त्रेता: एक सम्यक मूल्यांकन (रचनाकार - दिनेश कुमार माली)
सोलहवाँ सर्ग: शबरी का साहस
कवि उद्भ्रांत के अनुसार शबरी भील जाति की एक आदिवासी महिला थी, जो अपने पति शबर के द्वारा इस दुनिया में अकेले छोड़े जाने की वजह से आस–पास के घरों में काम-काज करके अपना जीवनयापन करती थी। स्त्री ही स्त्री के दुख को जान सकती है और अगर कोई स्त्री विधवा हो जाए, तो उसके जीने का कोई मायने नहीं रहता है, और दलित जाति की स्त्री के लिए तो वह जीवन त्रासदी का पर्यायवाची बन जाता है। कवि की पंक्तियाँ:
“स्त्री यदि
विधवा हो जाए कहीं,
तब तो उसके
जीवित रहने के लिए
अर्थ ही नहीं बचता।
और तनिक कल्पना करो
वैसी स्त्री की
जो आती हो मेरे जैसी
अति वर्गीकृत जाति से।
स्त्री ही होना
पर्याप्त यों तो–
त्रासदी का
बनने को–
पर्यायवाची।”
सूनी माँग, उलझे बिखरे बाल, फूटी चूड़ियाँ, ख़ाली पाँव, नाक में न कोई नथनी और न कान में कोई बूँदें और उसके ऊपर पिछड़ी क्षुद्र जाति में जन्म लेना साक्षात् अमंगल की मूर्ति के सिवाय और क्या हो सकता है? मानों करेले पर नीम, नीम पर ज़हरीला साँप बैठा हो। कवि तो यहाँ तक कह देता है कि एक तुच्छतम घृणित जीव मानो घोर रौरव नरक से चला आया हो। उनके शब्दों में:
“ऐसी स्त्री को
क्या कहेगा समाज यह
कैसा व्यवहार करेगा उससे?
करेले पर नीम,
नीम पर करहल साँप
बैठा हो जैसे!
साक्षात्
अमंगल मूर्ति!
घोर,
रौरव नरक से चला आया
जैसे
तुच्छतम–
एक घृणित जीव!”
शबरी को अच्छे दिन की तरस रहती है और एक बार जब अयोध्या के राजकुमार सीता और लक्ष्मण के साथ वनवास के दौरान उसी रास्ते से गुज़रने की ख़बर सुनकर शबरी रोमांचित हो उठती है। कवि पुरानी मान्यताओं को उजागर करता हुआ कहता है कि राजा तो प्रजा के लिए भगवान तथा राजवधू सीता उसके लिए देवी से कम नहीं है। अगर वे इस रास्ते से गुज़रेंगे तो वह कैसे उनकी अगवानी करेगी? वन में सिवाय भूमि पर पड़े हुए बेर के अलावा कुछ भी तो नहीं था। जहाँ लोग रास्ते के दोनों तरफ़ पुष्पहार, फल व्यंजन और तरह-तरह के उपहार लेकर खड़े हुए थे, वहीं दूसरी तरफ़ शबरी अपने आँचल में टोकरी भर बेर छुपाए कातर भाव से असंख्य लोगों के बीच उनका इंतज़ार कर रही थी। शबरी के कातर-भाव कवि उद्भ्रांत जी के प्रकट किए:
“मैं भी खड़ी हो गई वहाँ
असंख्य लोगों के बीच
आँखों में रामजी की प्रतीक्षा का
लिए हुए कातर भाव
और अपने आँचल में छुपाए हुए
बेर टोकरी भर!
कितने पल बीते
नहीं मुझे पता
किन्तु जैसे कितने ही युग बीते
राम की प्रतीक्षा में!”
जब राम की जय का नारा लगा तो वह पुलकित हो गई, मगर तुरंत ही हतप्रभ होकर चौंक गई कि उसके पास व्यंजन न होकर केवल मीठे बेर हैं और अगर राम ने नहीं खाए तो वह प्राण त्याग देगी। जैसे ही यह बात उसने मंथर गति से चल रहे राम–लक्ष्मण, सीता को कही तो राम ने कौतुकता से मुस्कुराते हुए उससे कहा कि बेर से बढ़कर इस जंगल में मेरे लिए कोई श्रेष्ठ व्यंजन नहीं है। यह कहते हुए राम के बेर लेने आते ही शबरी ने राम का हाथ पकड़कर कहा—रुकें पहले में चख कर देख लेती हूँ कि कहीं बेर खट्टे न हों। मगर आसपास की भीड़ उसे राम को अपवित्र करने की धमकियाँ देते हुए, पीटने तथा धक्का देने लगी। यह देख राम ने सभी के समक्ष उसका पक्ष लेते हुए यह कहा कि—माता शबरी के वत्सल हाथों से मीठे रस में पके बेर खाकर न केवल वे अपने आपको गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं, वरन् पुण्य लाभ के भागी भी बन रहे हैं। राम ही नहीं वरन् सीता और लक्ष्मण को भी यह मीठे बेर खिलाकर उपकृत करें। यह दृश्य “न भूतो न भविष्यति” की तरह था। इस अविस्मरणीय दृश्य को कवि उद्भ्रांत जी अपने निम्न शब्दों में अभिव्यक्त करते हैं:
“क्या करती है बुढ़िया?
तूने अपवित्र
कर दिया राम जी को।”
कहते हुए उनमें से कुछ मुझको
बरजने को,
धक्का देने को,
पीटने को भी लपके मेरी ओर;
किन्तु राम मुस्कराए
उन्हें आँखों के संकेत से ही
रोकते हुए,
मेरी ओर–
प्रेम-करुणा की सम्मिश्रित
दृष्टि की असीमित पूँजी
बरसाते हुए
भाव-विगलित स्वरों में
इस तरह बोले–
“मुझे मिल रहा है पुण्य-लाभ
जन्म मेरा हुआ सार्थक,
माता शबरी के हाथों से ही मैं
मीठे बेर खाकर
यात्रा आगे की करूँगा शुरू।”
कालांतर से शबरी भीलनी दंडकारण्य की तपस्विनी के रूप में अपनी नवधा भक्ति से परिपूर्ण होकर प्रसिद्ध होती चली गई और उसका आश्रम हनुमान, बाली, सुग्रीव की गाथा, सीता के अपहरण, वानरों द्वारा सीता की खोज आदि घटनाओं का साक्षी बना।
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- कवि उद्भ्रांत, मिथक और समकालीनता
- पहला सर्ग: त्रेता– एक युगीन विवेचन
- दूसरा सर्ग: रेणुका की त्रासदी
- तीसरा सर्ग: भवानी का संशयग्रस्त मन
- चौथा सर्ग: अनुसूया ने शाप दिया महालक्ष्मी को
- पाँचवाँ सर्ग: कौशल्या का अंतर्द्वंद्व
- छठा सर्ग: सुमित्रा की दूरदर्शिता
- सातवाँ सर्ग: महत्त्वाकांक्षिणी कैकेयी की क्रूरता
- आठवाँ सर्ग: रावण की बहन ताड़का
- नौवां सर्ग: अहिल्या के साथ इंद्र का छल
- दसवाँ सर्ग: मंथरा की कुटिलता
- ग्यारहवाँ सर्ग: श्रुतिकीर्ति को नहीं मिली कीर्ति
- बारहवाँ सर्ग: उर्मिला का तप
- तेरहवाँ सर्ग: माण्डवी की वेदना
- चौदहवाँ सर्ग: शान्ता: स्त्री विमर्श की करुणगाथा
- पंद्रहवाँ सर्ग: सीता का महाआख्यान
- सोलहवाँ सर्ग: शबरी का साहस
- सत्रहवाँ सर्ग: शूर्पणखा की महत्त्वाकांक्षा
- अठारहवाँ सर्ग: पंचकन्या तारा
- उन्नीसवाँ सर्ग: सुरसा की हनुमत परीक्षा
- बीसवाँ सर्ग: रावण की गुप्तचर लंकिनी
- बाईसवाँ सर्ग: मन्दोदरी:नैतिकता का पाठ
- तेइसवाँ सर्ग: सुलोचना का दुख
- चौबीसवाँ सर्ग: धोबिन का सत्य
- पच्चीसवाँ सर्ग: मैं जननी शम्बूक की: दलित विमर्श की महागाथा
- छब्बीसवाँ सर्ग: उपसंहार: त्रेता में कलि
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