त्रेता: एक सम्यक मूल्यांकन (रचनाकार - दिनेश कुमार माली)
पहला सर्ग: त्रेता– एक युगीन विवेचनत्रेता: एक युगीन विवेचन
विश्व परिप्रेक्ष्य में रामायण:
पारंपरिक आस्थाओं के अनुसार जितनी रामायणों के बारे में हमें जानकारी है, सब एक दूसरे की या तो पूरक है या फिर एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं। अगर हम ध्यानपूर्वक अपने शास्त्रों का अध्ययन करते हैं तो यह पाते हैं कि अलग-अलग रामायणों में अलग-अलग कथानकों, वृत्तांतों अथवा दृष्टांतों का उल्लेख मिलता है। भगवान शिव ने जिस रामायण का वर्णन किया है, उसमें सौ हज़ार श्लोक हैं। हनुमान के रामायण में साठ हज़ार, वाल्मीकि के रामायण में चौबीस हज़ार और दूसरे कवियों ने इससे कम श्लोकों के रामायणों की रचना की है। अकादमिक विज्ञान वर्ग वाले अधिकांश रामायण को रामकथा अर्थात् राम की अनौपचारिक कहानी मानते हैं, जबकि एक कवि अथवा लेखक द्वारा औपचारिक रूप से लिखे गए कथानकों पर बहुत कम ध्यान देते हैं। जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है कि बहुत सारी रामकथाएँ या रामायण ऐसी हैं, जो एक दूसरे को कुछ हद तक प्रभावित करती हैं। विगत दो शताब्दियों से यूरोप और अमेरिकन स्कॉलर रामायण पर शोधात्मक अध्ययन अलग-अलग तरीक़े से कर रहे हैं। दुर्लभ रामायणों के अनुवादों का संग्रह कर रहे हैं ताकि रामायण के सुनिश्चित नतीजों को सर्वसुलभ कराया जा सके। जहाँ यूरोपियन स्कॉलर रामायण को नस्लवाद के रूप से देखते हुए औपनिवेशिक काल में शासक के दृष्टिकोण पर ध्यानाकर्षण करते हैं, जैसे आर्य बनाम द्रविड़, उत्तर बनाम दक्षिण, वैष्णव बनाम शैव, पुजारी बनाम राजा आदि, वैसे अमेरिकी विचारक औपनिवेशिक काल के बाद रक्षक की दृष्टि से देखते हुए रामायण के मुख्य कारक जैसे लिंग-भेद अथवा जातीय-संघर्ष, जिसकी वजह से मनुष्य एक राक्षस बनने पर किस तरह आमादा हो जाता है, उन कारणों का विश्लेषण करने के साथ-साथ सामंतवादी शब्दों में अगर कहा जाए तो भक्ति का रूप देखते हैं, जबकि भारतीय शोधार्थी अपने नायकों और देवताओं को न्याय-संगत बताने के चक्कर में प्रतिरक्षात्मक रवैये को अपनाने का प्रयास करते हैं। यही नहीं, आधुनिक स्कॉलर रामायण का सटीक वर्गीकरण करने में भी अपने आपको अक्षम पाते हैं, क्या रामायण वास्तव में ऐतिहासिक ग्रंथ है (जैसाकि दक्षिणपंथी स्कॉलर मानते हैं)? क्या यह समाज के लिए उठाया गया साहित्यिक प्रोपेगंडा है (जैसा कि वामपंथी विचारक मानते हैं)? इसके अलावा, क्या वास्तव में यह भगवान की कहानी हैं, जिसे भक्तगण मानते हैं? क्या केवल मानवीय मस्तिष्क का कपोल कल्पित ख़ाका है, जिससे आदर्श मानवीय व्यवहार को अभिव्यक्त करने का प्रयास किया गया है? रामायण की अनेक गाथाओं का विश्लेषण करने पर तीन महत्त्वपूर्ण दृष्टिकोण सामने आते हैं:
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पहला-आधुनिक दृष्टिकोण–जिसके अनुसार वाल्मीकि की संस्कृत में लिखी रामायण मान्यता प्राप्त है।
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दूसरा-आधुनिकोत्तर दृष्टिकोण–जिसके अनुसार सभी रामायणों की मान्यता बराबर बराबर है।
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तीसरा-आधुनिकोत्तरोत्तर दृष्टिकोण–इस दृष्टिकोण के अनुसार विश्वास करने वाले के दृष्टिकोण का स्वागत होना चाहिए।
कुछ आलोचक भारतीय मानसिकता पर हज़ारों सालों से असर डालने वाली इस महाकथा को असंगत (इररेशनल) मानते हैं, जबकि आधुनिक शिक्षा का उद्देश्य समाज को संगत (रेशनल) बनाना है। सन् 1987 में रामानंद सागर द्वारा निर्मित ‘रामायण’ पर आधारित सीरियल को जब प्रत्येक रविवार की सुबह दिखाया जाता था तो समूचा देश उस समय के लिए जड़-सा हो जाता था। जहाँ राम जन्मभूमि विवाद ने राष्ट्र के पंथ-निरपेक्ष हृदय को पूरी तरह से कुचल दिया था, वहीं 2013 में इसे भारतीय औरतों की दयनीय अवस्था का प्रमुख कारण माना। इतना होने पर इस महाकाव्य को आधार बनाकर राजनेताओं द्वारा फ़ायदा उठाने, नारीवादी लेखक-लेखिकाओं द्वारा आलोचनात्मक तथ्य खोजने और एकेडेमीशियन द्वारा विखण्डित (deconstructed) मानने के बावजूद भी आज भी लाखों लोगों में आशा व आनंद संचरण करने का स्रोत माना जाता है।
रामायण के साहित्य का चार कालों में अध्ययन किया जा सकता है। पहला काल दूसरी शताब्दी तक का वह है, जब वाल्मीकि रामायण का अंतिम रूप लगभग तैयार हो गया था। दूसरा काल (दूसरी शताब्दी से लेकर दसवीं शताब्दी तक) का है, जब संस्कृत, प्राकृत भाषाओं में अनेकानेक नाटकों तथा कविताओं की रचना हुई। इस काल में बौद्ध तथा जैन परंपराओं में भी राम को खोजने का प्रयास कर सकते हैं, मगर पौराणिक साहित्य में राम को विष्णु के रूप में देखा जा सकता है। तीसरा काल दसवीं शताब्दी के बाद का है, जब इस्लाम के बढ़ते वर्चस्व के ख़िलाफ़ रामायण जन-सामान्य की ज़ुबान का ग्रंथ बन गया। इस काल में ‘रामायण’ ज़्यादा भक्तिपरक नज़र आया, जिसमें राम को भगवान तथा हनुमान को सबसे प्रिय भक्त एवं दास बताया गया। अंत में, चौथे काल में उन्नीसवीं शताब्दी से रामायण यूरोपियन एवं अमेरिकन दृष्टिकोण से बहुत ज़्यादा प्रभावित होने लगी और आधुनिक राजनैतिक व्यवस्थाओं के आधार पर उचित न्याय पाने के लिए रामायण में Deconstruction, Reimagination तथा decoding शुरू हो गई।
ईसा पूर्व (500 बी.सी. से लेकर 200 बी.सी. तक) रामकथा मौखिक रूप से यात्रा करती रही है। अनंतर, यह संस्कृत भाषा में रची गई, जिसे लेखन का रूप दिया वाल्मीकि ने, और जिसे आदि काव्य अर्थात् पारम्परिक तौर पर प्रथम कविता के रूप में गिना जाता है। परवर्ती सारे कवि वाल्मीकि को राम की कविता का जनक मानते है। वाल्मीकि के इस कार्य को यायावर (घुमक्कड़) जातियों ने चारों तरफ़ फैलाया। उनके इस मौलिक काव्य में मुख्य दो रूप से कार्य प्राप्त होते हैं, पहला उत्तर और दूसरा दक्षिण। पहले सात अध्यायों में राम का बचपन और अंतिम अध्यायों में राम द्वारा सीता का परित्याग दर्शाया गया है। तत्कालीन ब्राह्मणों ने इस कथा को संस्कृत में लिखने का घोर विरोध किया, मगर मौखिक परंपरा (श्रुति) को जारी रखा, जबकि बौद्ध और जैन स्कॉलरों ने मौखिक शब्दों की तुलना में लिखना ज़्यादा पसंद किया। इससे इस अनुमान को बल मिलता है कि पहली बार रामकथा का उल्लेख पाली और प्राकृत भाषा में किया गया। प्रांतीय रामायणों की रचना की शुरूआत दसवीं सदी के बाद होती है। सबसे पहले दक्षिण भारत में बारहवीं सदी में, फिर पूर्वी भारत में पंद्रह सदी में तथा बाद में 16वीं शताब्दी में उत्तर भारत में प्रांतीय रामायणों की रचना हुई। महिलाओं की अधिकांश रामायण मौखिक होती थी। उनका मुख्य उद्देश्य घरेलू परंपराओं तथा अन्य पर्वों पर आधारित गानों में प्रयोग करना होता था। यद्यपि यह बात भी सही है कि सोलहवीं शताब्दी में दो महिलाओं ने रामायण लिखी—तेलुगु में मोआ तथा बंगाली में चंद्रावती ने। रामायण लिखने वाले अधिकांश पुरुष लेखक अलग-अलग गतिविधियों से सम्बन्ध रखते थे। बुद्ध रेड्डी (ज़मींदार घर से), बलराम दास और सारला दास (पिछड़ी जाति से) तथा कंबन मंदिर में संगीत बजाने वाली जातियों से संपृक्त थे। सोलहवीं शताब्दी में मुग़ल सम्राट अकबर ने अपनी जनता की संस्कृति का ध्यान रखते हुए रामायण का अनुवाद संस्कृत से पर्शियन में करने का आदेश दिया तथा चित्रकारों को इस महाकाव्य को पर्शियन तकनीकी का प्रयोग करते हुए रेखांकित करने का भी हुक्मनामा जारी किया। रामायण के ये सारे चित्र राजस्थान, पंजाब, हिमाचल प्रदेश के राजाओं के महलों की नक़्क़ाशी में आसानी से देखे जा सकते हैं।
भारत में आज भी अनेक गाँव और ऐसे क़स्बे हैं, जो रामायणकालीन घटनाओं की याद दिलाते हैं। उदाहरण के तौर पर मुंबई का ‘बाणगंगा तालाब’ राम के बाण से ख़ुदा हुआ तालाब माना जाता है। भारत में अधिकांश अवसरों पर राम के गीत गाए जाते हैं, कहानियाँ सुनी-सुनायी जाती हैं, नाटकों का प्रदर्शन किया जाता है, अथवा कपड़ों की पेंटिंग या मंदिर की दीवारों पर भास्कर्य के रूप में त्रेताकालीन घटनाओं का ब्योरा प्रस्तुत किया जाता है अथवा उन घटनाओं का वाचन भी किया जाता है। प्रत्येक कला का अपना अलग-अलग महत्त्व होता है। आज के उत्तरप्रदेश के देवगढ़ मंदिर के गुप्त साम्राज्य के दौरान सोलहवीं शताब्दी के आस-पास के समय की राम की iconography भी मिलती है, जिनमें राम को विष्णु के मानव-अवतार के रूप में दिखाया गया है। सत्रहवीं शताब्दी में पहली बार तमिलनाडु के अलावर भक्तों ने राम से सम्बन्धित भक्ति गीतों की रचना की। जैसा कि सर्व विदित है, बारहवीं शताब्दी में भक्ति के ज्ञान के द्वार सामान्य-जन के लिए पूरी तरह से खोले गए थे और संस्कृत कमेंटरी के रूप में वेदान्त-दर्शन के अनुरूप राम भक्ति को विशिष्ट स्थान प्रदान किया गया। चौदहवीं शताब्दी में उत्तर भारत में रामानन्द ने रामभक्ति का प्रचार-प्रसार किया और सत्रहवीं शताब्दी में रामदास ने इस कार्य को पूर्ण किया। रामानुज (राम का छोटा भाई), रामानंद (राम का आनंद) और रामदास (राम का दास यानी नौकर) आदि नामकारणों में राम का महत्त्व स्वतः उजागर हो जाता है। राम के नाम का महत्त्व हमारे देश की सीमाओं को तोड़कर अंतरराष्ट्रीय धरातल पर भी छाने लगा था। जहाँ तिब्बत के विद्वानों ने आठवीं शताब्दी में रामायण की कहानियों की रिकॉर्डिंग का काम किया, वहीं पूर्व में मंगोलिया तथा पश्चिम के मध्य एशिया के खोतान में भी यह ट्रेंड देखने को मिलता है। इस तरह राम की यह कहानी भारतीय उप महाद्वीप से बाहर निकलकर विश्व-व्यापी होने लगी और देखते-देखते दक्षिण पश्चिम एशिया के अनेक भू-भागों में अत्यंत ही प्रभावोत्पादक ढंग से तत्कालीन मसालों और फेब्रिक्स के व्यापारियों द्वारा एशिया में फैली। जहाँ भारत के इस भक्ति आंदोलन के तत्वों का पूर्णतया अभाव था। जिससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि यह प्रसार 10वीं शताब्दी के पूर्व में हुआ। लाओस की रामायण बौद्ध धर्म से संपृक्त है, मगर थाईलैंड की थाई रामायण (रामकियन) हिन्दू प्रतीत होती है, भले ही, वह बैंकाक के एमराल्ड बौद्ध मंदिर के प्राचीरों पर अंकित क्यों न हो। 14वीं से 18 वीं शताब्दी में थाई साम्राज्य (जब तक यह नष्ट नहीं हो गया) था, राजधानी ययुध्या (अयोध्या) के नाम से विख्यात थी और उनके राजाओं के नाम राम के आधार पर पाए जाते थे। इसी तरह दक्षिण पश्चिमी एशियाई देशों में इण्डोनेशिया और मलेशिया की सांस्कृतिक विरासत में भी इस्लाम के प्रादुर्भाव होने के बाद भी रामायण उसका हिस्सा बना रहा। आज भी उनकी रामायण की कहानियों में रावण के नाश करने की कहानियाँ मिलती हैं। यहाँ तक कि भारत की प्रांतीय भाषाओं में भी रामायण के अनुवाद अथवा पुनः सृजन देखने को मिलता है। उदाहरण के तौर पर तमिल में कंबन, मराठी में एकनाथ, ओड़िया में बलराम दास की दांडी रामायण, सारला दास का विलंका रामायण, उपेन्द्र भंज की वैदेहीश विलास तथा विश्वनाथ खुंटिया के विचित्र रामायण आदि के अनेकानेक संस्करण देखने को मिलते हैं। अगर रामायण की रचना अवधि पर प्रकाश डाला जाए तो हमें सबसे पहले ईसा पूर्व 200 साल की तरफ़ देखना होगा, जब यायावरों द्वारा इस कथा का मौखिक गायन होता था, फिर वाल्मीकि ने संस्कृत भाषा में इसे लिपिबद्ध किया और उसके बाद सन् 100 से सन् 300 के बीच वेदव्यास द्वारा रचित महाभारत में रामोपाख्यान, भाषा का संस्कृत में प्रतिमा नाटक, संस्कृत में विष्णु पुराण, प्राकृत भाषा में विमल सूरी का पाउम् चरियम, कालिदास रचित रघुवंशम् देखने को मिलते है। यही कथा सन् 500 से सन् 1000 के मध्य बौद्ध धर्म का ‘दशरथ जातक’, देवगढ़ मंदिर की दीवारों पर राम के चित्र, भवभूति का संस्कृत नाटक ‘महावीर चरित’, मुरारी के संस्कृत नाटक ‘अनर्गराघव’, सन् 1100 से सन् 1500 के मध्य राजा भोज द्वारा रचित ‘चंपू रामायण’, कम्बन की तमिल इरामावतारम, बुद्धा रेड्डी की तेलुगु 'रंगनाथ रामायण', कृतिवास का बँगला रामायण, कण्डाली का आसामी रामायण, बलरामदास का ओड़िआ दांडी रामायण के अतिरिक्त संस्कृत भाषा के आनंद रामायण, अवधूत रामायण व अध्यात्मिक रामायण प्रमुख हैं। सन् 1600 से 2000 के बीच तुलसीदास की अवधी रामायण, रामायण की पेंटिंगों का अकबर द्वारा संग्रह, एकनाथ का मराठी ‘भावार्थ रामायण’, तोरावेद का कन्नड़ रामायण, एजुयाचन की मलयालम रामायण, गुरुगोविंद सिंह का पंजाबी ‘गोविंद रामायण’ (दशम ग्रंथ का एक हिस्सा), गिरिधर का गुजराती रामायण, द्वारिका प्रकाश का कश्मीरी रामायण, भानुभक्त के नेपाली रामायण के अतिरिक्त सन् 1921 में हिन्दी में सती सुलोचना पर मूक फ़िल्म, सन् 1943 में फ़िल्म ‘रामायण’ (महात्मा गाँधी द्वारा देखी गई एक मात्र फ़िल्म), सन् 1955 में रेडियो पर मराठी में गीत रामायण, 1970 में अमर कथाचित्र पर राम के कॉमिक्स, सन् 1987 में फ़िल्म निदेशक रामानन्द सागर का रामायण पर धारावाहिक तथा सन् 2003 में अशोक बेंकर द्वारा लिया गए उपन्यासों की शृंखला ने राम की इस कथा को और आगे बढ़ाया।
सन् 2007 में उद्भ्रांत जी द्वारा रचित रामकथा का प्रथम हार्ड बाउंड संस्करण ‘त्रेता’ (महाकाव्य) के रूप में नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली द्वारा वर्ष 2009 में प्रकाशित हुआ। समय की माँग के अनुरूप त्रेतायुगीन राम राज्य की महिलाओं पर महाकाव्य को अलग रूप से प्रतिपादित कर उद्भ्रांत जी ने महिला विमर्श पर आधुनिक दृष्टिकोण डालते हुए भवानी, अनसूया, कौशल्या, सुमित्रा, कैकेयी, ताड़का, अहिल्या, मंथरा, श्रुतकीर्ति, उर्मिला, मांडवी, शांता, सीता, शबरी, शूर्पनखा, तारा, सुरसा, लंकिनी, त्रिजटा, मंदोदरी, सुलोचना, धोबिन, शंबूक की जननी आदि का एक ही कैनवस पर चित्र उकेर कर तत्कालीन सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक और आध्यात्मिक चेतना के स्वरों में महिलाओं की भूमिका पर इस तरह निरपेक्ष भाव से दृष्टि डाली है कि सही अर्थ तक पहुँचने के लिए आपको इस महाकाव्य को अनेक बार पढ़ना होगा, क्योंकि कवि ने मिथकीय चरित्रों में कई बार मानवीय गुणों को खोजने की भरसक चेष्टा की है। सोने के हिरण के प्रति सीता की लालसा, हनुमान का उड़कर नहीं वरन् तैरकर समुद्र पार करना, कैकेयी पर दशरथ के आसक्त होने के अतिरिक्त शंबूक की जननी का चरित्रांकन कर तत्कालीन समाज में व्याप्त जातिवाद तथा राम जैसे राजा को उनकी मंत्री-परिषद द्वारा न्याय माँगने शंबूक की जननी की बात अच्छी तरह सुने बिना जंगल में जाकर शंबूक की तपस्थली पर ही हत्या कर देने जैसे वीभत्स कार्य को सामने लाने में कुछ भी हिचकिचाहट कवि ने अनुभव नहीं की। यह महाकाव्य पढ़ने के बाद मेरे भीतर उद्भ्रांत जी की छवि धार्मिक धरातल को पार करती हुई कार्ल मार्क्स की “दास कैपिटल” में वंचितों द्वारा अपने अधिकार प्राप्त करने की पृष्ठभूमि में नज़र आने लगी। अंधी भक्ति में बहे बिना तथा अग्रजों द्वारा खींची गई लकीर को मिटाये बिना उन्होंने उन्हीं पात्रों को समसामयिक धरातल पर स्थापित करते हुए सामाजिक कुरीतियों से ऊपर उठने का आह्वान किया है।
त्रेता की समयावधि:
त्रेता शब्द पढ़ते ही मन के भीतर त्रेता युग की प्रतिच्छाया नज़र आने लगती है और तरह-तरह के सवालों के झंझावात पैदा होने लगते हैं, आख़िर ‘त्रेता युग’ कहते किसे हैं?
गीता के 8 वें अध्याय के श्लोक 17 में युग की परिभाषा का विस्तृत उल्लेख मिलता है। जिसके अनुसार ‘सूक्ष्म काल’ को ‘परमाणु’ के नाम से जाना जाता है। उसके बाद उत्तरोत्तर बढ़ते हुए समय की शृंखला में अणु, त्रेषरेणु, त्रुटि, वेद, लव, निमेष, क्षण, काष्ठा, नाडिका के नाम से माना जाता है। फिर और आगे बढ़ने पर हम देखते हैं कि नाडिका से प्रहर, प्रहर से दिन, पक्ष, मास, अयन एवं वर्ष बनते हैं। वर्षों की समायावधि युग में बदलती है। एक चतुर्युग में सतयुग, त्रेता युग, द्वापर युग और कलियुग शामिल होता है, जिनकी अवधि वर्षों की इकाई में क्रमशः 4800, 3600, 2400, 1200 होते हैं। समय मापने की कहानी यहीं ख़त्म नहीं होती वरन् और आगे जाती है जिसके अनुसार एक मानव वर्ष देवताओं के एक दिन-रात के तुल्य होता है, 30 मानव वर्ष देवताओं के महीने के तुल्य, 360 मानव वर्ष को देवताओं का 1 वर्ष कहा जाता है और देवताओं के 12000 वर्ष अथवा 43,20,000 मानव वर्ष को ‘दिव्य युग/महायुग/चतुर्युग’ कहा जाता है। इस तरह सहस्र युग पर्यन्तम् अथवा युग सहस्रान्त का अर्थ एक हज़ार चतुर्युग की अवधि वाला समय है। क्या इस आधार को वैज्ञानिक आधार माना जा सकता है? मुझे तो इस पर विशेष चर्चा नहीं करनी चाहिए। मगर ‘त्रेता’ शब्द से झंकृत समयावधि को जानने की उत्सुकता हमेशा मेरे मन में बनी रही। उद्भ्रांतजी के इस महाकाव्य ने युग की परिभाषा खोजने के बहाने अपने अतीत काल का अवलोकन कर सांस्कृतिक, आर्थिक, सामाजिक तथा आध्यात्मिक पराकाष्ठा से संपन्न त्रेता युग की मुख्य धारा से जोड़कर आधुनिक (कलियुग) की गतिविधियों में पारंस्परिक ताल-मेल तथा तुलनात्मक अध्ययन के लिए प्रेरित किया, जब तक कि त्रेता युग के फ़्लैशबैक में जाने के कोई संतोषजनक ठोस आधार प्राप्त न हो जाए। प्रथम दृष्ट्या गीता में दिये गए युग की परिभाषा का खंडन स्वामी दयान्द सरस्वती द्वारा रचित “ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका” के “वेदोत्पत्ति विषय” के अंतर्गत देखने को स्पष्ट तरीक़े से मिलता है। जिनके अनुसार एक वृंद, छियानवे करोड़, आठ लाख, बावन हज़ार नव सौ छहत्तर अर्थात् (1,96,08,52,976) वर्ष वेदों और जगत की उत्पत्ति को हो गए हैं और यह संवत् सतहत्तरवाँ (77वाँ) चल रहा है।
“जब स्वामी दयानन्द सरस्वती से यह पूछा गया कि आपने यह कैसे निश्चित किया कि जगत की उत्पत्ति के इतने वर्ष हो गए हैं?”
तब उन्होंने उत्तर दिया, “वर्तमान सृष्टि सातवें वैवस्वत मनु का वर्तमान है, इससे पूर्व छह मनवंतर हो चुके हैं, स्वयम्भुव, स्वरोचिष, औत्वभि, तामस, रैवत, चाक्षुष। ये छह बीत गए है, सातवाँ वैवस्वत चल रहा है और सवार्ण आदि सात मन्वंतर आगे आएँगे। कुल मिलाकर चौदह मनवंतर होते हैं और एकहत्तर चतुयुर्गियों का नाम मनवंतर होता है। सो उनका गठन इस प्रकार से हैं कि सत्तरह लाख, अट्ठाईस हज़ार वर्षों का नाम सतयुग (17,28, 000), बारह लाख छियानबे हज़ार वर्षों का नाम त्रेता (12,96,000), आठ लाख चौसठ हज़ार वर्षों का नाम द्वापर (8,64, 000) और चार लाख, बत्तीस हज़ार वर्षों का नाम कलियुग (4,32,000) रखा है। यही नहीं, आर्यों ने एक क्षण और निमेष से लेकर एक वर्ष पर्यंत के काल को सूक्ष्म और स्थूल संज्ञाओं से बाँधा है और इन चारों युगों के तियालीस लाख, बीस हज़ार वर्ष होते हैं, जिनका चतुर्युगी (43,20,000) नाम है। एकहत्तर चतुर्युगी के अर्थात् तीस करोड़ सड़सठ लाख बीस हज़ार वर्षों की एक मन्वंतर (30,62,0000) की संज्ञा है और ऐसे ऐसे छह मन्वंतर मिलकर अर्थात् एक अरब चौरासी करोड़ तीन लाख बीस हज़ार वर्ष हुए और सातवें मन्वंतर के योग में यह अट्ठाईसवीं चतुर्युगी है। इस चतुर्युग के कलियुग के चार हज़ार नौ सौ छिहत्तर (4976) वर्षों का भोग हो चुका है और बाक़ी 4,27,024 का भोग होना बाक़ी है। जानना चाहिए कि 12,05,32,976 वर्ष वैवस्वत मनु के भोग हो चुके है और 18,61,27,024 वर्षों का भोग बाक़ी है।
इस तरह स्वामी दयानन्द सरस्वती जिस आकलन को समर्थन करते नज़र आते हैं, वह यहीं पर समाप्त नहीं होता वरन् कुछ और परिभाषाओं को अपने साथ जोड़ते हैं। जैसे कि एक हज़ार चतुर्युग का अर्थ एक ब्रह्मदिन और उतने ही चतुर्युग एक ब्रह्मरात्रि होती है। इसलिए ईश्वर सृष्टि उत्पन्न कर एक हज़ार चतुर्युग पर्यंत बनाकर रखता है और एक हज़ार चतुर्युग तक सृष्टि को मिटाकर रखता है, जिसे ब्रह्मरात्रि कह सकते हैं।
अगर आप उपर्युक्त बातों में विश्वास नहीं करते हों, नहीं ही सही। अब हम विज्ञान के दृष्टिकोण से त्रेता युग की अवधिकाल की खोज करेंगे, इसके लिए ज्योलोजिकल टाइम स्केल के अनुसार सृष्टिक्रम को दो EON में बाँटा गया है। सबसे पुराना क्रिप्टोजोइक इओन (cryptozoic eon) जिसमें पृथ्वी निर्माण से छह सौ मिलियन वर्ष की समयावधि शामिल है। जबकि दूसरा phanerozoic EON है जिसमें छह सौ मिलियन वर्ष से आज तक का समय लिया जाता है। क्रिप्टोजोइक प्रिकेम्ब्रियन समय है जिसमें primitive plant, स्पांज प्रजाति तथा जेली फ़िश जैसे जानवरों का निर्माण हुआ। जबकि फनेरोज़ोइक EON में तीन युग आते हैं, Paleozoic, Mesozoic और Cenozoic। अगर तीन युगों को पीरीयड में बाँटा जाए तो पेलियोजोइक में पर्मियन, पेंसिल्वानियन, मिसीसिपीयन, डेनोनियन, स्केलिरियन, ओरडोविसियन, केब्रियन, तथा मेसोजोइक युग में क्रिटेशियस, केम्ब्रियन तथा मेसोजोइक युग में क्रिटेशियस, जुरैसिक तथा ट्राइसिक एवं सेनोजोइक में क्वार्टसरी व टर्शरी आते है। इस विभाजन के अनुसार करो मेगनन मेन की उत्पत्ति सेनोजोइक युग में होती है, जो आज से 60-65 मिलियन अर्थात् 600-500 लाख वर्ष पूर्व की बात है। जबकि ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका के आकलन से 1960 लाख वर्ष पहले जगत और वेदों की उत्पत्ति हुई। अगर हम दोनों केलकुलेशनों का औसत अर्थात् 1280 लाख वर्ष को आता है। इसके हिसाब से 1280-120=1160 लाख वर्ष पूर्व त्रेता का प्रतिपादन हुआ था। जो कि प्राप्त साक्ष्यों के अनुरूप ग़लत ठहरता है, क्योंकि शोध के अनुसार रामायण के बारे में 4000-5000 वर्ष पूर्व के प्रमाण प्राप्त होते हैं। त्रेता पर कुछ लिखने से पूर्व मेरी जिज्ञासा त्रेता की कालावधि जानने की रही है, ताकि तत्कालीन समाज के बारे में कुछ सोच विचार किया जा सके। अगर विज्ञान की बात मानें तो रिचर्ड ओवरी की प्रसिद्ध पुस्तक “द कंप्लीट हिस्ट्री ऑफ़ द वर्ल्ड” के अनुसार आधुनिक मनुष्य के पूर्वज होमीनीन की उत्पत्ति ग्लोबल कूलिंग की वजह से 50-60 लाख वर्ष पहले परिवेश में परिवर्तन होने के कारण मांसाहारी व सर्वाहारी प्राणियों के रूप में हुई। मनुष्य के प्राप्त जीवाश्मों पर के अध्ययन अनुसार Austrolopthesius, Homohabills, Homoerectous, Homoheidal bergenus तथा Homosapian (Motera human) आदि के परिवर्तनों में लंबी समयावधि लगी। पाँच मिलियन वर्ष से आधुनिक मनुष्य की खोपड़ियों में मस्तिष्क का आकार लगातार वृद्धि करता नज़र आ रहा है। Austrolopthecius मनुष्य में आधुनिक मनुष्य के मस्तिष्क आकार का एक तिहाई होता था। और अगर यूँ देखें तो DNA के अध्ययन के अनुसार आधुनिक मानव यानी होमोसेपियन की उत्पत्ति अफ़्रीका में डेढ़-दो लाख वर्ष पूर्व हुई। यद्यपि उनकी उत्पत्ति और विस्तार के बारे में अभी भी अनुसंधान कार्य शेष है, लेकिन तथ्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि 28 हज़ार साल पूर्व मनुष्य जाति के रूप में होमोसेपियन ने जन्म लेकर विश्व में अपनी उपस्थिति दर्ज करा ली थी। और दस हज़ार वर्ष पूर्व मनुष्य ने विश्व में कॉलोनी निर्माण का कार्य शुरू कर दिया था। अनेकों बर्फ़ युग की शृंखलाओं ने मनुष्य जाति को विविध वातावरण में बदलाव सहन करने के लिए सक्षम बना दिया था, मनुष्य ने शिकार करने के साथ-साथ खेती एवं पशुपालन करना सीख लिया था। कृषि की इस उत्पत्ति को “निओलियिक रिवोल्यूशन” कहा जाता है।
विश्व इतिहास के अनुसार कृषि पूर्वी यूरोप से होते हुए मेडिटेरियन कोस्ट तथा सेंट्रल यूरोप से होते हुए चार हज़ार ई.पू. तक ब्रिटेन में पहुँचकर वहाँ से बाल्टिक यूरोपियन रशिया के अलग-अलग हिस्सों में फैली।
भारत इतिहास की सबसे पुरानी सभ्यताओं का एक घर रहा है, जो सभ्यता सिंधु नदी के किनारे पल्लवित हुई। सिंधु घाटी की संस्कृति तथा वैदिक संस्कृति ने परवर्ती भारतीय समाज को विकास का आधार बनाकर मुख्य धार्मिक प्रणालियों में जैसे हिन्दू, बौद्ध, जैन आदि को जन्म दिया। यद्यपि भारत के उस इतिहास के बारे में बताना अत्यंत ही कठिन है, मगर पुरातत्व विज्ञान के अनुसार तत्कालीन सामाजिक जीवन के बारे में यह अवश्य कहा जा सकता है कि 1200 ई.पू. के बाद की शताब्दियों में वेदों का निरूपण हुआ होगा, मगर 5वीं शताब्दी तक वेद लिखित रूप में सामने नहीं आए थे। इस तरह गंगा के ऊपरी भागों में इण्डो आर्यन सेटलमेंट स्थापित हो रहे थे।
जवाहरलाल नेहरू की प्रसिद्ध पुस्तक “विश्व इतिहास की झलक” के अनुसार भारत के प्रारंभिक इतिहास का अध्ययन हमारे लिए एक बहुत बड़ी चुनौती है क्योंकि आदि आर्य (इण्डो आर्यन) ने कभी भी इतिहास लिखने में ध्यान नहीं दिया, मगर उन लोगों के रचे गए ग्रंथ वेद, उपनिषद, रामायण, महाभारत उनकी उत्पन्न कृतियाँ हैं। इन ग्रंथों के अध्ययन से हमें भले ही, अपने पूर्वजों के रीति-रिवाज़, रहन-सहन और सोच-विचार करने के ढंग का पता चलता है, मगर यह इतिहास नहीं है। संस्कृत में वास्तविक इतिहास की पुस्तक कश्मीर के इतिहास पर है, लेकिन वह बहुत पुरातन ज़माने की है, उसका नाम है ‘राज तरंगिणी’। इसमें कश्मीर के राजाओं का सिलसिलेवार हाल का वर्णन है और यह कल्हण की लिखी हुई है।
इस जानकारी से हमारे मन में एक सवाल अवश्य उठता है कि क्या त्रेताकालीन सभ्यता वास्तव में थी? क्या रामायण अथवा महाभारत के पात्र आर्यों के वंशज थे या किसी दूसरी सभ्यता के पुरोधा थे? यह भी तो हो सकता है हम उन पुराने लोगों के ठेठ वंशज हैं जो उत्तर पश्चिम के पहाड़ी दर्रों से होकर उस लहलहाते हुए मैदान में आए जो कालांतर में ब्रह्मवर्त, आर्यावर्त, भारतवर्ष तथा हिंदुस्तान कहलाया।
क्या राम का तत्कालीन समाज हड़प्पा और मोहन-जो-दड़ो की सभ्यता का परिचालक है अथवा इससे पूर्व का? क्या जिस युग में वाल्मीकि ने रामायण लिखी, वह युग उपर्युक्त सभ्यता की उत्कृष्टता का द्योतक है? क्या रामराज्य से पूर्व वेदों की रचना हो चुकी थी? शायद धीरे-धीरे इस धर्म में अश्वमेध, पशुबलि, बहु-विवाह, औरतों पर अत्याचार जैसी कई कुरीतियों का समावेश हो गया था।
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विषय सूची
- कवि उद्भ्रांत, मिथक और समकालीनता
- पहला सर्ग: त्रेता– एक युगीन विवेचन
- दूसरा सर्ग: रेणुका की त्रासदी
- तीसरा सर्ग: भवानी का संशयग्रस्त मन
- चौथा सर्ग: अनुसूया ने शाप दिया महालक्ष्मी को
- पाँचवाँ सर्ग: कौशल्या का अंतर्द्वंद्व
- छठा सर्ग: सुमित्रा की दूरदर्शिता
- सातवाँ सर्ग: महत्त्वाकांक्षिणी कैकेयी की क्रूरता
- आठवाँ सर्ग: रावण की बहन ताड़का
- नौवां सर्ग: अहिल्या के साथ इंद्र का छल
- दसवाँ सर्ग: मंथरा की कुटिलता
- ग्यारहवाँ सर्ग: श्रुतिकीर्ति को नहीं मिली कीर्ति
- बारहवाँ सर्ग: उर्मिला का तप
- तेरहवाँ सर्ग: माण्डवी की वेदना
- चौदहवाँ सर्ग: शान्ता: स्त्री विमर्श की करुणगाथा
- पंद्रहवाँ सर्ग: सीता का महाआख्यान
- सोलहवाँ सर्ग: शबरी का साहस
- सत्रहवाँ सर्ग: शूर्पणखा की महत्त्वाकांक्षा
- अठारहवाँ सर्ग: पंचकन्या तारा
- उन्नीसवाँ सर्ग: सुरसा की हनुमत परीक्षा
- बीसवाँ सर्ग: रावण की गुप्तचर लंकिनी
- बाईसवाँ सर्ग: मन्दोदरी:नैतिकता का पाठ
- तेइसवाँ सर्ग: सुलोचना का दुख
- चौबीसवाँ सर्ग: धोबिन का सत्य
- पच्चीसवाँ सर्ग: मैं जननी शम्बूक की: दलित विमर्श की महागाथा
- छब्बीसवाँ सर्ग: उपसंहार: त्रेता में कलि
लेखक की कृतियाँ
- साहित्यिक आलेख
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- अमेरिकन जीवन-शैली को खंगालती कहानियाँ
- आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी की ‘विज्ञान-वार्ता’
- आधी दुनिया के सवाल : जवाब हैं किसके पास?
- कुछ स्मृतियाँ: डॉ. दिनेश्वर प्रसाद जी के साथ
- गिरीश पंकज के प्रसिद्ध उपन्यास ‘एक गाय की आत्मकथा’ की यथार्थ गाथा
- डॉ. विमला भण्डारी का काव्य-संसार
- दुनिया की आधी आबादी को चुनौती देती हुई कविताएँ: प्रोफ़ेसर असीम रंजन पारही का कविता—संग्रह ‘पिताओं और पुत्रों की’
- धर्म के नाम पर ख़तरे में मानवता: ‘जेहादन एवम् अन्य कहानियाँ’
- प्रोफ़ेसर प्रभा पंत के बाल साहित्य से गुज़रते हुए . . .
- भारत के उत्तर से दक्षिण तक एकता के सूत्र तलाशता डॉ. नीता चौबीसा का यात्रा-वृत्तान्त: ‘सप्तरथी का प्रवास’
- रेत समाधि : कथानक, भाषा-शिल्प एवं अनुवाद
- वृत्तीय विवेचन ‘अथर्वा’ का
- सात समुंदर पार से तोतों के गणतांत्रिक देश की पड़ताल
- सोद्देश्यपरक दीर्घ कहानियों के प्रमुख स्तम्भ: श्री हरिचरण प्रकाश
- पुस्तक समीक्षा
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- उद्भ्रांत के पत्रों का संसार: ‘हम गवाह चिट्ठियों के उस सुनहरे दौर के’
- डॉ. आर.डी. सैनी का उपन्यास ‘प्रिय ओलिव’: जैव-मैत्री का अद्वितीय उदाहरण
- डॉ. आर.डी. सैनी के शैक्षिक-उपन्यास ‘किताब’ पर सम्यक दृष्टि
- नारी-विमर्श और नारी उद्यमिता के नए आयाम गढ़ता उपन्यास: ‘बेनज़ीर: दरिया किनारे का ख़्वाब’
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- वसुधैव कुटुंबकम् का नाद-घोष करती हुई कहानियाँ: प्रवासी कथाकार शैलजा सक्सेना का कहानी-संग्रह ‘लेबनान की वो रात और अन्य कहानियाँ’
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- यात्रा-संस्मरण
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- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 2
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 3
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 4
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 5
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 1
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