त्रेता: एक सम्यक मूल्यांकन (रचनाकार - दिनेश कुमार माली)
दसवाँ सर्ग: मंथरा की कुटिलता
दसवें सर्ग मंथरा में कवि उद्भ्रांत ने अपनी मौलिक कल्पना करते हुए, मंथरा को कैकेयी की दासी न बताकर बचपन की ख़ास सहेली बताया है। उसके पिता कैकेय-नरेश के विश्वस्त भृत्य थे। बचपन से ही वह कूबड़ी थी। कवि के शब्दों में:
“कैकय प्रदेश की
सुंदर राजकुमारी कैकेयी की
मैं बालसखी।
बाल्यकाल से ही
उसके साथ उठी-बैठी
खेलकूद किया।
मेरे पिता कैकय नरेश के थे
भृत्य अतिविश्वस्त।”
अपनी तार्किक बुद्धि से उद्भ्रांत कैकेयी के द्वारा यह कहलवाना चाहते हैं कि मंथरा के पेट में बहुत अधिक रहस्य छिपे होने के कारण जब वह उनका उद्घाटन करना चाहती होगी, तो अधिक बल लगाने के कारण वह कुब्जा हो गयी होगी। मंथरा कैकेयी की सारी महत्वकांक्षाओं, गोपनीय बातें तथा उसके मनोविज्ञान को अच्छी तरह से जानती थी कि एक युवा राजकुमारी का वयोवृद्ध राजा दशरथ के साथ बेमेल विवाह होने पर उसका भावनात्मक संबल टूटता देख उसने मन ही मन यह निर्णय कर लिया था कि किसी भी तरह समय आने पर अपनी सर्वप्रिय बाल-सखी को उसका अधिकार दिलाकर रहेगी। उद्भ्रांत जी लिखते हैं:
“इसलिए अयोध्या के वयोवृद्ध
महाराजा दशरथ जब
उसका पाणिग्रहण कर
ले चले अयोध्या में,
तभी मुझे लगा
उसका भीतर से
विदीर्ण हो चुका हृदय
मुझे साथ लिए बिना
शांत न हो सकेगा।”
इस वजह से अयोध्या के राजमहल के रनिवास में चलने वाले सूक्ष्म घात-प्रतिघातों के चक्रों को समझने का प्रयास करती थी और समर प्रांगण में महाराज दशरथ से मिले दो वचन को क्रियान्वित करने की मंत्रणा हेतु संकल्पबद्ध थी। पहला–शासन की डोर भरत के हाथ में हो, दूसरा-राम को चौदह वर्ष का वनवास मिले। समय आने पर उसने अपने षड्यंत्र को सफल अंजाम दिया। भले ही, उसकी इस कुमंत्रणा ने जहाँ महाराज दशरथ के चमचमाते सूर्यवंशी मुकुट को चकनाचूर कर दिया, वहीं केकैयी को विधवा बना दिया। इस सर्ग में कवि कहते हैं:
“अलग बात है कि
इस इस भयंकर षड्यंत्र ने
महाराज दशरथ के
सपनों को ही नहीं
उनके दिव्य, चमचमाते
सूर्यवंशी मुकुट धारण किए
मस्तिष्क को भी
चकनाचूर किया!”
कवि उद्भ्रांत ने मंथरा शब्द की उत्पत्ति के पीछे मंत्रणा, मंथर गति तथा जैसे शब्दों से जोड़ने का प्रयास किया है और कूबड़ को व्यंग्य रूप में अधोगामी विचारों का प्रतीक बताया है।
“मंथरा नहीं
मंत्रणा था नाम मेरा, क्योंकि-
मेरी बुद्धि तीक्ष्ण
कठिन अवसरों पर
ढूँढ़ लेती थी समाधान युक्तिपूर्ण।
मेरी मंत्रणा के बिना
कोई कार्य कैकयी
न करती कभी।”
भदंत आनन्द कौसल्यायन ने अपने आलेख “राम चरित मानस में नारी” में मंथरा को कैकेयी के अपयश को बाँटने के लिए तुलसीदास द्वारा उसका चरित्र खड़ा किया है। जिसके अनुसार कैकेयी के अपयश का कुछ हिस्सा सरस्वती ले लेती है, तो कुछ हिस्सा मंथरा ले लेती है। लिखा है:
“नाम मंथरा मदमति चेरी कैकइ केरि।
अजस पिटारी ताहि करी गई गिरा मति फेरि॥12॥”
–अयोध्या कांड, राम चरित मानस
कैकेयी की एक मंद बुद्धि वाली दासी थी, जिसका नाम मंथरा था। उसे अपयश की पिटारी बना कर सरस्वती उसकी बुद्धि फेर गई।
देवताओं में ब्रह्मा शुक्ल पक्ष का प्रतीक है और कामदेव कृष्ण पक्ष का। पता नहीं देवियों में सरस्वती के मुक़ाबले किसी कृष्णपक्षी देवी की कल्पना क्यों नहीं की गई? यह काम सरस्वती से न लिया जाता तो अच्छा था। अब मंथरा की करतूत देखिये:
“करइ विचार कुबुद्धि कुजाती। होइ अकाजू कवनि बिधि राति॥
देखी लागि मधु कुटिल किराती। जिमी गवँ तकई लेउँ कोहि भाँति॥
भरत मातु पहि गई बिलखानी। का अनमनि हसि कह हँसि रानी॥
उतरु देइ न लेइ उसांसू। नारि चरित करि ढारइ आँसू॥”
–अयोध्या कांड, राम चरित मानस
खोटी बुद्धि वाली और नीच जाति वाली मंथरा विचार करने लगी कि रात ही रात में यह काम कैसे बिगाड़ा जाए? जिस तरह कुटिल भीलनी शहद के छत्ते को लगा देख कर अपना मौक़ा ताकती है कि इस को किस तरह ले लूँ। वह बिलखती हुई भरत की माता कैकेयी के पास गई। उसको देखकर कैकेयी ने कहा कि आज तू उदास क्यों है? मंथरा कुछ जवाब नहीं देती और लंबी साँस खींचती है और स्त्री चरित्र करके आँखों से आँसू टपकाती है।
इन चौपाइयों में खोटी जाति वाली मंथरा की उपमा देते समय तुलसी दास ने इस बात का विचार नहीं किया है कि सारी की सारी किरात जाति की स्त्रियों को कुटिल कह देना कहाँ तक ठीक है? इसका मात्र समाधान यही हो सकता है कि उन्होंने तो मात्र मधुलोलुप किराती को ही कुटिल कहा है। तब इसी प्रकार मंथरा के आँसू टपकाने को भी तो सर्वसाधारण नारियों का चरित्र कह कर कुछ कम आपत्तिजनक स्थिति नहीं रहने दी है। स्वयं कैकेयी भी, जिस की बुद्धि अभी स्थिर है, कह रही है:
“काने खोरे कूबरे कुटिल कुचाली जानि।
तिय विसेषि पुनि चेरी कहि भरतमातु मुसुकानि॥”
—मानस, अयोध्या कांड (14)
काने, लँगड़े, कुबड़े-ये बड़े कुटिल और कुचाली होते हैं और उनमें भी स्त्री और विशेष रूप से दासी—ऐसे कहकर भरत की माता मुस्काई।
विनोद में कही हुई बात में भी प्रायः सर्वथा स्वार्थ नहीं होता। यहाँ कैकेयी के मुख से भी प्रकृत स्त्रियों के सम्बन्ध में तुलसी दास की जो प्रतिक्रियावादी मान्यताएँ हैं, उन्होंने ही अभिव्यक्ति पाई प्रतीत होती है।
किन्तु कुछ ही देर में कैकेयी मंथरा के वशीभूत हो जाती है। तुलसी दास कहते है:
“गूढ़ कपट प्रिय बचन सुनि तीय अधरबुधि रानि।
सुरमाया बस बैरिनिहि सुहृद जानि पतिआनि॥16॥”
स्त्रियों की बुद्धि होंठों में होती है अर्थात् वह बातों में आकर चल-विचल हो जाया करती है। तदनुसार रानी कैकेयी ने गुप्त कपट भरे, प्यारे वचनों को सुनकर, देवताओं की माया के वश में हो कर भी मंथरा को अपना हितैषी जानकर उसका विश्वास नहीं किया।
यहाँ मंथरा भी दोषी है, देवताओं की माया भी दोषी है। किन्तु इस सबको दोष की क्या आवश्यकता? जब तुलसीदास के अनुसार स्त्रियों की बुद्धि होंठों में ही होती है अर्थात् वे बातों में आकर चल-विचल हो जाया करती हैं। स्त्रियों के बारे में कितनी दरिद्र सम्मति है? बातों में आकर तो समय-समय पर सभी चल-विचल हो जाया करते हैं:
“जद्यपि नीति निपुण नर नाहू,
नारी चरित जलनिधि अवगाहु।”
—मानस, अयोध्याकांड (27)
यद्यपि नरनाथ दशरथ राजनीति में दक्ष थे, परन्तु स्त्री चरित्र रूपी समुद्र अथाह है।
उस युग में जब राज्य किसी भी राजा की व्यक्तिगत सम्पत्ति समझा जाता था और उसे राजा जिसे चाहे दे सकता था। पत्नी आसक्त वृद्ध दशरथ से कोई भी विवेकपूर्ण निर्णय करने के लिए किसी अथाह समुद्र की आवश्यकता नहीं थी।
रामचरित मानस (2/14) में तुलसी दास जी ने लिखा कि विकृत शरीर में विकृत मन का निवास होता है अर्थात:
“काने, खोरे, कूबरे, कुटिल कुचली जानी।
तिय विसेषि पुनि चेरी कहि, भरतमातु मुसुकानी”॥
—मानस, अयोध्याकांड (14)
स्वस्थ शरीर का मन भी स्वस्थ होता है। स्वस्थ मन से अभिप्राय विकार रहित मन से होता है। शारीरिक स्वस्थता के लिए उसकी स्वच्छता अनिवार्य है। शरीरस्थ मल निवारण से शरीर स्वच्छ एवं स्वस्थ रहता है। शास्त्रों में द्वादश मलों का वर्णन मिलता है।
मगर वाल्मीकीय रामायण (अयोध्या काण्ड) के अनुसार मंथरा एक श्रेष्ठ सुंदर और आकर्षक स्त्री थी। उसकी जाँघें विस्तृत, दोनों स्तन सुंदर और स्थल उसका मुख निर्मल चंद्रमा के समान अद्भुत शोभायमान और करधनी की लड़ियों से विभूषित उसकी कटि का अग्रभाग बहुत ही स्वच्छ था। उसकी पिंडलियाँ परस्पर सटी हुई थी और दोनों पैर बड़े-बड़े थे। वह जब रेशमी साड़ी पहनकर चलती थी, तो उसकी बड़ी शोभा होती थी। इस शारीरिक सुंदरता के साथ–साथ वह बुद्धि में भी श्रेष्ठ थी। बुद्धि के द्वारा किसी कार्य का निश्चय करने में उसका कोई सानी नहीं था। मति, स्मृति, बुद्धि, क्षत्रविद्या, राजनीति और नाना प्रकार की मायाएँ (विद्याएँ) उसमें निवास करती थी।
मंथरा द्वारा कैकेयी के भड़काये जाने का वाल्मीकि रामायण के दाक्षिणात्य पाठ में कोई विशेष कारण नहीं दिया गया है। अन्य वृत्तान्तों में इसके लिए भिन्न-भिन्न कारणों की कल्पना की गई है।
1. महाभारत के रामोपाख्यान में जब राम की सहायता करने के लिए देवताओं द्वारा रीछों तथा वानरों की स्त्रियों से पुत्र उत्पन्न करने का उल्लेख किया गया है, गंधर्व दुंदुभि के मंथरा के रूप में प्रकट होने की चर्चा मिलती है। पद्मपुराण के पाताल खण्ड के गौड़ीय पाठ, आनन्द रामायण, कृतिवास रामायण, वसुदेवकृत रामकथा आदि में भी इसका निर्देश किया गया है। तोरवे रामायण में मंथरा को विष्णुमाया का अवतार माना गाया है। बलराम दास के अनुसार मंथरा वास्तव में गोमाता सुरभि है जिसे देवताओं ने पृथ्वी पर भेजा था।
2. बाद के अनेक वृतन्तों में मंथरा को मोहित करने के लिए सरस्वती के भेजे जाने का वर्णन मिलता है। भावार्थ रामायण के अनुसार ब्रह्मा ने मंथरा के मन में ईर्ष्या उत्पन्न करने के उद्देश्य से विकल्प को भेजा था।
3. वाल्मीकि रामायण में शत्रुघ्न राम के निर्वासन के कारण मंथरा को पीटते हैं। बाद में राम द्वारा मंथरा का उत्पीड़न वनवास का कारण बताया गया है।
“पादौ गृहित्वा रामेण कर्षिता ताड़पराधतः।
तेन वैरेन सा राम वनवास च काक्षति॥(अग्निपुराण, अध्याय-5)
4. वाल्मीकि रामायण के उदीच्य पाठ पूर्व की कुछ हस्तलिपियों में मंथरा के पूर्ववैर का उल्लेख इस प्रकार है:
“रामे सा निरिचता पापा पूर्व बैरमनुस्मरन।
कस्मिरिचदपराधे हि क्षिणता रामेण सा पूरा।
चरणेण क्षिति प्रणता तस्मादैरमनुत्तमम॥”
(द. बड़ौदा संस्करण, अयोध्याकाण्ड, सर्ग 7, 9)
“रामायणमंजरी” में भी राम के प्रति मंथरा के बैर का कारण उलेखित है:
“शैशवे किल रामने पूरा प्रणयकोपतः।
चरणोनाहता तत्र चिरकोप्भुवाह सा॥(1.667)”
बलराम दास के अनुसार मंथरा ने विवाह के अवसर पर राम का उपहास किया था और राम ने उसे पीटा था। कंबन रामायण में इसका उल्लेख मिलता है कि लड़कपन में राम ने मिट्टी के ढेलों को अपने धनुष पर चढ़ाकर मंथरा के कुबड़ पर मारा था।
तेलुगू रंगनाथ रामायण के अनुसार राम ने बचपन में मंथरा की एक टाँग को तोड़ दिया था, सेरी राम और रामकियेन के अनुसार राम ने उसके कुब्ज में बाण चलाया था। तेलुगू भास्कर रामायण में माना गया है कि राम ने मंथरा को लात मारी थी।
5. रामप्योपाख्यान के अनुसार मंथरा ने पूर्व-जन्म के बैर के कारण राम को वनवास दिलाया था। वह दैत्य विरोचन की पुत्री थी और दैत्य-देवता युद्ध में उसने पाशों से देवताओं के विमान और वाहन बाँधे थे। इस पर विष्णु की आज्ञा से इन्द्र ने उसे वज्र द्वारा मारा था।
मंथरा के अगले जन्म का भी उल्लेख किया गया है। आनन्द रामायण के अनुसार वह कृष्णावतार के समय पूतना के रूप में प्रकट होगी और कृष्ण द्वारा मार डाली जायेगी, लेकिन इस रचना के अन्य स्थल पर कहा गया है कि वह कंस के यहाँ कुब्जा के रूप में अवतार लेगी।
श्री रंगनाथ रामायण के तेलुगू संस्करण में राम और मंथरा की कहानी का उल्लेख बालकाण्ड में मिलता है। राम जब गुल्ली-डंडा खेल रहे थे तो अचानक मंथरा ने उसकी गुल्ली को दूर फेंक दिया, तो राम ने ग़ुस्से में आकर डंडा मंथरा की ओर फेंका जिससे उसका घुटना टूट गया। कैकेयी ने यह बात महाराज दशरथ को बतायी तो उन्होंने राम और अन्य पुत्रों को गुरुकुल में पढ़ने के लिए भेजने का निर्णय लिया। तभी से मंथरा के मन में राम के प्रति प्रतिशोध लेने की भावना पैदा हो गयी और वह हमेशा मौक़े की तलाश में रहती थी।
राम के वनवास के बाद रामायण में मंथरा केवल एक बार दिखाई देती है। कैकेयी से महँगे-महँगे कपड़े और जवाहरात इनाम के रूप में प्राप्त कर महलों के बग़ीचे में घूमते हुए देखकर शत्रुघ्न क्रोधवश उसपर जानलेवा हमला कर देता हैं। उसको बचाने के लिए कैकेयी भरत से प्रार्थना करती है।
समस्याओं की जड़ इच्छाएँ होती हैं और इच्छाएँ डर से पैदा होती हैं। मंथरा को अपना डर है और कैकेयी को अपना डर, दोनों राम के राज्य अभिषेक के परिणामों से भयभीत है और असन्तुष्ट भी।
साहित्यकारों के अनुसार, रामकथा में चरित्र विधान के तहत मुख्यपात्र के व्यक्तित्व को उभरने के लिए मंथरा का गठन किया गया। वास्तव में मंथरा में कैकेयी के अन्तस के भय को प्रकट किया हैं। कई श्रुतियों के अनुसार मंथरा और कैकेयी द्वारा राम को जंगल में भेजकर राक्षसों का अंत करना ही उद्देश्य था। आधुनिक प्रबंधन गुरुओं के अनुसार किसी भी संस्था में शक्ति के अलग-अलग स्तर होते हैं। उन स्तरों को पाने के लिए कुछ लोग अपनी बुद्धि का इस्तेमाल करते हैं, तो कुछ लोग अपने संबंधों का प्रयोग करते हैं। प्रकृति में शक्तिशाली व्यक्ति ही नेतृत्व के योग्य होता हैं। रामकथा के अनुसार न केवल राम वरिष्ठ थे वरन् बुद्धिमान और ताक़तवर भी थे। अतः राज सिहांसान के सही हक़दार थे। हिन्दू दर्शन के अनुसार प्रत्येक घटनाएँ प्रारब्ध का फल होती हैं। राम का वनवास जाना भी उनके भाग्य का विधान है। मंथरा और कैकेयी को दोष देना अनुचित है, क्योंकि वे तो कर्मसाधक मात्र हैं।
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- कवि उद्भ्रांत, मिथक और समकालीनता
- पहला सर्ग: त्रेता– एक युगीन विवेचन
- दूसरा सर्ग: रेणुका की त्रासदी
- तीसरा सर्ग: भवानी का संशयग्रस्त मन
- चौथा सर्ग: अनुसूया ने शाप दिया महालक्ष्मी को
- पाँचवाँ सर्ग: कौशल्या का अंतर्द्वंद्व
- छठा सर्ग: सुमित्रा की दूरदर्शिता
- सातवाँ सर्ग: महत्त्वाकांक्षिणी कैकेयी की क्रूरता
- आठवाँ सर्ग: रावण की बहन ताड़का
- नौवां सर्ग: अहिल्या के साथ इंद्र का छल
- दसवाँ सर्ग: मंथरा की कुटिलता
- ग्यारहवाँ सर्ग: श्रुतिकीर्ति को नहीं मिली कीर्ति
- बारहवाँ सर्ग: उर्मिला का तप
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- चौदहवाँ सर्ग: शान्ता: स्त्री विमर्श की करुणगाथा
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- सोलहवाँ सर्ग: शबरी का साहस
- सत्रहवाँ सर्ग: शूर्पणखा की महत्त्वाकांक्षा
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