त्रेता: एक सम्यक मूल्यांकन (रचनाकार - दिनेश कुमार माली)
आठवाँ सर्ग: रावण की बहन ताड़का
कवि उद्भ्रांत ने रामायण के अनुरूप ही ताड़का के चरित्र का गठन किया है। ताड़का यक्ष की पुत्री थी। डॉ. अम्बेदकर ने अपने निबंध “शूद्राज एंड द काउंटर रिवोल्यूशन” में स्पष्ट किया है कि आर्यों के प्राचीन धार्मिक साहित्य का अध्ययन करने पर लोगों के अनेक समुदायों और वर्गों का पता चलता है। सबसे पहले आर्यों का पता चलता है, जो चार वर्गों में विभाजित थे: ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। इनके अतिरिक्त और इनसे भिन्न थे: 1)असुर, 2) सुर या देव, 3) यक्ष 4) गंधर्व, 5) किन्नर, 6) चारण, 7) अश्विन और 8) निषाद। निषाद जंगल में बसी, आदिम जनजातियाँ और असभ्य थे। असुर एक जातिगत नाम है, जो बहुत-सी जनजातियों को दिए गए अनेक नामों में से है। नए नामों में दैत्य, दानव, दस्यु, कलंज, कलेय, कलिन, नाग निवात-कवच, पौलम, पिशाच और राक्षस हैं। हम नहीं जानते कि सुर और देव भी उसी तरह के जनजातीय लोग थे। जिस तरह के असुर थे। हम सिर्फ देव समुदाय के प्रमुखों को जानते हैं, जिनमें ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र, सूरी, वरुण, सोम आदि हैं। वे एक अन्य निबंध, एनशिएन्ट इंडिया आन एकसीइमूमेशन में यह भी बताते हैं कि यक्ष, गण, गन्धर्व और किन्नर मानव परिवार के सदस्य थे और देवों की सेवा में थे। यक्ष महलों के प्रहरी होते थे।
इस सर्ग में कवि उद्भ्रांत ने ताड़का को रावण की बहन बताते हुए लंका में जंगल से जड़ी-बूटियों और खनिज पदार्थों को भेजने का कार्य करने वाला बताया है। उसके साथ उसका भाई मारीच तथा बलशाली पुत्र सुबाहु सहयोग करते थे। उसी जंगल में विश्वामित्र भी अपने शिष्यों के साथ यज्ञ कर्म में लीन थे, एक दिन अपने साथ फलमूल लेकर जा रहे थे कि भूख से पीड़ित ताड़का उनकी तरफ लपकी। उनके पीछे थे राम और लक्ष्मण। विश्वामित्र के आदेश पर राम ने तीर चलाकर ताड़का को हमेशा-हमेशा के लिए समाप्त कर दिया।
कवि के इस संकेत को देवदत्त पट्टनायक की पुस्तक “सीता” में दूसरे दृष्टिकोण से देखा गया है कि रामायण में कई औरतों को राक्षसी का दर्जा देकर या तो उन्हें मारा या फिर उन्हें परेशान किया गया। इनमें ताड़का का नाम सबसे पहले आता है। शूर्पणखा का नाम भी किसी से छुपा हुआ नहीं है, मगर यथोमुखी, सिंहिका, सुरसा लंकिनी, मंदोदरी (रावण की पत्नी) तथा चंद्रसेणा (महीरावण की पत्नी) के नाम भी शामिल हैं। इन्हें जंगली और पालतू प्रकृति के रूप में मानना मुश्किल है। सीधी-सी बात है उस ज़माने में औरतों के प्रति पुरुष हिंसा बहुत ज़्यादा होती थी।
विश्वामित्र के यज्ञ की तुलना इंद्रप्रस्थ नगर बसाने के लिए पांडवों द्वारा खांडव जंगल जलाने से की जा सकती है। यज्ञ का मतलब जंगल साफ करना, आदमियों के रहने योग्य कॉलोनी बनाने का प्रतीक है। उस ज़माने में गंगा के मैदान से दक्षिण के घने जंगलों में वैदिक जातियों का प्रवेश माना जा सकता है। तत्कालीन संघर्षों के कार्य मिशनरी तथा evangelist की तरह होते थे, जो यक्ष के माध्यम से उपनिवेशवाद की स्थापना करते थे। फिर अपने शासक, सामन्त, ज़मींदार और पुरोहित जातियों को अपने बचाव के लिए वहाँ शरण देते थे।
ताड़का प्रसंग में कवि ने स्वयंप्रभा के बारे में भी उल्लेख किया है। वे पंक्तियाँ भिन्न में है:
“उसी निचोट सूने क्षेत्र के निकट
आश्रम एक बनाकर
तपस्या में लीन रहती थी
मेरुसावर्ण ऋषि की कन्या
स्वयंप्रभा।”
स्वयंप्रभा के बारे में कामिल बुल्के की ‘रामकथा’ में उल्लेख आता है: हनुमान तथा उसके साथी विन्ध्य की गुफाओं में सीता की खोज करते हुए एक निर्जल तथा निर्जन वन में पहुँच गए। कण्ड ने अपने द्वादश वर्षीय पुत्र की अकाल मृत्यु से शोकातुर हो कर उस प्रदेश को शाप दिया था। इस स्थल पर अंगद ने एक असुर का वध किया। सभी तृप्त वानरों ने विन्ध्य की दक्षिण-पश्चिम कोटि पर ऋक्षबिल नमक गुफा से जल पक्षियों को निकलते देखा। अंगद ने घर पर पहरा देने वाले दानव को मार डाला और सब वानर हनुमान के नेतृत्व में अंधेरी गुफा में प्रवेश कर गए। एक योजन तक आगे बढ़कर उन्होंने एक ज्योतिर्मय सुवर्णनगरी में एक वृद्धा तपस्विनी से भेंट की। उसने अपना परिचय देकर कहा, “मैं मेरुसावर्ण की पुत्री स्वयंप्रभा हूँ, मय नामक दानव ने इस नगर का निर्माण किया था। किन्तु हेमा नामक अप्सरा पर आसक्त हो जाने के कारण इन्द्र ने मय का वध किया था। बाद में ब्रह्मा ने हेमा को यह वन प्रदान किया था और मैं हेमा के लिए इसकी रखवाली करती हूँ; तब स्वयंप्रभा ने वानरों को भोजन दिया और आँखें बंद कर लेने का आदेश देकर वह उनको गुफा से बाहर ले गई। वानरों को विन्ध्याचल तथा समुद्र दिखलाकर उसने पुनः गुफा में प्रवेश किया (सर्ग48-52)।
कंवल भारती ने अपनी पुस्तक “त्रेता विमर्श और दलित चिन्तन” में कवि उद्भ्रांत पर ताड़का वध की पृष्ठ भूमि के बारे में सवाल उठाया है कि ताड़का वध को जाने बिना उसके औचित्य पर विचार करना अनुचित है। इस बात की पुष्टि के तौर पर डॉ. आनन्द प्रकाश दीक्षित ने अपनी पुस्तक “त्रेता एक अंतर्यात्रा” में लिखा है कि किसी रचनाकार/कलाकार का जन्म-स्वीकृत आदेशों में तनिक-सा भी हस्तक्षेप कठिनाइयाँ उपस्थित कर देता है। यहाँ तक कि उदार समाज भी विपरीत आचरण वाले परिवर्तन को इतनी सरलता से स्वीकार नहीं कर पाते। नहीं तो, लेन को की महाराज शिवाजी विषयक पुस्तक, M.F.Hussain के हिन्दू देवी-देवताओं के निर्वस्त्र चित्रों, माइकल मधुसूदन दत्त की “मेघनाथ वध" और भगवान सिंह लिखित उपन्यास “अपने-अपने राम” विवादों के घेरे में नहीं होते।
रामायण के अनुसार अगस्त्य मुनि ने ताड़का के यक्षपति सुन्द की हत्या कर दी थी। वह अपने पति की हत्या का बदला लेना चाहती थी। मगर अगस्त्य के शाप ने उसे राक्षसी बना दिया। तभी से वह अगस्त्य के रहने वाली जगह के इर्द-गिर्द प्रदेश को उजाड़ने लगी। चूँकि ताड़का में एक हज़ार हाथियों का बल था और अगस्त्य मुनि उसका सामना नहीं कर सकते थे। इसलिए उन्होंने अपने शिष्य विश्वामित्र को अयोध्या भेजकर राम को लाने का आदेश दिया था, तो विश्वामित्र ने उन्हें यह कहते हुए समझाया था “villains have no gender, shoot!” तुम्हें स्त्री हत्या का विचार करके दया दिखाने की जरूरत नहीं है। बल्कि गौ और ब्राह्मणों के हित के लिए इस दुराचारिणी का वध करना आवश्यक है। राम तो आख़िर राम ठहरे। वह अपने गुरु की आज्ञा का उल्लंघन कैसे कर सकते थे? राम ने लक्ष्मण के साथ मिलकर अत्यंत ही क्रूरता के साथ ताड़का को मार डाला। इस प्रसंग को देवदत्त पट्टनायक, वीरेंद्र सारंग के उपन्यास “वज्रांगी” के कथानक की तरह अपने विचार प्रस्तुत करते हैं कि दण्डकारण्य की जन-जातियाँ आर्यों के घुसपैठ को रोकना चाहती थीं। क्योंकि वे अपनी सांस्कृतिक शालाएँ और सैनिक छावनियाँ स्थापित कर उस पूरे क्षेत्र को अपने कब्ज़े में करना चाहते थे और इन गतिविधियों के मुखिया अगस्त्य मुनि थे, जो उनको दीक्षित कर अपनी दूरगामी महत्वाकांक्षी योजना को फलीभूत करना चाहते थे, जबकि जनजातीय समुदाय आर्य प्रभुत्व को स्वीकार नहीं कर यक्ष को ध्वस्त करते हुए आश्रमों को उजाड़ देते थे।
एक बात और कंवल भारती ने उठाई है कि अगस्त्य ऋषि ने अपना शाप देकर उसे राक्षसी बना दिया था। महात्मा ज्योतिबा फुले अपनी पुस्तक ‘गुलामगिरी’ में “शाप, मन्त्र, जादू तंत्र” आदि का पूरी तरह खंडन करते हैं। उनके मतानुसार वे अनपढ़ लोगों को अलौकिक शक्ति के प्रदर्शन के प्रति श्रद्धा उत्पन्न कर न केवल उन्हें लूटते हैं वरन उनका आर्थिक शोषण भी करते हैं। क्या विज्ञान में आज तक कभी ऐसा कोई सबूत है कि किसी ने शाप देकर राक्षस, पशु, कोढ़ी, पत्थर आदि बना दिया हो। यह केवल एक आतंक फैलाने वाली चाल है। हुआ कुछ और होगा, मगर उसे अपना वर्चस्व कायम रखने के लिए दूसरा नाम रख दिया। कंवल भारती के अनुसार अगस्त्य मुनि ने ताड़का के चेहरे पर या तो तेजाब डाला होगा या फिर किसी धारदार हथियार से उसके चहेरे को विकृत कर दिया होगा।
इन सब तथ्यों को नकार कर आज तक के फ़िल्म निर्माता, कहानीकार, अथवा कलाकार राम को हीरो बनाने के लिए अथवा राम के जन्म-स्वीकृत हीरो होने का आर्थिक फ़ायदा उठाने के लिए अक्सरतया दूरदर्शन अथवा फ़िल्मों में इस तरह का अंकन किया जाता है कि मानो ताड़का एक विलियन के रूप में ख़तरनाक स्त्री की भूमिका अदा कर रही हो। उदाहरण के तौर पर स्टार प्लस पर दिखाए जा रहे धारावाहिक “सिया के राम” में ताड़का को ताड़ के पेड़ के ऊपर चिपक कर बैठने वाली रक्त पिशाच चमगादड़ के रूप में देवदत्त पट्टनायक जैसे मुख्य कहानी सलाहकार होने के बावजूद भी दिखाया जाता है। जो कि यथार्थ से कोसों दूर है, मगर उसे राम के जीवन के अनछुए प्रसंग के रूप में प्रस्तुत करना भारतीय संस्कृति और मिथकीय इतिहास के साथ न केवल एक खिलवाड़ है वरन् आर्थिक लाभ के लिए उठाया गया एक क्षुद्र क़दम के सिवाय और कुछ क्या हो सकता है? यह कहा जाता है कि “सिया के राम” धारावाहिक बनाने का आइडिया प्रोड्यूसर ने ‘त्रेता’ से ही लिया, जिसे वर्ष 2010 में मुंबई में ‘प्रियदर्शनी सम्मान’ से भी सम्मानित किया गया था और जिस पर बीएन प्रोडक्शन के रवि चोपड़ा सीरियल बनाना चाहते थे, मगर अस्वस्थ हो जाने के कारण नहीं बना सके।
तुलसीदास ने रामचरितमानस में बालकांड के दोहा 209/56 में लिखा है:
“चले जात मुनि दीन्हि दिखाई।सुनि ताड़का क्रोध करि धाई॥
एकहि बान प्राण हरि लिन्हा। दीन जानि तेहि निज पद दीन्हा॥”
जाते-जाते मुनि ने ताड़का राक्षसी दिखा दी, वह राक्षसी उन तीनों का उस रास्ते निकलना सुनकर क्रोधित हो दौड़ी। रामचन्द्र ने एक ही बाण में उसके प्राण हर लिए और उसे ग़रीबनी जान कर निज पद दे दिया।
यदि रामचन्द्र को ईश्वर मान तुलसीदास के ‘ईश’ के बारे में कुछ विचार ही न किया जाए, तब तो ख़ैर कुछ कहना ही नहीं, अन्यथा इसमें कहाँ का आर्य शौर्य है कि निशस्त्र दौड़ी चली आती हुई एक अबला को दूर से ही बाण मारकर उसकी हत्या कर दी गई और आगे फिर यह लिखना, क्या जले पर नमक छिड़कने के समान नहीं है कि उसे ग़रीबनी जान अपना पद अर्थात् बैकुंठ दे दिया?
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- कवि उद्भ्रांत, मिथक और समकालीनता
- पहला सर्ग: त्रेता– एक युगीन विवेचन
- दूसरा सर्ग: रेणुका की त्रासदी
- तीसरा सर्ग: भवानी का संशयग्रस्त मन
- चौथा सर्ग: अनुसूया ने शाप दिया महालक्ष्मी को
- पाँचवाँ सर्ग: कौशल्या का अंतर्द्वंद्व
- छठा सर्ग: सुमित्रा की दूरदर्शिता
- सातवाँ सर्ग: महत्त्वाकांक्षिणी कैकेयी की क्रूरता
- आठवाँ सर्ग: रावण की बहन ताड़का
- नौवां सर्ग: अहिल्या के साथ इंद्र का छल
- दसवाँ सर्ग: मंथरा की कुटिलता
- ग्यारहवाँ सर्ग: श्रुतिकीर्ति को नहीं मिली कीर्ति
- बारहवाँ सर्ग: उर्मिला का तप
- तेरहवाँ सर्ग: माण्डवी की वेदना
- चौदहवाँ सर्ग: शान्ता: स्त्री विमर्श की करुणगाथा
- पंद्रहवाँ सर्ग: सीता का महाआख्यान
- सोलहवाँ सर्ग: शबरी का साहस
- सत्रहवाँ सर्ग: शूर्पणखा की महत्त्वाकांक्षा
- अठारहवाँ सर्ग: पंचकन्या तारा
- उन्नीसवाँ सर्ग: सुरसा की हनुमत परीक्षा
- बीसवाँ सर्ग: रावण की गुप्तचर लंकिनी
- बाईसवाँ सर्ग: मन्दोदरी:नैतिकता का पाठ
- तेइसवाँ सर्ग: सुलोचना का दुख
- चौबीसवाँ सर्ग: धोबिन का सत्य
- पच्चीसवाँ सर्ग: मैं जननी शम्बूक की: दलित विमर्श की महागाथा
- छब्बीसवाँ सर्ग: उपसंहार: त्रेता में कलि
लेखक की कृतियाँ
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