हिन्दी ग़ज़ल की प्रकृति
डॉ. जियाउर रहमान जाफरीहिंदी की तमाम का विधाओं की अपनी प्रकृति है। लेकिन उसमें ग़ज़ल की प्रकृति थोड़ी भिन्न है। यह कम लिख-बोलकर अधिक कहने वाली विधा है। इसकी एक अपनी शैली, अपना मिज़ाज, अपना मुहावरा, तथा अपनी बुनावट और बनावट है। यह उस स्त्री की गुफ़्तगू है जिसे ढीला-ढाला लिबास पहनना पसंद नहीं है। वह ऐसी प्रेयसी है जो इशारों में बात करती है। उस स्त्री की बातों में नफ़ासत भी है, और नज़ाकत भी। यही स्त्री अब सिर्फ़ प्रेम की बातें नहीं करती बल्कि देश समाज और दुनिया के हर हालात पर अपना पक्ष रखती है।
हिंदी कविता परंपरा में ग़ज़ल बहु पठित विधा है। इसके पाठक सबसे अधिक हैं। कविता का रस सबसे अधिक ग़ज़ल में मिलता है। ग़ज़ल जिसे अपना मुरीद बना लेती है उसे काव्य की और कोई विधा प्रभावित नहीं करती। ग़ज़ल अपने स्वभाव के विपरीत कुछ बर्दाश्त नहीं करती, इसलिए ग़ज़ल में शेर हो जाना काफ़ी नहीं होता, उसमें प्रभावित करने या तासीर पैदा करने की क्षमता भी होनी चाहिए। जिन लोगों ने ग़ज़ल की प्रकृति को समझा उनके शेर ने ही तासीर पैदा किए। ग़ज़ल सिर्फ़ तुक मिला देने का नाम नहीं है, और न ही सिर्फ़ बहर में फ़िट करने से ही कोई शेर, शेर बन जाता है। ग़ज़ल में किसी पूर्वाग्रह की भी गुंजाइश स्वीकार नहीं होती। कई बार हिंदीपन की अतिशय कोशिश में शेर शरीयत से ख़ारिज हो जाता है। ग़ज़ल चाहे वह हिंदी की हो या उर्दू कि वह हिंदुस्तानी ज़ुबान को पसंद करती है। यह दौर मिर्ज़ा ग़ालिब के दौर से अलग है। ग़ज़ल की बोली आम लोगों की बोली है जिनकी बातचीत में कोई पेचीदगी नहीं होती, और न ही अलंकार की बंदिश पैदा की जाती है।
हिंदी में ग़ज़ल कोई नई विधा नहीं है। इसके सूत्र खुसरो से होते हुए कबीर, भारतेंदु, शमशेर, रंग और दुष्यंत तक पहुँचते हैं। यह अलग बात है कि हिंदी ग़ज़ल दुष्यंत से जानी और पहचानी गई। हिंदी ग़ज़ल को एक विधा के तौर पर स्थापित करने में दुष्यंत के अवदान को नहीं भुलाया जा सकता। उर्दू की इस पुरानी विधा को दुष्यंत ने हिंदी में लाकर एक नए साँचे में ढाला। दुष्यंत ने महसूस किया कि उर्दू की हुस्न इश्क़ वाली ग़ज़ल अब लोगों के गले नहीं उतर रही है। तब उन्होंने ग़ज़ल में उस स्त्री की बात की जो सिर्फ़ इश्क़ नहीं करती। इस मुल्क के हर हालात पर नज़र रखती है तब दुष्यंत ने कहा–
वो कर रहे हैं इश्क़ पे संजीदा गुफ़्तगू
मैं क्या बताऊँ मेरा कहीं और ध्यान है
ज़ाहिर है दुष्यंत का ध्यान जन समस्याओं की तरफ़ था। हिंदी ग़ज़ल ने सियासत पर हमला किया था। इसलिए नेहरू तक को भी दुष्यंत के शेर पर नोटिस लेना पड़ा। ऐसा नहीं है कि हिंदी ग़ज़ल दुष्यंत के बाद आकर ख़त्म हो जाती है, बल्कि दुष्यंत से ग़ज़ल एक तरह से शुरू होती है और इस शुरुआत को हिंदी के कई ग़ज़ल गो सलीक़े से निभाते हैं। ग़ज़ल की प्रमुख प्रवृत्ति असर पैदा करने की है। सिर्फ़ सपाट बयानी ग़ज़ल को पसंद नहीं। कई बार सिर्फ़ तुक मिलाकर उसे शेर समझ लिया जाता है, जो ग़ज़ल की फ़ितरत के ख़िलाफ़ है। ऐसे ही कुछ शेर देखे जा सकते हैं–
हम गिरे हैं तो सँभल जाएँगे
दल दलों से भी निकल जाएँगे
X X X
वक़्त ने बयान दे दिया
क़ब्र को जहान दे दिया
X X X
देखो तो क्या है कोलाहल के भीतर
बिछी हुई है ख़ामोशी की एक चादर
वर्षा सिंह
X X X
पेट की जो आग है उसको
आग में झुलसी फसल लिखना
यश मालवीय
ग़ज़ल में ज़रूरी है कि एक मुकम्मल बात आए। वह हमें गुनगुनाने पर मजबूर करे। वह पढ़ते ही याद हो जाए। वह ग़ज़ल किसी परी लोक की बात न करती हो। हर पढ़ने वाला यह महसूस करे कि यह तो उसी की बात है जैसे यह शेर–
विष असर कर रहा है किस्तों में
आदमी मर रहा है किस्तों में
X X X
मुझे रुलाते हो लेकिन वो वक्त आएगा
हंसे तो हंसते रहो वह अज़ाब हम देंगे
रम्ज़ अजीमाबादी
X X X
वही काली रातें वही दिन पर पहरा
न सपने ही टूटे न मंज़र ही बदला
विनय मिश्र
X X X
जब भी मिलता है वो अंदाज़ जुदा होता है
चांद सौ बार भी निकले तो नया होता है
मुनव्वर राना
X X X
दवा हर दर्द की गर हो मयस्सर
वजीफे कौन पढ़ना चाहता है
अनिल कुमार सिंह
हिंदी ग़ज़ल कभी-कभी अत्यधिक हिंदी पन के मोह में कठिन और अग्राह्य हो जाती है। हिंदी की ग़ज़ल का मतलब यह नहीं कि उसमें हिंदी के कठिन शब्दों का ही इस्तेमाल किया जाए। जिस शब्द से शेरियत आता हो, अगर आम जनता उसे समझ रही है तो उसका प्रयोग बिना किसी पूर्वाग्रह के हिंदी ग़ज़ल में होना चाहिए। सिर्फ कठिन शब्दों से हिन्दी ग़ज़ल नहीं बनती। कुछ ऐसे शेर देखे जा सकते हैं जहां हिंदी संस्कृत के शब्दों का कठिन प्रयोग शेर वाला स्वाद नहीं दे पाता –
जीवनादर्श मोहन बने
अनुकरण के लिए ज़िन्दगी
X X X
अर्थ मोती सा उदय हो शब्द से
स्वाति जल बरसेगा कब किस अब्द से
डॉ. नरेश
X X X
रम्य प्रियदर्शी रहे हो रूप में रति भी सहज
प्रेम हो शुचि काम्य जिसकी कामना करते रहे
चंद्रसेन विराट
वहीं जहाँ इस भेदभाव के बिना शेर लिखे गए हैं, वह शेर लाजवाब बन पड़े हैं कुछ शेर इस संदर्भ में देखे जा सकते हैं–
क़िस्से नहीं हैं ये किसी रांझे की हीर के
यह शेर है अँधेरों में लड़ते जहीर के
जहीर कुरैशी
गूँगे निकल पड़े हैं ज़बां की तलाश में
सरकार के ख़िलाफ़ ये साज़िश तो देखिए
दुष्यंत कुमार
मुझको नज़्मो ज़ब्त की तालीम देना बाद में
पहले अपनी रहबरी को आचरण तक ले चलो
अदम गोंडवी
वास्तव में यह समय हिंदी ग़ज़ल का समय है। हिंदी ग़ज़ल पर पत्र-पत्रिकाओं के निरंतर विशेषांक आ रहे हैं। ग़ज़ल पर सबसे ज़्यादा शोध कार्य हो रहा है। ग़ज़ल पाठ्यक्रम में भी शामिल है। आलोचना के स्तर पर भी ग़ज़ल इत्मीनान देता है। जहीर कुरैशी, विनय मिश्र के व्यक्तित्व और कृतित्व पर लिखी गई किताब सराही और स्वीकारी गई है। हरे राम समीप, अनिरुद्ध सिन्हा, जीवन सिंह, नचिकेता, ज्ञानप्रकाश विवेक, सरदार मुजावर, आदि ने आलोचना के स्तर पर भी ग़ज़ल को समृद्ध किया है। नया ज्ञानोदय, समकालीन भारतीय साहित्य, अलाव, हरिगंधा, आजकल, और संवदिया के ग़ज़ल विशेषांक काफी चर्चित रहे हैं। हिंदी के कई गज़लगो स्तरीय शायरी कर रहे हैं। उनके पास ग़ज़ल की फिक्र भी है, और ग़ज़ल वाला लबो लहजा। भी कुछ शेर देखने योग्य हैं–
किस तरह शाख छटपटाती है
तुम ज़रा फूल तोड़ कर देखो
शंकर भारद्वाज
पिता के घर से पी - घर की दिशा में
चली नदियाँ समंदर की दिशा में
जहीर कुरैशी
आसमां में उड़ो दीवार की बातें न करो
चल ही निकले हो तो रफ़्तार की बातें न करो
राम मेश्राम
वो सफ़र के साथ हैं पर इस अदाकारी के साथ
जैसे इक मासूम क़ातिल पूरी तैयारी के साथ
विनय मिश्रा
मंज़िलें आसान थीं पर रास्ते
उल्टी-सीधी कोशिशों में घिर गए
रामचरण राग
कुल मिलाकर हम कह सकते हैं कि हिंदी कविता की परंपरा में हिंदी ग़ज़ल हमें सबसे ज्यादा आश्वस्त करती है। बस जरूरत यह है कि ग़ज़ल के नेचर, उसकी प्रकृति, और उसके स्वभाव को समझा जाए। ग़ज़ल के मिजाज को समझकर जो शायरी की जाती है वही शेर आने वाली नस्लों को प्रभावित करने का माद्दा रखते हैं।
डॉ. जियाउर रहमान जाफरी
हाई स्कूल माफ़ी
वाया: अस्थावां
ज़िला: नालंदा
बिहार 803107
9934847941
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