त्रेता: एक सम्यक मूल्यांकन (रचनाकार - दिनेश कुमार माली)
उन्नीसवाँ सर्ग: सुरसा की हनुमत परीक्षा
कवि उद्भ्रांत ने सुरसा के चरित्र का वर्णन करने के लिए सुरपुर के नरेश इंद्र को सीता के अपहरण की घटना के बारे में जानकारी होने तथा अपनी दत्तक पुत्री स्वयंप्रभा द्वारा सीता की खोज हेतु वन में तपश्चर्या में लीन होने, गिद्धराज जटायु के बड़े भाई सम्पाति के माध्यम से लंका के अशोक वन में सीता का पता लगाने पर जामवंत के परामर्श, किष्किन्धा नरेश सुग्रीव के मित्र हनुमान द्वारा लंका जाने के लिये समुद्र की उड़ान आदि घटनाओं को लेकर सुरसा का परिचय बताया है कि सुरपुर के नरेश इंद्र को रावण के शक्तिशाली होने की चिंता सता रही थी। यही नहीं रावण के पुत्र मेघनाद ने भी धोखे से इन्द्र को परास्त किया था। इसके अतिरिक्त, लंका के चारों तरफ़ एक अभेद्य दुर्ग है, गुप्तचरों का विशाल तंत्र है और अगर हनुमान असफल हो गए, तो अनर्थ हो जाएगा। इसलिए हनुमान की शक्ति, बुद्धिमत्ता के परीक्षण हेतु सुरसा को इंद्र ने समुद्र में जलपोत लेकर भेजा। कवि उद्भ्रांत जी की कल्पना यहाँ पर इस तरह हैं:
“चाहता हूँ आओ जाओ तुम
वेश बदलकर अपना
और परीक्षण करो
हनुमत की शक्ति-बुद्धिमता का।”
“तुमने यदि वापस आ
कर दिया आश्वस्त मुझे
तभी चैन की निद्रा
ले पाऊँगा मैं।”
वायुगति से तैरते हुए हनुमान को रोक कर लंका जाने के उद्देश्य के बारे में समुद्र रक्षक के रूप में अपना परिचय देते हुए पूछा, तो हनुमान जी ने कहा मैं जल में हूँ और मुझमें है जल, प्राणवायु मुझमें आती जाती है लोग मुझे वायुपुत्र भी कहते हैं और मैं सीता की खोज में निकला हूँ। इन आध्यात्मिक भावों की अभिव्यक्ति कवि के शब्दों में:
हनुमान बोले-
“मैं जल में हूँ
क्योंकि मुझ में है जल
श्वासरूपी हवा मुझमें
आती-जाती है;
अस्तु, वायु-पुत्र भी मुझे तुम कह सकती;
रामजी की पत्नी सीताजी को
लंकाधीश रावण ले गया है अपहरण कर,
जा रहा-
मैं उनके कार्य के निमित्त।”
तो सुरसा ने उसे समुद्रों के बड़े-बड़े मगरमच्छों तथा लंका नगरी में लंका के विकट राक्षसों का डर दिखाया। अब हनुमान ने उत्तर दिया कि उसे सोने का न तो कोई लोभ है और न ही राक्षसों का भय। तब सुरसा ने स्त्रियोचित वशीकरण विद्या का प्रयोग करते हुए अपने अप्रतिम सौंदर्य की ओर ध्यान आकृष्ट करने का प्रयास किया। मगर हनुमान के प्रति सम्मोहन की सुरसा की चेष्टा, विरत तृष्णा, इंद्रिय-निग्रह, बाल-ब्रह्मचारी हनुमान के समक्ष तृणवत थी। कवि उद्भ्रांत जी इसे इन शब्दों में प्रकट करते हैं:
नहीं ज्ञात था मुझे कि
हनुमान स्वयं एक सिद्ध योगी,
मेरे सम्मोहन का
नहीं उन पर
पड़ा कोई भी प्रभाव,
उन्होंने प्रति-सम्मोहन मुझ पर किया
और कहा,
“माता! तुम हो विराट तृष्णा की तरह किन्तु,
इंद्रिय-निग्रह करने वाले व्यक्ति के समक्ष
तुम तृणवत हो।”
ये सब परीक्षा होने के बाद सुरसा को इस बात का ज्ञान हो गया था कि लंका भेदने में हनुमान को अवश्य सफलता मिलेगी। यह कहते हुए उसने हनुमान को आशीर्वाद दिया कि आने वाला युग तुम्हारा कृतज्ञ होगा, तुम्हारी पूजा करेगा। ये पंक्तियाँ देखें:
“उसमें तुम उत्तीर्ण हुए शत-प्रतिशत,
तुम्हें देती हूँ मैं आशीर्वाद
अपने कार्य में तुम
सफल पूर्ण होओगे;
और वह भी इस तरह-
जगत तुम्हारे नाम
और काम को भी
रखेगा हमेशा स्मरण।”
इसमें कवि उद्भ्रांत ने सुरसा को जलपोत द्वारा भेजने तथा हनुमान के वायुगति से समुद्र तैरने की कथा को आधुनिक दृष्टि देते हुए, अपनी मौलिकता के साथ-साथ मिथकीय चरित्रों में अलौकिकता का वर्णन किए बग़ैर अपने वैज्ञानिक दृष्टिकोण को पाठकों के सम्मुख रखा है।
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- कवि उद्भ्रांत, मिथक और समकालीनता
- पहला सर्ग: त्रेता– एक युगीन विवेचन
- दूसरा सर्ग: रेणुका की त्रासदी
- तीसरा सर्ग: भवानी का संशयग्रस्त मन
- चौथा सर्ग: अनुसूया ने शाप दिया महालक्ष्मी को
- पाँचवाँ सर्ग: कौशल्या का अंतर्द्वंद्व
- छठा सर्ग: सुमित्रा की दूरदर्शिता
- सातवाँ सर्ग: महत्त्वाकांक्षिणी कैकेयी की क्रूरता
- आठवाँ सर्ग: रावण की बहन ताड़का
- नौवां सर्ग: अहिल्या के साथ इंद्र का छल
- दसवाँ सर्ग: मंथरा की कुटिलता
- ग्यारहवाँ सर्ग: श्रुतिकीर्ति को नहीं मिली कीर्ति
- बारहवाँ सर्ग: उर्मिला का तप
- तेरहवाँ सर्ग: माण्डवी की वेदना
- चौदहवाँ सर्ग: शान्ता: स्त्री विमर्श की करुणगाथा
- पंद्रहवाँ सर्ग: सीता का महाआख्यान
- सोलहवाँ सर्ग: शबरी का साहस
- सत्रहवाँ सर्ग: शूर्पणखा की महत्त्वाकांक्षा
- अठारहवाँ सर्ग: पंचकन्या तारा
- उन्नीसवाँ सर्ग: सुरसा की हनुमत परीक्षा
- बीसवाँ सर्ग: रावण की गुप्तचर लंकिनी
- बाईसवाँ सर्ग: मन्दोदरी:नैतिकता का पाठ
- तेइसवाँ सर्ग: सुलोचना का दुख
- चौबीसवाँ सर्ग: धोबिन का सत्य
- पच्चीसवाँ सर्ग: मैं जननी शम्बूक की: दलित विमर्श की महागाथा
- छब्बीसवाँ सर्ग: उपसंहार: त्रेता में कलि
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