त्रेता: एक सम्यक मूल्यांकन 

त्रेता: एक सम्यक मूल्यांकन   (रचनाकार - दिनेश कुमार माली)

नौवां सर्ग: अहिल्या के साथ इंद्र का छल

 

उद्भ्रांत प्रगतिशील विचारधारा के अग्रणी कवि है। इसलिए उन्होंने इस कविता में अहिल्या को तुलसीदास की अहिल्या से विपरीत रूप दिया है। क्योंकि इस संदर्भ में तुलसी दास ने जो कथा अपने मानस में प्रस्तुत की है, वह न केवल नारी विरोधी है वरन् पुरुष सत्ता को ज़्यादा बढ़ावा देती है। मानस के बालकांड (210/11, 12) में तुलसीदास कहते है:

“आश्रम एक दीख मग माहीं, खग मृग जीव जन्तु तंह नहीं। 
पूछा पुनिही सिला प्रभु देखी, सकल कथा मुनि काही विसेषी॥”(मानस, बाल210/11-12) 

मार्ग में उन्होंने एक आश्रम देखा जिसमें कई पशु-पक्षी और जीव जन्तु नहीं थे, वहाँ एक शिला को देखकर श्री रामचन्द्र ने मुनि से पूछा तो मुनिवर ने सारी कथा विस्तार से कह सुनाई। 

कथा का संक्षेप इतना ही है:

“गौतम नारी श्राप बस उपल देह धरि धीर
चरण कमल रज चाहति कृपा करहु रघुबीर।” (मानस, बालकांड-210) 

हे रघुवीर! गौतम की स्त्री ने शाप के कारण बड़े धीरज से पत्थर का शरीर धारण कर रखा है, यह आपके चरण कमलों के धूल चाहती है, इस पर कृपा कीजिए। 

विस्तृत कथा यह है कि इन्द्र और चंद्रमा ने मिलकर गौतम ऋषि तथा गौतम नारी दोनों को ठगा। गौतम नारी ने इन्द्र को गौतम ऋषि समझकर ही उससे सहवास किया था। बाद में गौतम ऋषि के आने पर इन्द्र से पूछने पर उसे पता लगा कि वह ठगी गई है। असाधारण विकट परिस्थिति में अहिल्या ने झूठ का आश्रय लिया तो ऋषि ने उसे शाप दे दिया कि तू पत्थर हो जा। 

अहिल्या दो अपराधों की अपराधिनी थी, पहला परपुरुषगमन की तथा दूसरा, झूठ बोलने की। परपुरुषगमन उस ने वंचिता हो कर किया था और झूठ बोलने का अपराध भयवश। इन दोनों अपराधों के लिए ही उसे युग युगों तक पाषाण हो कर रहना पड़ा। सारे पौराणिक साहित्य में कोई एक भी ऐसा उदाहरण है जहाँ ऋषिमुनि इस तरह के अपराध के लिए किसी के शाप के कारण पाषाण बन गए हों? युगों-युगों से पत्थर बनी पड़ी रहने के बाद रामचन्द्र के चरण-स्पर्श से जब अहिल्या प्राणवान होती है तो वह प्रार्थना करती है:

“मैं नारि अपावन प्रभु जगपावन रावनरिपु जन सुखदाई”-मानस, बाल 211/छंद2

मैं अपवित्र नारी हूँ और आप जगत को पवित्र करने वाले रावणरिपु हैं और भक्तों को सुख देने वाले हैं। 

सोचने की बात है कि इस अपराध के कारण चंद्रमा अपवित्र नहीं हुआ, वह चंद्र देवता बना रहा। इन्द्र अपवित्र नहीं हुआ, इन्द्र देवता बना रहा, गौतम अपवित्र नहीं हुआ, वह गौतम ऋषि बना रहा। एकमात्र अहिल्या ही अपवित्र हुई, इसके सिवा इसका दूसरा कौन-सा कारण बताया जा सकता है कि वह नारी है? राम लक्ष्मण का जनकपुरी जाना, धनुष तोड़ना, परशुराम संवाद आदि ‘रामचरित मानस’ के अत्यंत प्रसादगुण पूर्ण स्थल हैं। श्री रामचन्द्र जब जनकपुरी जाते है तो वहाँ सीता की सखियों में से एक रामचन्द्र के बारे में विश्वास प्रकट करती हुई कहती है:

“परसि जासु पदपंकज धूरि, तरी अहिल्या कृत अधभूरी। 
सो कि रहिहि बिनु सिव धनु चरें, यह प्रतीत परिहरिअ न भोरें।”-मानस, बाल 223/5-6

जिन रामचन्द्र के चरणकमलों के धूलि लगते ही घोर पापिन अहिल्या भी तर गई, क्या वह शिव के धनुष को तोड़े बिना रहेंगे! यह भरोसा भूल कर भी न छोड़ना चाहिये। 

अब सीता स्वयंवर समाप्त हो चुका है। राजा और रानी प्रेममग्न होकर रामचन्द्र के पवित्र चरणों को धोने लगे। वे चरण कैसे हैं:

“जेपरसि मुनिबनिता लही गति रही जो पातकमई” (-मानस, बाल324/छंद2) 

जिनका स्पर्श कर के मुनि पत्नी अहिल्या जो महा पापमयी थी, वह भी मति पा गई अर्थात् उसका भी उद्धार हुआ या नहीं, यह भी किसी संदेहवादी नास्तिक की जिज्ञासा ही हो सकती है। किन्तु यहाँ प्रश्न यह नहीं है। प्रश्न है कि बिचारी अहिल्या को यहाँ फिर इतनी जल्दी पातकी कहकर क्यों स्मरण किया गया है? उसे छलने वाले चंद्र तथा इन्द्र दोनों देवता बने रहकर पूजे जा रहे हैं? इन दोनों देवताओं द्वारा ठग गया मुनि भी किसी की अवज्ञा का पात्र नहीं बना। तब दोनों देवताओं द्वारा वंचिता अबला एकमात्र अहिल्या ही क्यों पाषाण बनने पर मजबूर हुई? एक ही उत्तर है-वह तुलसी दास के कल्पनालोक की नारी थी। 

अलग-अलग ग्रन्थों में अहिल्या के उद्धार के बारे में तरह-तरह की कहानियाँ देखने को मिलती हैं। वैदिक साहित्य के टीकाकारों ने इसे एक रूपक माना है। ‘अहिल्या भूमि’ अर्थात् जिस भूमि में हल नहीं चलाया गया है, उस भूमि का वर्षा के अधिष्ठाता देवता इन्द्र का सम्बन्ध होना स्वाभाविक प्रतीत होता है। परवर्ती साहित्य में अहिल्या की कथा का पर्याप्त विकास हुआ और उसमें अहिल्या-उद्धार का सम्बन्ध राम से जोड़ा गया। महाभारत में गौतम को अहिल्या का पति माना गया है। वास्तव में वैदिक साहित्य में लिखा है कि इन्द्र अपने को गौतम कहलवाते थे। 

षडबिश ब्राह्मण-इस पुस्तक में एक कथा आती है, जिसमें देवता तथा असुर दोनों युद्ध कर रहे थे, गौतम दोनों सेनाओं के बीच तपस्या कर रहे थे। इन्द्र ने उनसे अपना गुप्तचर बनने का अनुरोध किया, मगर गौतम ने उसे ठुकरा दिया। तब इन्द्र ने गौतम का रूप धारण कर गुप्तचर बनाने का प्रस्ताव रखा, जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। शायद इसी कथा के आधार पर यह माना जाने लगा कि अहिल्या के पति का नाम गौतम ही था और इंद्र को अहिल्या जार नाम से पुकारा जाने लगा। 

वाल्मीकि उत्तराकांड में इस संदर्भ में एक दूसरा वृत्तांत प्रस्तुत किया है। उसके अनुसार ब्रह्मा ने दूसरे प्राणियों के सर्वश्रेष्ठ अंग लेकर एक ऐसी स्त्री का निर्माण किया, जिसमें ‘हला’ (कुरूपता) का पूरी तरह अभाव था। इसलिए उसका नाम अहिल्या रखा। इन्द्र अहिल्या की अभिलाषा करते थे, मगर ब्रह्मा ने इसे धरोहर के रूप में गौतम ऋषि के यहाँ रखा। बहुत वर्षों के बाद गौतम ने उसे ब्रह्मा को लौटाया और ब्रह्मा ने तपस्वी गौतम ऋषि की सिद्धि को देखकर उसे पत्नी स्वरूप प्रदान किया। 

हरिवंश पुराण के अनुसार वघ्यश्व और मेनका की दो संतानें थीं, दिविदास और अहिल्या। अहिल्या ने गौतम की पत्नी बनकर शतानंद को जन्म दिया। ब्रह्म पुराण इस संदर्भ में कुछ और ही बात कहता है। उसके अनुसार अहिल्या को प्राप्त करने के लिए यह शर्त रखी थी कि जो देवता पृथ्वी की परिक्रमा करके सबसे पहले मेरे पास आए, उसे अहिल्या दी जाएगी। समस्त देवता पृथ्वी की परिक्रमा करने निकले, मगर गौतम ने अर्धप्रसूता सुरभि तथा शिव-लिंग की प्रदक्षिणा की और अहिल्या को प्राप्त किया। 

पउंमचरियं के अनुसार अहिल्या जवालानसिंह और वेगवती की पुत्री है। जिसने अपने स्वयंवर के अवसर पर राजा इन्द्र को ठुकराकर राजा नंदिमाली (अथवा आनंदमालाकार) को चुन लिया था। बाद में नंदिमाली का वैराग्य हुआ और उन्होंने दीक्षा ली। किसी दिन इन्द्र ने उस ध्यानस्थ नंदिमाली को बाँधा था, जिसका परिणाम यह हुआ कि इन्द्र रावण से हार गये। पाश्चात्य वृत्तांत में अहिल्या को भूल से विश्वामित्र की पत्नी माना गया है। स्कन्द पुराण और महाभारत में गौतम के पुत्र चिरकारी का उदाहरण प्रस्तुत होता है, जो अपने पिता गौतम के आदेश को ठुकरा देता है कि वह अहिल्या की व्यभिचारिणी होने के कारण हत्या करे। चिरकारी की दृष्टि में उसकी माँ निर्दोष थी, क्योंकि इन्द्र गौतम की अनुपस्थिति में रूप बदलकर अहिल्या के पास गए थे। असमिया बालकांड, रंगनाथ रामायण, के अनुसार गौतम की तपस्या में विध्न डालने के उद्देश्य से इस कृत्य को अन्जाम दिया था। ‘ब्रह्मवैब्रतपुराण’ इन्द्र को दुराचारी तथा अहिल्या को निर्दोष मानती है। कीर्तिवास रामायण, के अनुसार इन्द्र गौतम का प्रियतम शिष्य था। इसी तरह गौतम के शाप के कई रूप मिलते हैं। 

महाभारत के अनुसार इन्द्र की दाढ़ी पीली होने, वाल्मीकि उत्तरकाण्ड के अनुसार मेघनाद द्वारा इन्द्र को हराने तथा मनुष्य के पापों का आधा दोष इन्द्र को मिलने, वाल्मीकि बालकांड में इन्द्र को नंपुसक होने, बलराम दास, कंबन रामायण, पदमपुराण के अनुसार सहस्रनयन बनने जैसे अभिशापों का उल्लेख मिलता है। महाभारत में अहिल्या को कोई अभिशाप नहीं मिलता है। पाषाणभूता अहिल्या का उल्लेख सबसे पहले रघुवंश और आगे चलकर नरसिंह पुराण, स्कन्ध पुराण, महानाटक, सारलादासकृत महाभारत, गणेश पुराण अभी में मिलता है। वाल्मीकि के बालकांड में गौतम यह कहते हैं कि राम का आथित्य सत्कार करने के पश्चात तुम पूर्ववत अपना शरीर धारण कर मेरे पास आओगी अर्थात् वपुरधरियिष्यसि। शायद यहीं से अहिल्या के शिला बनने की धारणा पैदा होती है। 

रामकियेन के अनुसार गौतम ने यह अभिशाप इसलिए दिया था कि रामावतार के समय वह सेतु बनाने में काम आए और सदा-सदा के लिए सागर में दफ़ना दिया जाए। गौतम का एक शाप जिसके अनुसार अहिल्या शुष्क नदी बन गई थी, (शुष्कनदी भव) कम प्रचलित है। 

एक कथा के अनुसार अहिल्या की पुत्री अंजना का उल्लेख मिलता है। जब गौतम ने अपनी दिव्यदृष्टि से अहिल्या के व्यभिचार के बारे में जाना तो उसने अहिल्या से असलियत के बारे में पूछा। अहिल्या ने उत्तर दिया यह मार्ज़ार है, इसके दो अर्थ हैं। इन्द्र के दो रूप धारण करने अथवा माँ के जार होना। इस पर वह अहिल्या का शिला बनने तथा इन्द्र को सहस्रयोनि बनने का अभिशाप देते है। किवदंती के अनुसार अहिल्या और गौतम के दो पुत्र बाली और सुंग्रीव होते हैं। 

अध्यात्म रामायण के रचयिता ‘पाषाणभूता अहिल्या’ की कथा के रूप में अहिल्या को शिला पर खड़ी होकर तपस्या करने से जोड़ा है। इस तरह अहिल्या उद्धार की एक प्रसिद्ध पौराणिक कथा ब्राह्मण ग्रन्थों के अहिल्या जार इन्द्र से प्रारम्भ होकर अनेक रूप धारण करती हुई अहिल्या तारक राम की भक्ति में विलीन हो जाती है। नाटककारों ने राम की कथा को बदलाने में किसी भी तरह का कोई संकोच नहीं किया है। जानकी परिणय में अहिल्या उद्धार की कथा इस प्रकार आती है कि जब राम मायावी सीता के प्राण संकट में देखकर चट्टान से कूदकर अत्महत्या करना चाहते है तो राम के स्पर्श से चट्टान से प्रकट होकर अहिल्या राम को इस राक्षसी माया का रहस्य बताती है। 

यूरोपियन स्कॉलर इन्द्र की तुलना ग्रीक मिथक जिउस (zeus) से करते हैं। दोनों आकाश के देवता है और स्त्रियों से प्रेम सम्बन्धों के लिए प्रसिद्ध हैं। जिउस नेवला, सूर्य की किरण या उनके पतियों के छद्म रूप धारण कर अनेकानेक राजकुमारियों तथा निंफ (nymph) के साथ बलात्कार करते हैं और अनेकानेक पोरसेउस (Porseus) और हरकुलस (Hercules) जैसे बड़े नायकों को जन्म देते हैं। कुछ आलोचक पुरुषों को आकाश, संस्कृति तथा स्त्रियों को पृथ्वी संस्कृति से जोड़ते हैं तो कुछ देव संस्कृति और आर्य संस्कृति के सम्बन्धों के प्रतीक के रूप में देखते हैं। 

नरेंद्र कोहली ने अपने उपन्यास ‘रामकथा’ में अहिल्या और गौतम की कथा को एक नए रूप में आधुनिक समय के सापेक्ष रखने का प्रयास किया है। जिस तरह कवि उद्भ्रांत अहिल्या के बारे में अपनी बात रखते है कि गौतम और अहिल्या के बीच काफ़ी प्रेम था। मगर एक बार पड़ोसी राजा इन्द्र को अपने यहाँ रुकने का न्यौता देकर अपने पारिवारिक जीवन में आग लगा दी। इन्द्र पास के सुरपुर राजा का नरेश था। वह अहिल्या को देखकर मोहित हो गया। गौतम ऋषि की अनुपस्थिति में अपने मन की कुत्सित मुराद पूरी करने के लिए अमावस्या की रात में गौतम का वेश धारण कर अहिल्या के पास जाने का प्रयास किया। मगर अहिल्या की छठी इंद्रिय ने इन्द्र के इरादों को भाँप लिया और उसे बाहर निकलने का इशारा दिया, मगर तभी गौतम ऋषि के प्रवेश ने उसे स्तम्म्भित कर कोप भाजन का शिकार बना दिया। गौतम ऋषि के मन में अपने पत्नी के प्रति संशय पैदा हुआ और उसे शिला की तरह निस्पंद एकांतवाश में ज़िदगी जीने के लिए अकेला छोड़ दिया। तत्कालीन रूढ़िग्रस्त समाज में निरपराध स्त्रियों की स्थिति अच्छी नहीं थी। उन्हें समाज से निष्कासित कर दिया जाता था। जब राम अपने स्थान से नहीं हिलने वाली अहिल्या के संपर्क में आए तो फिर से अहिल्या को सामाजिक स्वीकृति मिल गई। उद्भ्रांत जी लिखते हैं:

“मैं अवाक्‌ सुन रही थी
राजा इंद्र के वचन। 
 
कुछ भी कहना उचित नहीं जान मैंने
तर्जनी उठा दी द्वार की ओर
इंद्र को संकेत देते हुए
बाहर जाने का। 
 
और देखा गौतम ऋषि
द्वार पर खड़े थे
आँखों में लाल अंगारे लिए/
 
मेरे क्रुद्ध संकेत पर ही इंद्र
वापसी के लिए भूल चुके थे
ऋषिवर को देखकर-
क्षण भर को सहमे
फिर तीव्र गति से निकल गए
बाहर।” 

नरेंद्र कोहली उद्भ्रांत जी के इस तथ्य को दूसरी निगाहों से देखते हैं। उस ज़माने में आश्रम, आधुनिक स्कूल अथवा विश्वविद्यालय के प्रतीक ये और ऋषि कुलपतियों की तरह उन संस्थानों के विभागाध्यक्ष होते थे। नरेंद्र कोहली अपने उपन्यास की अंतर्वस्तु में इन्द्र को पड़ोसी देश का राजा बताते हुए गौतम ने वहाँ शरण दी थी। अहिल्या अपने ज्वर पीड़ित पुत्र शत के साथ सो रही थी, मगर इन्द्र के कामुक मन ने अत्यंत रूपवती स्त्री को देखकर उसे एक कंगाल ऋषि से जुड़ी रहकर कष्ट भोगना व्यर्थ माना। इन्द्र गौतम के यहाँ आतिथ्य स्वीकार कर मदिरा पान करते हुए गौतम ऋषि की अनुपस्थिति में अहिल्या को अकेले देख उसका भोग करना चाहते थे। अहिल्या नींद में थी, मगर उस अनजान स्पर्श को अच्छी तरह अनुभव कर पा रही थी। जब अहिल्या की मुख से छींक निकली और उसका बेटा शत ज़ोर-ज़ोर से रोने लगा। आस-पड़ोस के लोग इकट्ठे हो गए, उस समय गौतम ऋषि अपनी कुटिया में लौटे तो इन्द्र ने निर्लज्ज दुष्टता के साथ एक वाक्य भीड़ की ओर उछाल दिया, “पहले तो स्वयं बुला लिया और अब नाटक कर रही है” – यह कहते हुए वह अपने विमान में बैठकर अपने देश चला गया। विश्वामित्र द्वारा राम लक्ष्मण को यह कहानी सुनाने के पीछे न केवल जीवन में संघर्ष की भूमिका वरन् जन-मानस में अन्याय के रूप को स्पष्ट कर उसके विरुद्ध आक्रोश भड़काना, क्रांति की पृष्ठभूमि प्रस्तुत करना होगा। यदि एक स्त्री परपुरुष को काम आह्वान देती है और पुरुष उसे स्वीकार कर उसके पास आता है तो समाज उसके लिए स्त्री को ही दोषी ठहराएगा, इन्द्र ने ऐसे ही चाल चली है। अहिल्या को लांछित कर वह अपने आतिथेय ऋषि की पत्नी के साथ बलात्कार जैसे गंभीर अपराध तथा पाप को छिपा जाना चाहता है। गौतम ऋषि ने अहिल्या के अपमान की बात ऋषि समाज के समक्ष रखी तथा उनसे देव संस्कृति के पूज्य और ऋषियों के संरक्षक पद से दु:श्चरित्र इन्द्र को पदच्युत करने का आह्वान किया, मगर भले ही, एक वर्ग अहिल्या को निर्दोष मानता था, फिर भी तो उसका सतीत्व भंग हो चुका था। इन्द्र को दंड देने या न देने से अहिल्या का उद्धार नहीं हो सकता था। सामाजिक प्रतिष्ठा के अवमूल्यन के कारण गौतम ऋषि के आश्रम के कुलपति रहने पर तरह-तरह के सवाल उठने लगे। सवाल ये उठता है कि अगर कोई पापी आदमी किसी निर्बल नारी के साथ अत्याचार करता है तो क्या उसके आश्रम भी भ्रष्ट हो जाएँगे? केवल इस आधार पर जिस पर अत्याचार हुआ है, वह स्त्री है। यही नहीं, जहाँ भी गौतम जाएँगे तो उसकी तरफ़ हर व्यक्ति के मन में इन्द्र की भोग्या अहिल्या की तरह उस पर उँगली उठेगी और जब उसका बेटा बड़ा हो जाएगा, तब भी समाज उस पर छींटाकशी करने से बाज़ नहीं आएगा। इस तरह की दुर्घटनाएँ पद की शक्ति, धन की शक्ति, सत्ता की शक्ति को सर्वोपरि ठहराते हुए जन सामान्य में सत्ता धारी वर्ग के विरुद्ध खड़ा होने के लिए तैयार नहीं कर पाती। ज्ञान, यश और सम्मान के क्षेत्र में अग्रणी गौतम ऋषि जैसे नागरिकों के अस्तित्व को ख़तरे में डाल देता है, जो न केवल उनके विकास वरन् भविष्य का भी भक्षण करती है, ऐसे ही विचारों से अहिल्या ने गौतम ऋषि को दूसरे प्रदेश भेजकर स्वयं को भूमिगत कर एकाकी जीवन जीने के लिए बाध्य किया। जब राम जैसे महान पुरुषों ने विश्वामित्र के कहने पर उस परित्यक्त आश्रम को खोजकर अहिल्या का उद्धार किया तो फिर से उसे मानवीय समाज में असंपृक्त, एकाकी, जड़वत, शिलावत जीवन जीने से मुक्त होकर सामाजिक मर्यादा को प्राप्त किया। राम का संरक्षण पाने पर जड़-चिंतक, ऋषि, मुनि, पुरोहित, ब्राह्मण समाज नियंताओं ने अहिल्या को सामाजिक और नैतिक स्तर पर अपराधी मानना बंद कर दिया। 

इस संदर्भ में अगर कंवल भारती की बात को अगर छोड़ा जाए तो यह कड़ी अपूर्ण रह जाएगी। वे इसे आर्य और देव संस्कृति के सम्बन्ध के रूप में मानते है। रामायण की अहिल्या निर्दोष नहीं है। रामायण के अनुसार, जब महर्षि गौतम आश्रम पर नहीं थे, शचिपति इन्द्र गौतम मुनि का वेश धारण कर वहाँ गया और अहिल्या से बोला, “सदा सावधान रहने वाली सुंदरी! रति की इच्छा रखने वाले प्रार्थी पुरुष ऋतुकाल की प्रतीक्षा नहीं करते हैं। सुंदर कटि प्रदेश वाली सुंदरी। मैं तुम्हारे साथ समागम करना चाहता हूँ।” अहिल्या ने मुनि के वेश में भी इन्द्र को पहचान लिया। ‘अहो! देवराज इन्द्र मुझे (भोगना) चाहते हैं’ कौतूहलवश उसने उसके साथ समागम करने का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। रति के पश्चात अहिल्या ने कहा, “मैं आपके समागम से कृतार्थ हो गई, अब आप गौतम के आने से पहले ही शीघ्र चले जाइए और मेरी रक्षा कीजिए।” 

तब इन्द्र ने भी अहिल्या से कहा, “सुंदरी! मैं भी संतुष्ट हो गया। अब जैसे आया था। उसी तरह चला जाऊँगा।” इसी समय गौतम आ गए और दोनों को देख लिया। तत्काल इन्द्र को शाप दे दिया कि उसके अंडकोष गिर जाए और वह अंडकोष रहित हो गया। इसके बाद उन्होंने अहिल्या को शाप दे दिया। दुराचारिणी! तू यहाँ कई हज़ारों वर्षों तक केवल हवा पीकर या उपवास करके कष्ट उठाती हुई राख में पड़ी रहेगी और समस्त प्राणियों से अदृश्य रहकर इस आश्रम में निवास करेगी। बाद में इन्द्र के अनुरोध पर पितृ देवताओं ने भेड़ के अंडकोष लगाकर इन्द्र का तो उद्धार कर दिया, पर अहिल्या का उद्धार राम ने उसके चरण छूकर किया। इस कथा से निम्नलिखित प्रश्न उभरते हैं:

  1. इन्द्र ने यह क्यों कहा कि रति की इच्छवाले पुरुष ऋतुकाल की प्रतीक्षा नहीं करते हैं? 

  2. अहिल्या ने मुनिवेश में भी इन्द्र को कैसे पहचान लिया? 

  3. इन्द्र को पहचानने के बाद अहिल्या ने यह क्यों कहा कि अहो, देवराज मुझे भोगना चाहते हैं? 

  4. अहिल्या ने इन्द्र का प्रस्ताव क्यों स्वीकार किया? 

  5. संभोग के बाद अहिल्या ने ऐसा क्यों कहा कि मैं आपके समागम से कृतार्थ हो गयी? 

  6. संभोग के बाद अहिल्या ने इन्द्र को तुरंत भाग जाने के लिए क्यों कहा? 

  7. भदेत आनन्द कौसल्यायन विश्वामित्र के गुरुकुल में रहने वाले राम लक्ष्मण की युगलमूर्ति का किसी स्त्री को पाषाण मूर्ति तक को स्पर्श करने को दूसरी दृष्टि से देखते है। अगर स्पर्श करना ही था तो हाथ से क्या किया नहीं जा सकता था? वहाँ क्या ‘पग धुरी’ होना अपेक्षित थी। 

“मुनि तिय तरी लगत पग धुरी, किरति रही भुवन भरी पूरी” 

इन प्रश्नों का एक ही उत्तर है कि अहिल्या और देवराज इन्द्र के बीच परस्थर सहमति से शारीरिक सम्बन्ध बने थे। इन्द्र ने अहिल्या को इसलिए पहचान लिया था, क्योंकि उसे पहले से ही उसके मुनिवेश में आने की सूचना थी। अहिल्या स्वयं इन्द्र से संभोग करने को इच्छुक थी। इसलिए उसने इन्द्र का प्रस्ताव स्वीकार किया और संभोग के बाद दोनों को ही पूर्ण संतुष्टि मिली। 

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