त्रेता: एक सम्यक मूल्यांकन (रचनाकार - दिनेश कुमार माली)
ग्यारहवाँ सर्ग: श्रुतिकीर्ति को नहीं मिली कीर्ति
श्रुतिकीर्ति को ग्याहरवें सर्ग में महाराज कुशीध्वज की सबसे छोटी पुत्री बताया है। कुशीध्वज के अग्रज महाराज जनक ने उसके विलक्षण गुणों को देखते हूए दूर-दूर तक उसकी कीर्ति व्याप्त होगी, शायद यही सोचकर उसका नाम श्रुतिकीर्ति रखा। कवि की भाषा में:
“मैं श्रुतिकीर्ति
सबसे छोटी पुत्री
महाराज कुशीध्वज की
इसलिए लाड़ली भी सर्वाधिक।
महाराज पिता ने
अपने अग्रज
महाराज जनक की सलाह से
नामकरण मेरा किया।”
उसे शास्त्र श्रुतियाँ जल्दी से कंठस्थ हो जाती थी, वेदाध्ययन में वह सबसे आगे रहती थी। माण्डवी और उर्मिला उसकी दो बहनें थी। वह चंचल, चपल और शरारती भी थी। बड़ी बहन सीता के स्वयंवर में अपने पिता के साथ जनकपुर में पहुँची थी और शिव धनुष भंजन न होता देख वह काफ़ी दुखी हो रही थी। उद्भ्रांत जी इस संदर्भ में कहना चाहते हैं:
“ताऊजी ने रखी थी
जो शर्त सीता-स्वयंवर की
उसे सुन
हम तीनों बहने भी मायूस थीं।
और वह मायूसी बढ़ी
शिव-धनु के भंजन में
निष्फल देख—
बड़े बड़े योद्धा को”
मगर जब रामचन्द्र जी ने उस धनुष को तोड़ दिया तो वे सभी आनंद अतिरेक से उमड़ पड़ी। इसी घटना के बाद उसी राज घराने में तीनों राजकुमारियों का विवाह हुआ। महाराज दशरथ की सबसे छोटी पुत्रवधू बनकर सूर्यवंशी राजघराने को सामाजिक दृष्टि से उन्नत किया। शत्रुघ्न की पत्नी होने के कारण सभी उन्हें ख़ूब प्यार करते थे। कौशल्या और कैकेई भी। शत्रुघ्न की प्रकृति लक्ष्मण की तरह महाक्रोधी थी। वह कैकेयी को जीवनभर क्षमा नहीं कर सका, यहाँ तक कि उनका व्यवहार असहज हो गया, जो कि रघुवंशी स्त्रियों के भाग्य की विडम्बना थी।
“रघुवंशी स्त्रियों की नियति में
लिखी हुई थी विडंबना बड़ी,
रानी, महारानी हों
या हों पुत्रवधुएँ वे।
मैं उससे
वंचित कैसे होती।”
‘कल्याण’ के नारी अंक के अनुसार मांडवी और श्रुति कीर्ति, राजा जनक के भाई कुशीध्वज की कन्याएँ थी और उर्मिला साक्षात् राजा जनक की पुत्री थी। जनक के साले का नाम क्षीरध्वज था। श्रुति कीर्ति को राम के वनवास जाने की अप्रत्याशित घटना से बहुत पीड़ा हुई थी। मगर उसमें इतनी शालीनता थी, कि वह उस बात का विरोध न कर सकी। वे देवतुल्य जेठ का वनवास, अपनी लक्ष्मी-सी बहन का तपस्विनी बनकर वन में जाना आदि ऐसी बातें थीं जिनको याद करके उनका कोमल हृदय क्षणभर के लिए भी चैन नहीं पाता था। मगर उस आंतरिक वेदना को अंतर्यामी के सिवाय और कोई देख न सके। सीता वन में रहकर पति के समीप थी मगर मांडवी, उर्मिला और श्रुति कीर्ति महल के भीतर रहकर भी पति से दूर, अत्यन्त दूर थी। इनमें भी अंतर इतना ही था कि मांडवी और श्रुति कीर्ति को नन्दी ग्राम से पति के समाचार मिलते रहते थे, मगर उर्मिला के भाग्य में यह भी नहीं था। श्रुति कीर्ति के दो पुत्र थे एक का नाम सुबाहू था और दूसरे का नाम शत्रुघाती। सुबाहू मथुरा के राजा हुए और शत्रुघाती वैदिशा नगर के। जिस तरह भरत तीनों भाई श्री रामचन्द्र जी के साथ सरयू के गो प्रतार घाट में डुबकी लगाकर परम धाम को पधार गए, उसी तरह मांडवी, उर्मिला, श्रुति कीर्ति भी पतियों के साथ सरयू में गोता लगाकर उन्हीं लोगों को प्राप्त हुई।
कँवल भारती के अनुसार एक साधारण स्त्री भी अपने अपमान के ख़िलाफ़ विद्रोह की किसी भी सीमा तक जा सकती है, बशर्त उसमें अपने अपमान का बोध हो। मंथरा को अपने अपमान का बोध था, परन्तु यह बोध श्रुति कीर्ति में देखने को नहीं मिला। शायद यही वजह है श्रुति कीर्ति को गुमनामी का जीवन जीना पड़ा। उनके अनुसार ‘त्रेता’ में स्त्री विमर्श के नाम पर उद्भ्रांत को कुछ भी नहीं मिला। केवल विरह वेदना को उभारने के सिवाय, मगर यह बात सही नहीं है।
शत्रुघ्न की उपेक्षा के कारण बिचारी निर्दोष निरीह श्रुति कीर्ति रामकथा में युगों तक अश्रुतकीर्ति बनकर रह गई। लेकिन ध्यान रखने योग्य बात यह है कि वह उपेक्षित होकर भी मध्यकालीन नायिकाओं के समान विरह में या अपने दुर्भाग्य पर आठ–आठ आँसू बहाना तो दूर एक आँसू भी नहीं टपकाती है। डॉ. आनन्द प्रकाश दीक्षित के अनुसार उद्भ्रांत नए ज़माने के कवि हैं। उनके समय का स्त्री-विमर्श नारी को अबला नहीं मानता। वह सबला है, आत्मनिर्भर है तो रोना और दीन होना कैसा? उद्भ्रांत रामकथा और त्रेता युग को नए ज़माने के प्रकाश में देख रहे हैं। स्वाभाविक है कि उनकी नारियाँ सब सहन करेगी या विद्रोहिनी होगी, खुलकर रोएगी नहीं, प्रिय की मृत्यु पर रोना बिलकुल अलग बात है।
देवदत्त पटनायक की पुस्तक ‘सीता रामायण’ के अनुसार वैदिक ज़माने में शादी का अर्थ केवल आदमी और औरत का मिलन नहीं होता था। बल्कि दो नई संस्कृतियों को जोड़ने का अवसर प्रदान करना था, जिस कारण नए-नए रीति-रिवाज़, आस्था, विश्वास जन्म ले सके। भारत में शादी के रीति-रिवाज़ कृषि-कर्म के प्रतीक थे जो आधुनिक मनुष्य को असंगत लग सकते हैं कि पुरुष किसान की तरह बीज बोता है और स्त्री उस बीज को पोषण करती है। तमिलनाडु, आन्ध्रप्रदेश, कर्नाटक में लाल चन्दन की लकड़ी के आदमी पुरुषों के खिलौने लड़कियों को उनके प्रथम रजोधर्म अथवा उनके शादी के समय दिये जाते हैं। राजा-रानी के यह खिलौने नवरात्रि के त्योहारों में शुभ-लाभ के प्रतीक हैं।
जनक के चरित्र का निर्माण करने में वाल्मीकि का सीधा-सादा सवाल तत्कालीन राजाओं, किसानों और ग्वालों की बुद्धिहीन भौतिकवादिता पर उठाना है। जनक की पुत्रियों की ख़ुशियाँ, वस्तुओं से नहीं विचारों से प्रदान करने की आशा की जाती है।
सीता का घर (मिथला), राम का घर (अयोध्या) के दक्षिण में है, और अयोध्या कृष्ण की मथुरा के दक्षिण में है। ये तीनों चित्र गंगा के मैदानों के हैं, सांस्कृतिक तौर पर अलग-अलग। जहाँ मिथला ग्रामीण कलाशिल्प से संबंधित है, वहीं अवध या अयोध्या शहरीकरण का केन्द्रबिन्दु है। जबकि ब्रज या बृज पार्थिव भक्ति का केन्द्र है। तीनों क्षेत्रों की अलग-अलग बोलियाँ है। जैसे मैथिली, अवधी और बृजभाषा। अनेक स्कॉलर राम को अवतारी राम से अलग समझते हैं। बालकाण्ड और उत्तरकाण्ड को बाद में लिखा हुआ मानते हैं। यद्यपि रामायण का जादू आदमी को अपनी दिव्यता की पहचान करने का संघर्ष है। क्या हम अपने अहम से ऊपर उठकर आत्मा को जान सकते है? क्या अहम स्वार्थ है या आत्मा सत्य है? लेकिन राम या दिव्य राम में कौन ज़्यादा प्रिय है? इस तरह हर किसी के जीवन में इस अनिश्चित जगत में निश्चित जीवन जीने का एक प्रश्न उठता है।
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- कवि उद्भ्रांत, मिथक और समकालीनता
- पहला सर्ग: त्रेता– एक युगीन विवेचन
- दूसरा सर्ग: रेणुका की त्रासदी
- तीसरा सर्ग: भवानी का संशयग्रस्त मन
- चौथा सर्ग: अनुसूया ने शाप दिया महालक्ष्मी को
- पाँचवाँ सर्ग: कौशल्या का अंतर्द्वंद्व
- छठा सर्ग: सुमित्रा की दूरदर्शिता
- सातवाँ सर्ग: महत्त्वाकांक्षिणी कैकेयी की क्रूरता
- आठवाँ सर्ग: रावण की बहन ताड़का
- नौवां सर्ग: अहिल्या के साथ इंद्र का छल
- दसवाँ सर्ग: मंथरा की कुटिलता
- ग्यारहवाँ सर्ग: श्रुतिकीर्ति को नहीं मिली कीर्ति
- बारहवाँ सर्ग: उर्मिला का तप
- तेरहवाँ सर्ग: माण्डवी की वेदना
- चौदहवाँ सर्ग: शान्ता: स्त्री विमर्श की करुणगाथा
- पंद्रहवाँ सर्ग: सीता का महाआख्यान
- सोलहवाँ सर्ग: शबरी का साहस
- सत्रहवाँ सर्ग: शूर्पणखा की महत्त्वाकांक्षा
- अठारहवाँ सर्ग: पंचकन्या तारा
- उन्नीसवाँ सर्ग: सुरसा की हनुमत परीक्षा
- बीसवाँ सर्ग: रावण की गुप्तचर लंकिनी
- बाईसवाँ सर्ग: मन्दोदरी:नैतिकता का पाठ
- तेइसवाँ सर्ग: सुलोचना का दुख
- चौबीसवाँ सर्ग: धोबिन का सत्य
- पच्चीसवाँ सर्ग: मैं जननी शम्बूक की: दलित विमर्श की महागाथा
- छब्बीसवाँ सर्ग: उपसंहार: त्रेता में कलि
लेखक की कृतियाँ
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