हिंदी ग़ज़ल का नया लिबास
डॉ. ज़ियाउर रहमान जाफरीहिंदी कविता की विविध विधाओं में ग़ज़ल सबसे ज़्यादा पढ़ी जाने वाली रचना है। ग़ज़ल की लोकप्रियता इस बात की अलामत है कि पाठक को कविता की छांदसिकता, उसकी लयात्मकता तथा उसकी बनावट तथा सजावट पसंद आती है। एक आम पाठक यह मानकर चलता है कि वह अगर कविता है तो उसमें कविता वाला छंद विधान भी हो। यही कारण है कि ग़ज़ल, गीत, दोहे जैसी छान्दसिक विधाएँ न उसे प्रभावित करती हैं बल्कि उनके अंतर्मन में आनंद का भी संचार करती हैं।
हिंदी ग़ज़ल दुष्यंत से जानी और पहचानी जाती है। हिंदी ग़ज़ल में दुष्यंत का वही समय है जो आपातकाल का है। उस वक़्त जहाँ कुछ भी बोलना मना था वहाँ दुष्यंत ने ग़ज़ल वाली इस शैली को अपनाया और कहा कि 'यह ज़ुबाँ है कि सी नहीं जाती 'ज़ाहिर है सत्ता के प्रति यह उनका मुखर आक्रोश था। अपनी अभिव्यक्ति के लिए उन्होंने चिर परिचित ग़ज़ल का माध्यम चुना और उनकी सिर्फ़ एक किताब हिंदी ग़ज़ल के लिए मील का पत्थर साबित हुई। दुष्यंत के पहले भी ग़ज़ल लिखी जाती रही लेकिन उसे बस हिंदी ग़ज़ल की परंपरा से जोड़ना ही ठीक होगा। उस ग़ज़ल ने न कोई आंदोलन का रूप लिया और न ही साहित्य में ये विधा के तौर पर स्वीकृत हुई। उर्दू में ग़ज़ल पहले से होते हुए भी हिंदी में आकर इसलिए लोकप्रिय हुई कि उसने उर्दू ग़ज़ल की विषय वस्तु से अलग अपना रास्ता बनाया। यहाँ ग़ज़ल में आक्रोश की भाषा पहली बार दिखाई पड़ी। ग़ज़ल का पहली बार सामाजीकरण हुआ और वह फूल-पत्ती और प्रेम को अभिव्यक्त करने वाली विधा नहीं रह गई। अदम गोंडवी से लेकर दुष्यंत और आज के शायरों ने भी इसी तल्ख़ तेवर को अपनाया और इस प्रकार ग़ज़ल में नई शब्दावली, नए मुहावरे और नए विषय वस्तु को शामिल किया गया। अज्ञेय की तरह अदम गोंडवी ने ग़ज़ल का घोषणा पत्र तैयार किया और कहा:
जनता के पास एक ही चारा है बग़ावत
यह बात कह रहा हूँ मैं होशो हवास में
तो दुष्यंत ने फ़रमाया:
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए
ग़ज़ल के इस गरजने और बसने वाले लहज़े ने बाद के शायरों को भी प्रभावित किया, और यह मानकर चला गया कि हिंदी ग़ज़ल में संघर्ष क्रांति, परिवर्तन, आक्रोश का स्वर दिखाई देना ज़रूरी है, जो कभी प्रगतिवादी कविता का विषय रहा था। हिंदी ग़ज़ल जब थोड़ा इससे हटी तो उसने भूख, ग़रीबी, बेबसी आँसू, बदहाली, अराजकता, विसंगति, विडंबना, कचोट, जैसी स्थितियों को अपने में समेट लिया। फिर भी जैसा कि वशिष्ठ अनूप ने माना है कि हिंदी ग़ज़ल का मूल चरित्र हमेशा से यथार्थवादी और प्रतिरोध ही रहा है।1 कहने का अर्थ यह कि हिंदी ग़ज़ल हिंदी साहित्य में प्रतिरोध और जनाकांक्षा की संवाहिका बनकर दाख़िल हुई। उसने शिल्प तो उर्दू ग़ज़ल वाला ही लिया लेकिन उसकी सोच ख़ालिस अपनी थी। हिंदी के अधिकतर प्रतिष्ठित ग़ज़लकारों की ग़ज़लों में आज भी वही तेवर है जिसमें शासन और सत्ता के प्रति आक्रोश है, और सामाजिक असंगतियों और विसंगतियों के प्रति गहरा असंतोष है। कुछ शेर देखने योग्य हैं:
कोई खिड़की न कोई दर ही खुला मिलता है
हम कहीं जाएँ तो क्या आस लगाकर जाएँ
—अनिरुद्ध सिन्हा
कभी ऐसे भी दिन आएं सुकूं हो सबके जीवन में
अभी हर एक बस्ती में मचा कोहराम मिलता है
—लक्ष्मी शंकर वाजपेयी
रोक ली नदियाँ ये पर्वत तोड़ डाले
क्या यही बस रास्ते थे बेहतरी के
—डॉ. भावना
क्यों अचानक चीख़ कर बच्ची कोई
रो रही चुपचाप सुन कर देखिए
—दिलीप दर्श
हम उम्मीदों के घने साये तले हैं
इसलिए अब तक थपेड़ों से बचे हैं
—कमलेश भट्ट कमल
वही धोखे वही फाके वही पीड़ा वही सपने
चलेगा कब तलक ऐसा गुज़ारा कह नहीं सकते2
—हरेराम समीप
कहना न होगा कि दुष्यंत की जो विरोध और विसंगति वाली शैली है, उसका प्रभाव बाद के ग़ज़लकारों में भी देखने को मिलता है, जिसे डॉ. सादिका असलम हिंदी ग़ज़ल में राजनीति बोध की खुली अभिव्यक्ति कहकर पुकारती हैं।3
ग़ज़ल ने अपने को अभिव्यक्त करने के लिए चाहे जिस देशकाल और वातावरण को चुना हो, उसने अपने लहज़े के साथ समझौता नहीं किया। ग़ज़ल का एक रूप है, और उस रूप के बिना वह चाहे कविता की कोई विधा हो कम से कम गज़ल नहीं हो सकती। बिना छंद, बहर प्रस्तुतीकरण, और प्रभाव के कोई भी शेर-शेर नहीं बनता। ग़ज़ल की एक अपनी बुनावट और बनावट है जो उसका अपना लिबास है। इन दिनों हिंदी में तीन तरह की ग़ज़लें लिखी जा रही हैं। एक ग़ज़ल ख़ालिस हिंदीपन लिए हुए है, जिसमें संस्कृत शब्द तो देखे जा रहे हैं लेकिन उर्दू-फारसी शब्दों से परहेज़ किया जा रहा है। दूसरी तरह की ऐसी ग़ज़लें हैं जो सिर्फ़ देवनागरी लिपि में लिखी जा रही है वरना उसका सारा रूप रंग उर्दू वाला है। तीसरी वो ग़ज़ल है जो हिंदुस्तानी ज़ुबान की हिमायत करती है। इसमें हिंदी उर्दू देशज विदेशज तमाम ज़बानों के ऐसे शब्द हैं जो लोगों के बीच रच-बस गए हैं। इसी भाषिक संरचना को ग़ज़ल सम्राट दुष्यंत ने भी अपनाया था। असल में ग़ज़ल उस संसद भवन की तरह है जहाँ हर क़िस्म के लोग उठते–बैठते हैं और हर क़िस्म की समस्याओं और उसकी ज़रूरतों पर विमर्श होता है। ग़ज़ल का यही धर्मनिरपेक्ष स्वरूप हम सब को प्रभावित करता है, जिसे कुछ शेर से भी समझा जा सकता है:
वे सब कुल्हाड़ियों के या आरी के साथ हैं
जंगल के लोग आज शिकारी के साथ हैं
—वशिष्ठ अनूप
मंज़िलें आसान थी पर रास्ते
उल्टी-सीधी कोशिशों में घिर गए
—रामचरण राग
दुआएँ बेच रहे हैं दुआओं के ताजिर
अगर दुआ न खरीदो तो बद्दुआ देंगे
—अख्तर नजमी
यहाँ लिबास की क़ीमत है आदमी की नहीं
मुझे गिलास बड़े दे शराब कम कर दे
—बशीर बद्र
सूरज चाँद सितारे कब के लड़ जाते
शुक्र मनाओ बीच में धरती आ बैठी4
—-विनय मिश्र
ज़ाहिर है ग़ज़ल की भाषा इसी ख़ूबसूरती से निकलकर सामने आई है, जहाँ भाषा के साथ दुराग्रह है, वहाँ ग़ज़ल के शेर प्रभावित नहीं कर पा रहे हैं। हमें यह समझना होगा कि सिर्फ़ काफिया और रदीफ़ फ़िट कर देने से कोई पंक्ति ग़ज़ल नहीं बन जाती। ग़ज़ल की पहली और आख़री शर्त उसका मुतासिर करना है, इसके बिना वो कोई क़ामयाब शायरी नहीं होती। कुछ ऐसे शेर देखे जा सकते हैं जिसे पढ़ते ही शायर की क़ाबिलियत पर रश्क होने लगता है:
महबूब का घर हो कि बुज़ुर्गों की ज़मीनें
जो छोड़ दिया फिर उसे मुड़ कर नहीं देखा
—बशीर बद्र
मेरे पिता ने सौंप दी छतरी मुझे मगर
बारिश में भीगते हुए दफ़्तर चले गए
—ज्ञानप्रकाश विवेक
मुझे डायवोर्स देखकर तू भला क्यों
मेरी सेहत बराबर पूछता है
—हरेराम समीप
शायरी में शिल्प ज़रूरी है लेकिन शिल्प ही सब कुछ नहीं है, अंततोगत्वा एक पाठक उसके कथ्य का ही आस्वादन करता है। पाठक स्वयं उसे पढ़ते हुए उसे काव्य शास्त्रीय सिद्धांतों से परखकर आनंद नहीं लेता। इसलिए शैली से महत्त्वपूर्ण यह है कि ग़ज़ल में किस बात को किस तरीक़े से रखी गई है, और यह जो तरीक़ा है असल में यही ग़ज़ल का लहज़ा भी है। कुछ शेर ग़ौरतलब हैं:
ग़ज़ल को ले चलो अब गाँव के दिलकश नज़ारों में
मुसलसल फन का दम घुटता है इन अदबी इदारों में
—अदम गोंडवी
कोई समझता नहीं दोस्त बेबसी मेरी
महानगर ने चुरा ली है ज़िन्दगी मेरी
—ज्ञानप्रकाश विवेक
किससे नहीं हैं यह किसी बिरहन के पीर के
यह शेर है अँधेरों से लड़ते जहीर के
—जहीर कुरैशी
कानों को झूठ कहने की आदत है इस क़द्र
सच कह के चौंक जाता है अपनी ज़ुबान से5
—राजेश रेड्डी
निहत्थे आदमी के हाथ में हिम्मत ही काफ़ी है
हवा का रुख़ बदलने के लिए चाहत ही काफ़ी है6
—माधव कौशिक
आँसू पीकर जब मुस्काना पड़ता है
जीते जी कितना मर जाना पड़ता है7
—विनय मिश्र
ग़ज़ल के आलोचकों का एक बड़ा वर्ग वह है जो आज की हिंदी ग़ज़ल को भी उस दौर से जोड़कर देखना चाहता है जिस दौर में अदम और दुष्यंत शेर कह रह थे। हमें समझना चाहिए कि दुष्यंत और अदम की परिस्थितियाँ कुछ और थीं। कविता एक लय है, एक धार है, एक प्रवाह है और इसे किसी सीमित दायरे में बाँधकर नहीं रखा जा सकता। कविता समय और समाज से प्रभावित होती है। असल में ग़ज़ल में सिर्फ़ आक्रोश प्रतिरोध और विरोध की ही भाषा होगी तो ग़ज़ल घुट कर रह जाएगी। ज़ाहिर है ग़ज़ल को अब एक नया लिबास पहनाने की आवश्यकता है, जिसमें बग़ावत भी हो, मोहब्बत भी हो, नज़ाकत भी हो और शरारत भी हो। इसमें आम लोगों का दर्द हो तो उनकी ख़ुशी भी हो। हँसते-खेलते बच्चे भी हों किसान की लहलहाती फ़सलें भी हों उनके दुख भी हों तो दिव्यांगों, किन्नरों आदिवासियों और वंचित वर्ग की समस्याओं और उत्सवों को भी ज़िक्र किया जाए। हिंदी ग़ज़ल को हर परिस्थितियों और हर जश्न में शामिल होने के लिए ख़ुद को तैयार रखना होगा, वरना ये एकाकी विधा बन कर रह जाएगी। आज के अधिकतर हिंदी के ग़ज़लकारों की शायरी का अवलोकन करते हुए आप पाएँगे कि उनकी ग़ज़लें किसी नारे के तौर पर नहीं कही जा रही हैं और न किसी वीरगाथाकालीन साहित्य की पुनरावृति ही की जा रही है। उनकी एक ग़ज़ल के अलग-अलग शेरों में प्यार भी है, प्रकृति भी है, विरोध भी है, आदर्श भी है, सामाजिकता भी है, दुख और दर्द भी हैं तो संतोष और असंतोष की भावना भी मौजूद है। हिंदी ग़ज़ल का ये प्रतिरोधी चरित्र अब समन्वयवादी हो चुका है। उदाहरण के लिए अनिरुद्ध सिन्हा की एक ग़ज़ल के कुछ शेर देखे जा सकते हैं जिसे ग़ज़ल में कथ्य की दृष्टि से पर्याप्त विविधता है, और यह विविधता ही एक ग़ज़ल को मुकम्मल और साहित्योपयोगी बनाती है:
सोचना यह है कि आख़िर वक़्त की चाहत है क्या
तुम समझते ही नहीं हालात की नियत है क्या
थरथराकर बुझ ही जाएगा जलाओ जितनी बार
दस्तकें देती हवा में दीप की हिम्मत है क्या
रोशनी का एक झोंका जो कभी सहता नहीं
नींद में आए हुए उस ख़्वाब की क़ीमत है क्या
तुम समझ पाए नहीं और हम समझ पाए नहीं
वक़्त की देहरी पर ठहरी मौत की हसरत है क्या8
—अनिरुद्ध सिन्हा
ज़ाहिर है ग़ज़ल इन सब ख़्यालों के समेटने के बाद ही पूरा सर होती है। इसका यही इंद्रधनुषी रंग पाठकों को प्रभावित करता है। कल के पाठक समाज के अलग-अलग हिस्से और तबक़े के हैं। सबके अपने-अपने दुख हैं, ग़ज़ल की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि यह किसी बैनर तले नहीं है। इसलिए समाज का हर वर्ग इसके विमर्श में आता है। कुछ शेर देखे जा सकते हैं:
वो ग़ज़ल कहते हैं माकूल हवा मिलने पर
एक हम हैं कि जो आँधी में ग़ज़ल कहते हैं 9
—उर्मिलेश
साँप तो साँप सिर उठाकर अब
राह में रस्सियां निकलती हैं
—कुंवर बेचैन
सविता चड्ढा ग़ज़ल में इसी सहजता और सरलता की हिमायती हैं।10
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि ग़ज़ल को किसी एक कलेवर में बाँधकर देखना ग़ज़ल के इस मिज़ाज और तेवर की अनदेखी करना है, ग़ज़ल जिस लहज़े, जिस लचक, जिस जुंबिश और जिस तालमेल के लिए जानी पहचानी और स्वीकारी जाती है।
संदर्भ:
-
समकालीन अभिव्यक्ति, जनवरी-जून 2021, पृष्ठ-23
-
समकालीन हिंदी ग़ज़लकार, हरिराम समीप, भावना प्रकाशन दिल्ली पृष्ठ-22
-
वही, पृष्ठ 20
-
लोग ज़िन्दा हैं, विनय मिश्र, लिटिल वर्ल्ड पब्लिकेशन नई दिल्ली, पृष्ठ-45
-
समकालीन हिंदी ग़ज़ल परंपरा और विकास, अनिरुद्ध सिन्हा, आरएसवीपी प्रकाशन दिल्ली, पृष्ठ-91
-
हिंदी ग़ज़ल की विकास यात्रा, ज्ञानप्रकाश विवेक, हरियाणा साहित्य अकादमी चंडीगढ़, पृष्ठ-178
-
लोग ज़िन्दा हैं, विनय मिश्र, लिटिल वर्ल्ड पब्लिकेशन नई दिल्ली, पृष्ठ-46
-
आलोचना की यात्रा में हिंदी ग़ज़ल, जीवन सिंह, बोधि प्रकाशन जयपुर। पृष्ठ-67
-
हिंदी ग़ज़ल और डॉ. उर्मिलेश, सोनरूपा विशाल, आनय बुक प्रकाशन, पृष्ठ-73
-
हिंदी ग़ज़ल की नई दिशाएँ, सरदार मुजावर, राधाकृष्ण प्रकाशन नई दिल्ली, पृष्ठ-132
—डॉ. जियाउर रहमान जाफरी
स्नातकोत्तर हिंदी विभाग
मिर्ज़ा ग़ालिब कॉलेज गया, बिहार
823001
9934847941, 6205254255
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