त्रेता: एक सम्यक मूल्यांकन (रचनाकार - दिनेश कुमार माली)
चौबीसवाँ सर्ग: धोबिन का सत्य
कवि उद्भ्रांत ने इस पात्र की मौलिक कल्पना की है। धोबिन एक जातिवाचक शब्द है, जिसका अर्थ है राम के समय हिन्दू धर्म में अनेकानेक जातियाँ व्याप्त थी। इस सर्ग में हिन्दी भाषा का प्रयोग न करके बृज भाषा का प्रयोग ज़्यादा हुआ है। जिसके पीछे उनका उद्देश्य तत्कालीन समाज की लोक प्रचलित भाषाओं को आगे लाने के साथ-साथ उस पात्र को सशक्त बनाने का प्रयास किया है।
अनेक लोगों के मैले-कुचेले कपड़े लेकर धोबिन सरयू नदी के घाट पर उन्हें धोती और नदी में सूरज भगवान की प्रतिमा देखकर ईश्वर की आराधना करती है। उसका पति दिन भर मटरगश्ती करता व ग़लत दोस्तों के साथ चौपड़, जुआ खेलना या फिर पूरे दिन निठ्ठला होकर बैठना, रात में ख़ूब दारू पीना, घर में पत्नी से मार-पीट और गालियों की बरसात करना आदि सारे काम थे। यह कैसा राम राज्य था, जहाँ औरत की कमाई पर पति गुलछर्रे उड़ाता हो? यह सोचकर धोबिन ने राम के जनता दरबार में जाकर अपनी दुःख व्यथा को रखने का निर्णय लिया कि अगर कोई मेरे आदमी की बुद्धि ठीक कर ले तो उससे ज़्यादा उसे और कुछ नहीं चाहिए। धोबिन ने सोचा कि अगर वह घर में एक पहर खाना नहीं बनाएगी तो उसके मर्द की बुद्धि ठिकाने आ जाएगी। यह सोचकर वह अपने पीहर चली गई। मगर माँ ने एक सीख दी कि पति का घर ही ब्याही गई बेटी का असली घर होता है, इसलिए कभी भी बिना बताए उसे नहीं निकलना चाहिए। यह सोचकर जब वह वापस अपने घर लौटी तो उसने देखा उसका पति खाट पर बैठा देशी दारू पिया हुआ है और उसे देखते ही बुरी-बुरी गालियाँ देते हुए कोठरी के भीतर खींचकर ले गया और लात-घूँसों की बरसात करने लगा। “धिक्कार! सारे दिन तुम कहाँ रही थी?” धोबिन के पति ने उससे सवाल किया तो उसने सारी कहानी बता दी कि माँ कि तबीयत ठीक नहीं होने के कारण उसे देखने गई थी। उसकी पोटली में से खाने के सामान के साथ-साथ सोने की गिन्नी गिरी, तो धोबी उसे और ज़्यादा पीटते हुए कहने लगा कि तू सती सावित्री होने पर भी, अग्नि–परीक्षा देने पर भी मैं तुम्हें नहीं रखूँगा। तुम्हारे छिनालपन का प्रमाण मुझे मिल गया। मैं भले ही छोटी जाति का हूँ, मुझे रामचन्द्र समझने की ग़लती मत करना, जिसने अनदेखी नौटंकी अग्नि-परीक्षा की बात कहकर दुश्मन के घर में कई महीने बिताकर आई सीता को फिर से अयोध्या की महारानी बना दिया। मुझे बिना बताकर दिन भर बाहर रहकर अपने प्रेमी के साथ मटरगश्ती कर सोने की गिन्नी लाकर मेरे सामने नाटक कर रही है। जा तू यहाँ से भाग, राजा से मेरी शिकायत कर—यह कहते हुए फिर से उसने धोबिन के पेट पर ज़ोर से लात मार दी।
देखते-देखते यह सारी बात एक साँस से दूसरी साँस, एक कान से दूसरे कान में पहुँचती हुई, राजमहल के धवल पत्थरों की चार दीवारों को लाँघकर सीता-राम के शयन कक्ष में पहुँच गई और इस हवा के अर्थ की गूँज सुनकर सीता फिर से सुनसान जंगल की तरफ़ साँय–साँय करती निकल पड़ी। धोबिन के मन में उसके पति के अत्याचार के विरुद्ध उठ खड़ा होने के लिए गहरा विश्वास पैदा हो रहा था। उसकी दृष्टि में चाहे रामराज्य हो या रावण राज्य, उसे अपने सतीत्व का प्रमाण देना ही होगा, चाहे अग्नि से, नहीं तो जल से, नहीं तो हवा से, आसमान से या फिर इस धरती मैया की मिट्टी से सच का प्रमाण देना ही होगा।
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- कवि उद्भ्रांत, मिथक और समकालीनता
- पहला सर्ग: त्रेता– एक युगीन विवेचन
- दूसरा सर्ग: रेणुका की त्रासदी
- तीसरा सर्ग: भवानी का संशयग्रस्त मन
- चौथा सर्ग: अनुसूया ने शाप दिया महालक्ष्मी को
- पाँचवाँ सर्ग: कौशल्या का अंतर्द्वंद्व
- छठा सर्ग: सुमित्रा की दूरदर्शिता
- सातवाँ सर्ग: महत्त्वाकांक्षिणी कैकेयी की क्रूरता
- आठवाँ सर्ग: रावण की बहन ताड़का
- नौवां सर्ग: अहिल्या के साथ इंद्र का छल
- दसवाँ सर्ग: मंथरा की कुटिलता
- ग्यारहवाँ सर्ग: श्रुतिकीर्ति को नहीं मिली कीर्ति
- बारहवाँ सर्ग: उर्मिला का तप
- तेरहवाँ सर्ग: माण्डवी की वेदना
- चौदहवाँ सर्ग: शान्ता: स्त्री विमर्श की करुणगाथा
- पंद्रहवाँ सर्ग: सीता का महाआख्यान
- सोलहवाँ सर्ग: शबरी का साहस
- सत्रहवाँ सर्ग: शूर्पणखा की महत्त्वाकांक्षा
- अठारहवाँ सर्ग: पंचकन्या तारा
- उन्नीसवाँ सर्ग: सुरसा की हनुमत परीक्षा
- बीसवाँ सर्ग: रावण की गुप्तचर लंकिनी
- बाईसवाँ सर्ग: मन्दोदरी:नैतिकता का पाठ
- तेइसवाँ सर्ग: सुलोचना का दुख
- चौबीसवाँ सर्ग: धोबिन का सत्य
- पच्चीसवाँ सर्ग: मैं जननी शम्बूक की: दलित विमर्श की महागाथा
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