कुछ छूट रहा है

15-01-2021

कुछ छूट रहा है

राहुलदेव गौतम (अंक: 173, जनवरी द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

किताबों के पन्ने पर
जब आँखें हँसने लगे
तब किताबों का तथ्य
हमारी दिलचस्पी में उतर जाता है।
 
फूल काँटों में
बस इतना अंतर है
पहले वाला समाप्त है
काँटे निरंतर संघर्ष।
 
तुम कितनी ही होश की
बात कर लो होशवालो
हमारे यहाँ नशे की बात भी
हँस-हँस के की जाती है
 
पर्दे और दरवाज़े में
बस इतना फ़र्क़ है
दरवाज़े संपूर्ण घर है
पर्दे असलियत का शिकंजा।
 
बाहर तुम भी हो
बाहर मैं भी हूँ
बस भीड़ तुम्हें घेरे हुए है
मैं भीड़ से अलग हूँ
 
मालकियत जो थी तुम्हारी
अपनी जलवों पर
कहीं वह फूल न बन जाए
जो टूटता पहले है,
भले ही वह चंद फ़सलों में
एक-एक करके पिरोया जाए।
 
आदमियत नहीं ठहरती
अपनी जगह,
कभी-कभी अपने जूते भी
हम बच्चों की तरह उठाते हैं।
 
अल्फ़ाज़ नये न हों तो
ज़ुबान भी बासी लगती है,
वरना हम मक्खियों को भी
गाली दे जाते हैं।
 
कभी-कभी पिलपिलाते हुए,
बच्चे भी अच्छे नहीं लगते,
जब घरवाले मेरी तहज़ीब की
बाज़ार से सब्ज़ियाँ भूलने पर
धज्जियाँ उड़ाने लगते हैं।

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