भर बेटी
जब भी पापा न आयें ऑफ़िस से
कितनी रहती है मुंतज़र बेटी
घर में आते हैं मसअले जो भी
उसको करती है दर गुज़र बेटी
यों तो बेटे भी कम नहीं होते
फिर भी होती है पुर असर बेटी
छोड़ जाती है अपने मायके को
फिर बनती है एक घर बेटी
घर में दुनिया का काम हो चाहे
कुछ भी रखती नहीं क़सर बेटी
बात जो नागवार भी हो तो
हँस के आती है टालकर बेटी
समझो ख़ुशियाँ हैं सारे आँगन में
घर में महफ़ूज़ है अगर बेटी
अपनी माँ की है लाड़ली इतनी
आ ही जाती है रूठ कर बेटी
अपने घर की ज़रूरतों के लिए
गाँव से आ गई शहर बेटी
उसके होने से घर में रौनक़ है
घर में रह जाती उम्र भर बेटी
कब से दीदार को मैं बैठा हूँ
कब से बैठी है चाँद पर बेटी