त्रेता: एक सम्यक मूल्यांकन (रचनाकार - दिनेश कुमार माली)
पंद्रहवाँ सर्ग: सीता का महाआख्यान
कवि उद्भ्रांत ने 15वें सर्ग “सीता” में सीता की उत्पत्ति के बारे में उल्लेख करते हुए लिखा है कि मिथलांचल कि शस्य-श्यामला उर्वर भूमि किसी के अभिशाप से बंजर भूमि हो गई थी। न तो वहाँ अन्न की पैदावार होती थी और न ही किसी भी तरह की कोई वर्षा। देखते–देखते भयंकर दुर्भिक्ष के कारण वहाँ के निवासी लाखों की सख्या में अस्थि-पिंजरों में बदलने लगे, तब विदेही महाराज जनक ने प्रजा की आर्त्त पुकार सुनी। अर्द्धरात्रि में विवस्त्र होकर बंजर कृषिक्षेत्र में अगर वे हल चलाएँगे तो उनकी दयनीय अवस्था देखकर मेघराज इंद्र को दया आ जाएगी और वर्षाजल से सींचकर पुनः उस भूमि को उर्वर बना देंगे। शायद यह उस ज़माने का लोक-प्रचलित अंधविश्वास अथवा टोना-टोटका था। मगर कवि के अनुसार हल चलाते समय अचानक उसकी नोक सूखी मिट्टी के ढेर में दबे ढँके कुम्भ से टकरा गई, उस कुम्भ में सुदूर प्रांत के ऋषि वंशज ब्राह्मण के किसी अप्सरा के साथ गोपनीय प्रणय का परिणाम था। यह परिणाम ही सीता थी। हो सकता है लोग उसे सामाजिक तिरस्कार के भय से कपड़ों में लपेट कर मटके में डाल मरने के लिए खुला छोड़ गए थे। क्या यह सीता का अवांछित जन्म था? संतानहीन महाराज जनक तो सीता जैसे अमूल्य कन्या-रत्न को धरती माता से प्राप्त कर हर्ष विभोर हो उठे। यह विचित्र कथा सुनने पर विश्वास नहीं हो पाता। कवि उद्भ्रांत सीता की कथा को आगे बढ़ाते हुए लिखते हैं कि जनकपुर में न केवल नगरवासियों से वरन् माता-पिता के भावाकुल हृदय में वह हमेशा बसी रही। शस्त्र-संचालन की सभी विद्याओं में वह पारंगत होती रही। शादी के लिए पिता ने सर्वश्रेष्ठ वर ढूँढ़ने के लिए चारों दिशाओं में स्वयंवर का असाधारण न्यौता भेजा कि जो कोई वीर महादेव शिव के प्राचीनतम धनुष को उठाकर प्रत्यंचा खींचकर बाण को चढ़ा देगा, वही उसकी पुत्री के लिए योग्य वर होगा। भगवान शिव के प्रति सीता के हृदय में भी गहन श्रद्धा थी और आँगन में बने देवालय में रखे इस धनुष की सफ़ाई के दौरान सीता ने उसे उठाकर एक जगह से दूसरी जगह रखा था। सीता के निवेदन करने पर फिर से उसे यथास्थिति पर रखने के लिए कहा। शायद वह यह नहीं जानना चाहते थे कि सीता कोई साधारण कन्या नहीं है, वरन् दिव्य शाक्तियों से संपन्न है। तभी उन्होंने घोषणा कि जो कोई इसकी प्रत्यंचा को चढ़ाएगा, वही सीता का पति होगा। जब सीता को शिव धनुष की महिमा का ज्ञान हुआ तो उसने महादेव से अपराध क्षमा करने की प्रार्थना की। शिव मंदिर से पूजा अर्चना करके जैसे ही वह बाहर निकल रही थी, वैसे ही दो श्यामवर्ण वाले सुगठित, सुंदर, देहयष्टि के राजकुमार विश्वामित्र के साथ उधर से गुज़र रहे थे, उनकी हँसी मधुर संगीत की ध्वनियाँ पैदा करते हुए सीता की चेतना को भंग कर दिया। लज्जा, संकोच के भाव रक्तिम वर्ण के रूप में सीता के चेहरे पर उभरने लगे। बाद में उसे ज्ञात हुआ कि वे दोनों राजकुमार अयोध्या के नरेश महाराज दशरथ के पुत्र राम और लक्ष्मण हैं। राम को देखते ही शिव मंदिर में की गई प्रार्थना सीता को याद आ गई और पहली नज़र में ही राम को अपने वर के रूप में स्वीकार कर लिया। मगर सीता को यह चिंता होने लगी कि अगर राम शिव धनुष नहीं उठा सके या किसी दूसरे योद्धा ने उसे उठा लिया तो उसके जीवन पर क्या गुज़रेगा। पुलस्त्य ऋषि के कुल में उत्पन्न लंकापति रावण शिव धनुष को उठाने में असक्षम रहा, जबकि राम इस परीक्षा में खरे उतरे। जैसे ही सीता राम को जयमाला पहनाने जा रही थी, वैसे ही वहाँ भगवान शिव के परम भक्त क्रोधी परशुराम का प्रादुर्भाव होता है और वे शिव धनुष को स्पर्श करने वाले राम की हत्या के लिए तत्पर हो जाते हैं। मगर राम ने अपने मधुर व्यवहार से माहौल को ठंडा कर दिया। और सीता की शादी हो जाती है। अयोध्या के राजमहल में नववधू सीता का दूसरा भविष्य इंतज़ार कर रहा था। कुछ समय बाद राम को चौदह वर्ष का वनवास हुआ और सीता ने हठ करके राम के साथ जाने का निर्णय किया, भले ही उसे अनेक असाधारण अग्नि–परीक्षाओं से गुज़रना पड़ा। मगर सीता को इस बात की संतुष्टि है कि बाहर की अग्नि में बिना झुलसे यह भीतर ही भीतर आँसुओं को पिये एकाकी स्त्री के जीवन के विपरीत अपने पति के अनन्य और मूर्त्त अनुराग की अनुभूति को प्राप्त कर सकी। लक्ष्मण के भाई और भाभी के प्रति अनन्य प्रेम, वन में रहने वाले वनवासियों, वानरों, रीछों, राक्षसों की सद्भावना, हनुमान जैसे महाबली से मातृवत् आदर सम्मान, निषादराज (केवट) के चतुर-प्रेम, गिद्धराज जटायु की आर्त्त पुकार, मेरे प्रति धर्मात्मा विभीषण का आदर, अशोक-वाटिका में सखी त्रिजटा का स्नेह, कुंभकर्ण का मेरे प्रति पुत्रीवत् सहृदय आचरण और रावण की निंदा—ऐसे सारे अनुभव चौदह वर्षों में सीता को प्राप्त हुए, जो कि आज भी वर्णनातीत है। आज भी शोधार्थी सीता के अपहरण के उद्देश्य को अलग-अलग दृष्टिकोण से देखते हैं। कुछ विचारक शूर्पणखा के अपमान का प्रतिशोध लेना मानते हैं, तो अन्य विचारक अशोक वन में सीता को रख कर वन की विपतियों से बचने का उपकरण समझते हैं। तभी तो त्रिजटा को सीता की सुरक्षा के लिए नियुक्त किया। इसमें कोई संदेह नहीं कि रावण सीता को अपनी पुत्री समझता था और सीता के पिता जनक के साथ उसका बंधुवत् व्यवहार था। कवि उद्भ्रांत ने इस सर्ग में दिखाया है कि रावण ने कभी भी स्त्री के अधिकारों और मर्यादा का उल्लंघन नहीं किया। साधु के वेश में भिक्षा माँगते समय भी चाहता तो वो उसे अकेला देख कुटिया में प्रवेश कर सीता का शील हरण कर सकता था, मगर लक्ष्मण रेखा (मर्यादा रेखा) तो स्वयं सीता ने पार की थी। क्या ज़रूरी था उसके लिए अनजाने पुरुष को भिक्षा देना, जबकि वह यह जानती थी कि किसी स्त्री के घर से बाहर निकला हुआ एक पग उसे नर्क की और ले जा सकता है? क्या कहीं रावण अपनी पुत्री (सीता) को महाराज जनक द्वारा दिए गए व्याहारिक शास्त्र ज्ञान की परीक्षा तो नहीं ले रहा था? आज के इस युग में चतुर, चालाक, धूर्त्त, लम्पट लोगों के सामने भोला होना क्या मूर्खता का पर्याय तो नहीं है। इस तरह कवि उद्भ्रांत ने अपराध का सारा ठीकरा सीता के सिर पर फोड़ दिया, यही नहीं और कुछ अपराधों पर प्रकाश डालते हुए सीता को भर्त्सना का पात्र बनाया, जैसे स्वर्णवर्ण वाले हिरण की चमड़ी को प्राप्त करने का लोभ छोड़ न कर पाना, वन गमन की विपतियों, सकटों और असुविधाओ के बारे में पति राम द्वारा समझाने पर भी, स्त्री हठ कर बैठना और माया, मोह, लोभ, काम से विरक्त रहकर जीवन यापन करना। परम-त्यागी देवर लक्ष्मण की उपस्थिति से तो भले ही सीता ने काम पर विजय पा ली थी, मगर सोने के आभूषणों के प्रति उसके अवचेतन मन में समाया मोह स्वर्णवर्ण बाले हिरण के चर्म को प्राप्त करने की इच्छा में बदल गया। क्या मिट्टी से पैदा हुई सीता यह भूल गई थी कि सच्चा सोना तो मिट्टी ही है, तब सुन्दर वन्य जीव की निर्मम हत्या करने की इच्छा उसके मन में क्यों जागृत हुई? इस हत्या का दण्ड विधाता ने महादण्ड के रूप में परिणत कर दिया। सोने की लंका में एक दीर्घ अवधि तक पति से बिछुड़कर एकाकी निस्सार जीवन जीने पर विवश कर दिया। क्या राम के अनन्य प्रेमरूपी सोने के सामने सुनहरे हिरण का चर्म बड़ा था? सीता की आँखों पर से पर्दा तो तब हटा जब हनुमान ने पलक झपकते ही सारी सोने की लंका को अपनी पूँछ के माध्यम से जला दिया और अपनी पहचान बताने के लिए राम-नाम से अंकित सोने की मुद्रिका फेंककर सोने की असत्यता को उजागर किया। तपस्वी हनुमान उन्हें चमकती हुए माया के वश से भरे कनक से मुक्त करना चाहते थे।
कवि यह कहना चाहते हैं कि सोने की लंका को अग्नि में जलते देख सीता को जीवन की अग्नि-परीक्षा का अहसास हो गया और समुद्र तट पर धधकते अंगारों पर चलकर अग्नि परीक्षा देकर, सीता ने अपनी गहरी संवेदना के फफोलों पड़े पाँवों से अयोध्या पहुँचकर फिर से एक बार पत्नी प्रताड़ित तुच्छ व्यक्ति की वार्ता से दुखी होकर अपने चरित्र के सम्बन्ध में शंका के विषैले कीट से ग्रस्त होकर राज-आज्ञा का अंधानुपालन किया। लक्ष्मण को गर्भवती भाभी को रामराज्य से दूर जंगल राज्य का रास्ता दिखाना पड़ा। गर्भवती सीता के सामने और सर्जनात्मक विस्फोट करने का उचित अवसर प्रदान किया। राम-यश की आधारशिला के रूप में कथानक को लेकर आदिकवि ऋषि वाल्मीकि सीता के दूसरे पिता बनकर उभरे और उनके स्नेह संरक्षण में सीता ने दो पुत्रों लव और कुश को जन्म दिया, उन्हें सर्वोत्तम संस्कार दिए, शस्त्र-शास्त्र में शिक्षित किया, सुयोग्य बनाया। महाकवि के संसर्ग में उनकी वाणी में संगीत का जादू उतर गया। राम की इस कथा का मधुर पाठ करते हुए जब वे अयोध्या पहँचे तो उन्हें आदर के साथ राज दरबार में बुलाया गया और जब उन्हें अपना परिचय देने के लिए पूछा गया तो बालोचित चपलता से उन्होंने उत्तर दिया कि राजा प्रजा-जनों का पिता है, इसलिए आप ही हमारे पिता हैं। दुख इस बात का है कि उन्होंने किसी मूर्ख प्रजा की घरेलू निरर्थक बकवास सुनकर अपनी गर्भवती पत्नी सीता को देश निकाला दे दिया। यह क्या समूचे रघुवंश का सिर ऊँचा कर सकता है? हमारी माता सीता है। हमारी दूसरी चुनौती और क्या हो सकती थी! मगर उन परिस्थितियों ने सीता के भीतर छुपी महाशक्ति पिता भी है, आप तो केवल कहलाने के लिए पिता हैं। यह कहते हुए लव और कुश समूचे राम दरबार को स्तब्ध और अवाक् छोड़कर वाल्मीकि आश्रम लौट गए। उनका अनुसरण करते हुए भावाकुल राम, लक्ष्मण, हनुमान, भरत, शत्रुघ्न, मंत्री सुमंत सभी वाल्मीकि आश्रम पहुँचकर अयोध्या वापस ले जाने के लिए आग्रह किए थे। मगर सीता ने उसे अस्वीकार कर दिया और हनुमान के माध्यम से अपनी अनिर्वचनीय पीड़ा को राम के पास पहुँचाया कि उसे उचित समय की प्रतीक्षा है, अपने पुत्रों लव और कुश को योग्य बनाना है, साथ ही साथ समाज में व्याप्त अंध-विश्वासों, कुरीतियों, स्त्री विरोधी पाखंडों से युद्ध कर उन्हें पराजित भी करना है। कुछ समय बाद राम ने अश्वमेध यज्ञ की घोषणा की। जिसके अश्व को युवा लव-कुश ने पकड़ लिया और युद्ध की चुनौती देते हुए राम के समस्त दल को मूर्च्छित कर जब राम पर धनुष चढ़ाने लगे, तो सीता ने उन्हें रोक दिया कि शस्त्र का ज्ञान रखने वाले को शस्त्र की उपयोगिता जाननी चाहिए। पिता पर शस्त्र उठानेवाला पुत्र अपयश का भागी होता है। सीता के निदेश पर राम की चरण वंदना करते हुए छोड़ दिया। उस समय भी राम ने सभी को अयोध्या चलने का आग्रह किया। मगर सीता ने उनके इस आग्रह को ठुकरा दिया कि उसे घर लौटने पर पहले जैसी प्रतिष्ठा नहीं मिल सकती है, चाहे वह कितनी भी निरपराध क्यों न हो। मैं तो अपने लिए उसी समय मर गई थी, जिस समय आपने मुझे वन में छोड़ने का निर्देश दिया था। मेरे जीवन का अंतिम दिवस होता, अगर महर्षि वाल्मीकि वहाँ नहीं होते। मैं अब तक लव-कुश के लिए केवल ज़िंदा थी, अब अपको सौंपते हुए इस अटल विश्वास के साथ कि उनके प्रति सदैव प्यार में आप किसी भी प्रकार की कमी नहीं रखेंगे, मैं अपसे विदा लेती हूँ और उस मिट्टी में मिल जाना चाहती हूँ, जिस मिट्टी के पट के माध्यम से मेरे पिता ने मुझे सुरक्षित आश्रय दिया था। लंका-दहन के समय में इस बात को समझ गई थी कि आख़िरकार मिट्टी में मिलना है तो क्यों नहीं ऐसे कुछ कार्य किए जाए जिसके माध्यम से इस मिट्टी को अमरता प्रदान हो।
यह कहते हुए पहले से ही खोदे हुए मौत के अंधे कुँए में छलाँग लगाते हुए उसने सूर्यवंशियों के सामने कई अनुत्तरित और प्रज्ज्वलित प्रश्न छोड़ दिये, जिसका उत्तर सोचने के लिए उन्हें आगामी सहस्रों वर्षों तक कई साधना की यात्रा करनी होगी, जबकि समय के विचित्र उस अंधे कुँए में सूर्य की कोई भी किरण प्रवेश नहीं पा सकती है।
इस सर्ग में कवि ने जिन चरित्रों का मुख्य रूप से उल्लेख किया है उनमें परशुराम, सीता, लक्ष्मण, राम आदि हैं। सीता की व्याख्या करने से पूर्व परशुराम के बारे में जानना भी उतना ही ज़रूरी है। जहाँ ब्राह्मण वर्ग परशुराम को विष्णु भगवान का अवतार मानते हैं, वहीं महात्मा ज्योतिषि फूले उन्हें मातृहन्ता व निर्दयी प्रवृति वाला मानते हैं। उनकी पुस्तक ‘ग़ुलामगिरी’ के अनुसार ईरान से आए हुए ब्रह्मा ने यहाँ के मूल क्षेत्र-वासियों को अपना ग़ुलाम बना दिया था। लोग उन्हें प्रजापति के नाम से जानने लगे। उसके मरने के बाद ब्राह्मणों के जाल में फँसे हुए अपने भाइयों को ग़ुलामी से मुक्त करने के लिए यहाँ के मूल निवासियों ने इक्कीस बार युद्ध किया। वे इतनी दृढ़ता से लड़े कि उनका नाम द्वैती पड़ गया। और उस शब्द का बाद में अपभ्रंश दैत्य हो गया। जब परशुराम ने इन सभी को परास्त किया तो यह दक्षिण में जाकर रहने लगे। जैसे-जैसे मुसलमानों की सत्ता इस देश में मज़बूत होती गई, वैसे-वैसे ब्राह्मणों द्वारा यह अमानवीय परंपरा समाप्त होती गयी। लेकिन इधर क्षत्रियों से लड़ते-लड़ते परशुराम के इतने लोग मारे गए कि ब्राह्मणों की अपेक्षा ब्राह्मणों की विधवाओं की संख्या ज़्यादा हो गई। इस हार से परशुराम इतना पागल हो गए थे कि निराधार गर्भवती विधवा औरतों को खोज-खोज कर मारने की मुहिम शुरू कर दी। हिरण्याक्ष से बलि राजा के पुत्र को निर्वंश करने तक उस कुल के सभी लोगों को तहस-नहस कर दिया। उधर क्षेत्रपतियों के दिमाग़ में यह बात जमा दी गयी कि ब्राह्मण लोग जादू विद्या में माहिर हैं। वे लोग ब्राह्मणों के मंत्रों से डरने लगे। उस समय वहाँ के क्षेत्रपति के रामचंद्र नामक पुत्र ने परशुराम के धनुष को जनक राजा के घर में भरी सभा में तोड़ दिया तो उसके मन में प्रतिशोध की भावना भर गई। उसने रामचंद्र को अपने घर जानकी को ले जाते हुए देखा तो रास्ते में युद्ध छेड़ दिया। इस युद्ध में उसकी करारी हार हुई। इस युद्ध से वे इतना शर्मिंदा हो गए कि उसने अपने सारे राज्य को त्याग कर अपने परिवार और कुछ निजी संबंधियों को साथ लेकर कोंकण के निचले हिस्से में जाकर रहने लगे। वहाँ उन्हें अपने बुरे कर्मो का पश्चाताप हुआ। जिसका परिणाम इतना बुरा हुआ कि उसने अत्महत्या कर ली।”
सीता को कई नामों से जाना जाता है जैसे वैदेही, जानकी, मैथिली और भूमिजा। सीता जनकपुर के राजा जनक और रानी सुनयना की दत्तक पुत्री है, भूमि देवी की वास्तविक पुत्री है। दण्डक वन से इनका अपहरण हो जाता है और अशोक वाटिका में रखा जाता है। जनकपुर नेपाल के दक्षिण बिहार के उत्तर पूर्वी मिथिला के जनकपुर और सीतामढ़ी, नेपाल की सीमा के पास, सीता का जन्म स्थान माना जाता है। वाल्मीकि रामायण में सीता को भूमि से उत्पन्न बताया जाता है, जबकि “रामायण मंजरी” में जनक और मेनका से उत्पत्ति, तो महाभारत रामोपाख्यान तथा विमल सूरी की ‘पउम चरियम’ में सीता को कुछ जनक की वास्तविक पुत्री, तो रामायण के कुछ संस्करणों में रावण के अत्याचारों से प्रताड़ित वेदवती का सीता के रूप में जन्म लेना तो उत्तर पुराण के गुणभद्र के अनुसार अलकापुरी के अमित वेदय की पुत्री मीनावती, रावण और मंदोदरी के गर्भ से जन्म लेकर रावण का अंत करने के लिए अवतरित, तथा अवधूत रामायण और संघदास के जैन संस्करण में सीता को रावण की पुत्री वसुदेव वाहिनी के रूप में माना जाता है जो कि रावण की पत्नी विद्याधर माया की पुत्री है। स्कन्द पुराण में वेदवती का ज़िक्र आता है जो पद्मावती बनती है और विष्णु के अवतार लेने पर वे उनसे शादी करते है। वेंकटेश्वर बालाजी के तिरुमलाई में उनका निवास है। रामायण के परवर्ती संस्करणों में वेदवती रावण की मृत्य के लिए जन्म लेने की क़सम खाती है, क्योंकि रावण ने उसके साथ छेड़ख़ानी की थी। अग्नि देवता उसे जला नहीं सकते, वह उसे छुपाकर सीता की जगह अपहरण के पूर्व रख देते हैं। इस तरह यह डुप्लीकेट सीता थी, जिसे रावण उठाकर लंका लाया। वास्तविक सीता वेदवती की अग्नि-परीक्षा के बाद राम के पास लौट जाती है। जम्मू में वेदवती को वैष्णो देवी के रूप में जाना जाता है। जिसने भैरव की गर्दन काट दी थी, जो उसे ज़बरदस्ती अपनी पत्नी बनाना चाहता था। बाद में भैरव के कटे सिर ने माफ़ी माँगते हुए, यह कहा कि—वह उन परम्पराओं का अभ्यास कर रहा था जिसके लिए एक स्त्री की आवश्यकता थी, जो उसे पुनर्जन्म के चक्रों से मुक्ति प्रदान कर सके। तब उसने कहा, “तुम मेरी पूजा करो, मैं तुम्हें मुक्त कर दूँगी” कहते हुए वह देवी में बदल गयी। अधिकांश देवियों के शक्ति पीठ स्थल पर रक्तबलि दी जाती है, जबकि वैष्णोदेवी एक अलग शक्ति पीठ है, क्योंकि वह शाकाहारी देवी है। जो वैष्णव संप्रदाय की पुष्टि करती है। क्या राम-लक्ष्मण–सीता जंगल में रहते समय मांस भक्षण करते थे? आज भी यह सवाल अनुत्तरित है। जबकि प्राचीन काल में मांसाहार को घृणित निगाहों से नहीं देखा जाता था। कई पेटिंग में राम और लक्ष्मण को जंगली जानवरों का आखेट करते हुए दिखाया गया है, कुछ-कुछ में तो मांस भूनते हुए भी। यह दृश्य क्षत्रिय परिवार के अनुरूप है। संस्कृत में मांस का अर्थ फूलों के मांस से लिया जाता है। बाद मैं बौद्ध, जैन धर्म और वैष्णव संप्रदाय के विस्तार के साथ शाकाहारी को जातिप्रथा में उच्चता का प्रतीक माना जाने लगा। वाल्मीकि रामायण में जानवरों के आखेट से सीता अप्रसन्न रहती है।
इस तरह अलग-अलग कहानियों को अलग-अलग रूप देकर आज भी पढ़े-लिखे लोगों को भी सत्यता से दूर रखा जाता है। क्या साहित्य हमें वैचारिक ग़ुलामी की ओर ले जाता है अथवा साहित्य सच्चा जीवन जीने के लिए प्रेरित करता है? यह बात सत्य है कि सीता ने अपने जीवन को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत कर सम्पूर्ण विश्व में यह बात अवश्य स्थापित की है कि भारतीय स्त्री और पुरुष का सम्बन्ध अत्यंत ही घनिष्ठतम होता है।
कवि उद्भ्रांत की पंक्तियाँ:
किसी व्याघ्र के तीर से अबिद्ध
चंचुपात करते हुए प्रणय में निरत क्रोंच–युगल के
नरपक्षी के वध को देखकर . . .
माता वाणी की प्रेरणा से जिनकी वाणी से
फूटा आदिश्लोक . . .
करुणा-कातर हो-
दस्यु जीवन को
क्षण में तिलांजलि देने वाले
आदिकवि
ऋषि वाल्मीकि ही वे
मेरे हो गए
एक और पिता
बचपन में जब सीता अपने साथियों के साथ बग़ीचे में खेल रही थी तो दो तोते किसी पेड़ पर बैठकर राम-कथा का गान कर रहे थे। सीता की यह बाल्य अवस्था थी। रामकथा का माधुर्य और सुनहरे भविष्य की कल्पना में सीता ने दोनों पक्षियों को पकड़कर अपने घर ले जाना चाहा, मगर उन्होंने मना कर दिया यह कहकर कि वे स्वतंत्र पक्षी है और गगन में उन्मुक्त होकर विचरण करना चाहते थे। मगर सीता अपने बालोचित हठ के कारण उन्हें छोड़ना नहीं चाहती थी। तोती के लिए अपने पति का वियोग असह्य हो गया और वह बोली “मुझ दुखिनी को गर्भवती अवस्था में अपने पति से अलग कर रही है, तो तुझे भी उसी अवस्था में अपने पति से अलग होना पड़ेगा। यह कहकर उसने प्राण त्याग दिए।” पत्नी के वियोग में तोते ने भी प्राण त्याग दिए। इसी बैर का बदला लेने के लिए वे दोनों अयोध्या में धोबी–धोबन के रूप में प्रकट हुए। इस प्रकार सीता के जीवन में विरह दुःख का बीज उस समय से पड़ गया था। इस तरह का भय दिखाकर रामकथा में एक नया अध्याय लिखा जाता है।
जबकि महात्मा ज्योतिष फूले अपनी “सार्वजनिक सत्यधर्म” पुस्तक में रामायण की बातों को काल्पनिक व अविश्वसनीय मानते हैं। धनुष यज्ञ में रावण की छाती पर पड़े हुए शिव परशुराम के धनुष को कभी घोड़ा बनाकर खेलने वाली जानकी को भेड़िये की तरह आसानी से कंधे पर डालकर भागने में रावण कैसे सफल हो गया? दूसरी बात यह कि यदि रावण की मानव के अलावा अलग जाति थी, तो जनक राजा ने दूसरी जाति के रावण को अपनी लड़की के स्वयंवर समारोह में आने का निमंत्रण कैसे दिया? इससे यह सिद्ध होता है कि राम और रावण की जाति अलग–अलग नहीं थी। ऐसा लगता है कि रामायण का इतिहास उस समय केवल लोगों का दिल बहलाने के लिए कल्पना के आधार पर लिखा होगा।
कँवल भारती भी इस सर्ग में सीता के विद्रोह को देखते हैं कि राम ने सीता को सास-ससुर की सेवा करने से बढ़कर कोई दूसरा धर्म नहीं है, कहकर उससे जंगल में जाने से रोकना चाहा। मगर सीता ने यह कहकर विद्रोह का बिगुल बजाया कि राम के बिना विरह के शोक में एक पल भी वह ज़िंदा नहीं रह सकती है। सत्यवान और सावित्री का दृष्टान्त देकर वन-गमन का औचित्य सिद्ध किया। उद्भ्रांत ने जिस सीता का चरित्र-चित्रण किया है, वह रावण की पुत्री जैसी है। मगर वाल्मीकि के अनुसार राजा जनक यज्ञ के लिए भूमि शोधन करते समय खेत में हल चला रहे थे, उसी समय हल के अग्रभाग से जोती गयी भूमि से एक कन्या प्रकट हुई। जिसका हल द्वारा खोदी गई रेखा को सीता कहते है, इसलिए इस तरह उत्पन्न होने के कारण सीता नाम रखा गया। जबकि लोक विश्वास के आधार पर अंधविश्वास को जन्म देनेवाली कहानी का विस्तार किया गया है। यह बात अलग है कि राजा दशरथ ने कन्या का तिरस्कार किया था। मगर राजा जनक अवैध संतान के रूप में सीता को पाकर ख़ुश हुए थे। यही नहीं, उसे पढ़ाने, लिखाने, शस्त्र संचालन सभी की शिक्षा में दक्ष भी किया था। संतानहीन होकर भी राजा जनक ने पुत्रेष्टि यज्ञ नहीं करवाया और न ही अपनी पुत्री को किसी वृद्ध-ऋषि को समर्पित किया। वरन् धूमधाम से स्वयंवर करके उसका विवाह किया। ‘त्रेता’ की सीता रावण की प्रशंसा करती है कि उसने कभी मर्यादा का उल्लंघन नहीं किया, अपहरण के समय में भी नहीं। स्वयंवर में रावण की उपस्थिति से सीता विचलित हो जाती है। अगर स्वयंवर के बारे में सोचा जाए तो यह एक वाहियात और स्त्री विरोधी परंपरा थी। क्योंकि उसमें योग्य-अयोग्य, युवा-वृद्ध कोई भी आदमी भाग ले सकता है। अगर रावण शिव-धनुष की प्रत्यंचा चढ़ा लेता तो नियमानुसार उसकी शादी रावण से हो जाती। रावण एक राजा था तो फिर वह भिक्षा कैसे माँगता! रावण तो राक्षस संस्कृति का प्रवर्तक था, आर्य संस्कृति का घोर विरोधी था। कँवल भारती के अनुसार उद्भ्रांत ने रावण को ब्राह्मण इसीलिए माना कि वह सीता को उसकी पुत्री बनाना चाहते थे। अपने इतिहास पर परदा डालने के लिए कुछ ब्राह्मण लेखकों ने रावण को ब्राह्मण बना दिया, पर यह विचार नहीं किया कि ब्राह्मण की हत्या पर प्रतिबंध था। यह प्रतिबंध तो 1817 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने समाप्त किया। राम ने रावण को मारकर ब्रह्म हत्या को प्राप्त किया।
कवि उद्भ्रांत ने इन मिथकों को वैज्ञानिक रूप देने के लिए स्वर्ण के रंगवाले हिरण, स्वर्ण आभूषण का मोह, सोने की लंका, आदि से जोड़कर विपत्तियों के आवाहन का कारण नारी के लोभ को ठहराया है। सीता के चरित्र-चित्रण में स्त्री विमर्श की भरपूर गुंजाइश थी। राजमहलों के भीतर क़ैद रहनेवाली महिलाओं की मर्यादाओं पर आधुनिक चिंतन भी अपरिहार्य है। सीता को लंका पुरी में चौदह माह तक निर्वासित जीवन जीना पड़ा। रावण वध के बाद जब सीता राम से मिलने आयी तो उसका खिला हुआ चेहरा देखकर राम ने कहा–“मैंने तुम्हें प्राप्त करने के लिए यह युद्ध नहीं जीता है। तुम पर मुझे संदेह है। जैसे आँख के रोगी को दीपक की ज्योति अच्छी नहीं लगती, वैसे ही तुम मुझे आज अप्रिय लग रही हो। तुम स्वतंत्र हो, यह दस दिशाएँ तुम्हारे लिए खुली है। मैं अनुमति देता हूँ, तुम्हारी जहाँ इच्छा हो, चली जाओ। रावण तुम पर अपनी दूषित दृष्टि डाल चुका है। ऐसी अवस्था में, मैं तुमको ग्रहण नहीं कर सकता। तुम चाहो तो लक्ष्मण, भरत या शत्रुघ्न किसी के भी साथ रह सकती हो और चाहे तो सुग्रीव या विभीषण के साथ भी रह सकती हो।” (वाल्मीकि रामायण युद्धखण्ड)
राम के ऐसे कठोर शब्द सुनने के बाद सीता के दिलो-दिमाग़ पर क्या गुज़री होगी, इसका उद्भ्रांत जी ने लेशमात्र भी उल्लेख नहीं किया है। इन कठोर शब्द–बाणों ने सीता का हृदय छलनी कर दिया था और उसके भीतर एक विद्रोहिणी नारी ने जन्म ले लिया था। इस विद्रोहिणी नारी को आदि कवि वाल्मीकि ने उभारा है, क्योंकि राम के व्यवहार से वह भी उद्वलित हो गए थे। राम का गुण-गान करने वाले वाल्मीकि भी तब सीता के पक्ष में खड़े हो गए थे और सीता पूरे प्रतिशोध के साथ राम पर बरस पड़ी। उसने सबके सामने ही राम से कहा:
कि मामसदृशं वाक्यमीदृशं श्रोत्र दारुणम।
रुक्ष श्रवयरो वीर प्राक़ृतः प्रकटमिव॥
आप ऐसी कठोर, अनुचित, कर्णकटु और रूखी बात मुझे क्यों सुना रहे हैं। जैसे बाज़ारू आदमी किसी बाज़ारू स्त्री से बोलता है, वैसे ही व्यवहार आप मेरे प्रति कर रहे हैं। जब आपने लंका में मुझे देखने के लिए हनुमान को भेजा था, उसी समय मुझे क्यों नहीं त्याग दिया? यदि आप मुझे उसी समय त्याग देते, तो मैंने भी हनुमान के सामने ही अपने प्राण त्याग दिए होते। तब आपको जीवन को संकट में डालकर यह युद्ध आदि का व्यर्थ परिश्रम नहीं करना पड़ता और न आपके मित्र लोग अकारण कष्ट उठाते। आपने मेरे शील-स्वभाव पर संदेह करके अपने ओछेपन का परिचय दिया है। इसके बाद सीता ने लक्ष्मण से कहकर चिता तैयार करवायी और वह यह कहकर कि “यदि मैं सर्वथा निष्कलंक हूँ, तो अग्निदेव मेरी रक्षा करें”, अग्नि–चिता में कूद पड़ी। वाल्मीकि ने लिखा है कि अग्नि ने सीता को रोममात्र भी स्पर्श नहीं किया। किन्तु वास्तव में हुआ यह होगा कि सीता को अग्नि में कूदने से पहले ही बचा लिया गया होगा, वरन् आग की लपटें किसी को नहीं छोड़तीं। जनता के सामने राम की शंका समाप्त हो गई थी और उन्होंने उसे अंगीकार कर लिया था। अधिकांश लेखकों द्वारा सीता के जीवन को वन में त्रासदी (tragedy) के तौर पर व्यक्त किया जाता है। वे जंगल में जीवन को ग़रीबी के साथ जोड़कर देखते हैं, न कि बुद्धि के तौर पर। साधु के पास कुछ नहीं होने पर भी कभी भी ग़रीब नहीं होता। वे लोग भूल जाते है कि भारत में धन-संपदा केवल कार्यकारी तौर पर मानी जाती है न की स्व-निर्माण के सूचक के तौर पर। सीता भी महाभारत की कुंती, उपनिषदों की जाबाला और भरत की माँ शकुंतला की तरह एकल माता है। महाभारत में अष्टावक्र की कहानी में वह अपने दादा, उद्दालक को अपना पिता मानता है। जब तक कि उसका चाचा श्वेतकेतु संशोधन नहीं कर लेता। यह ठीक इसी तरह है जिस तरह वाल्मीकि के राम के पुत्रों लव-कुश को समझा नहीं देते। केरल के वायनाड़ (wayanad) में सीता का उसके दोनों पुत्रों के साथ मंदिर बना है। केरल की रामायण में कई मोड़ ऐसे हैं जो वाल्मीकि रामायण में नहीं मिलते, वायनाड़ के स्थानीय लोगों का मानना है कि रामायण की घटनाएँ उनके इर्द-गिर्द हुईं।
फ़ादर कामिल बुल्के की पुस्तक ‘रामकथा’ के अनुसार सीता के जन्म को लेकर तरह-तरह की कहानियाँ कही जाती हैं। इण्डोनेशिया, श्रीलंका तथा भारत के आसपास के क्षेत्रों में सीता के पिता के रूप में कभी राजा जनक, तो कभी रावण और यहाँ तक कि दशरथ को भी दर्शाया गया है।
1. जनक आत्मजा—वाल्मीकि द्वारा रचित आदि रामायण में राम के क्रिया-कलापों की तारीफ़ में सीता को जनक की पुत्री बताया गया है। महाभारत में चार बार रामकथा की आवृति होती है। मगर कहीं पर भी सीता के रहस्यमय जन्म की कहानी का वर्णन नहीं है। यहाँ तक कि रामोपाख्यान में भी नहीं, सब जगह उसे जनक आत्मजा ही कहा है। रामोपाख्यान की शुरूआत में विदेहराजो जनकः सीता तस्य आत्मणाविभो।
हरिवंश की रामकथा में भी सीता की अलौकिक उत्पत्ति का उल्लेख नहीं मिलता।
जैन पउमचरियं के अनुसार जनक की पत्नी विदेहा से सीता अपने धवल आभामण्डल के साथ उत्पन्न हुई थी। जन्म होते ही आभामण्डल को एक देवता ने उसे उठा लिया था और किसी अन्य राजा के यहाँ छोड़ दिया। वाल्मीकि रामायण में जनक का कोई पुत्र नहीं है, किन्तु ब्रह्माण्ड पुराण, विष्णु पुराण, वायु पुराण में ‘अनुमान’ जनक का पुत्र कहा गया है। कालिका पुराण में ऐसा उल्लेख है कि नारद निस्संतान जनक को यज्ञ कराने का परामर्श देते हुए कहते है, कि यज्ञ के प्रभाव से दशरथ को चार पुत्र उत्पन्न हुए हैं। तदनुसार जनक यज्ञ के लिए क्षेत्र तैयार करते समय एक पुत्री के अतिरिक्त दो पुत्रों को भी प्राप्त करते हैं।
2. भूमिजा—सीता की अलौकिक उत्पत्ति का वर्णन वाल्मीकि रामायण में दो बार कुछ विस्तारपूर्वक किया गया है; कतिपय अन्य स्थलों पर भी इनके संकेत मिलते हैं। एक दिन जबकि राजा जनक यज्ञ-भूमि तैयार करने के लिए हल चला रहे थे, एक छोटी-सी कन्या मिट्टी से निकली। उन्होंने उसे पुत्री-स्वरूप ग्रहण किया तथा नाम सीता रखा। सीता जन्म का यह वृतान्त अधिकांश रामकथाओं में मिलता है।
सम्भव है कि भूमिजा सीता की अलौकिक जन्म-कथा सीता नामक कृषि की अधिष्ठात्री देवी के प्रभाव से उत्पन्न हुई हो। कृषि की उस देवी से सम्बन्ध रखने वाली सामाग्री का वर्णन किया गया है। मैं यह नहीं कहता कि यह वैदिक देवी और रामायणीय सीता अभिन्न है। वैदिक सीता ऐतिहासिक न होकर सीता अर्थात् लांगल-पद्धति के मानवीकरण का परिणाम है।
बलरामदास (अरण्यकाण्ड) लिखते हैं कि हल जोतते समय जनक ने मेनका को देखकर उसी के समान एक कन्या प्राप्त करने कि इच्छा प्रकट की थी। मेनका ने उनकी यह इच्छा जानकार उसको आश्वासन दिया कि मुझसे भी सुंदर कन्या तुझको प्राप्त होगी।
वाल्मीकि रामायण के उत्तरकाण्ड में जो वेदवती की कथा मिलती है, वह भी उस समय उत्पन्न हुई होगी। इस वृतान्त में सीता के पूर्व जन्म का वर्णन किया गया है, अतः उसकी उत्पत्ति के समय सीता के लक्ष्मी के अवतार होने का सिद्धान्त सर्वमान्य नहीं था, कथा इस प्रकार है:
ऋषि कुशध्वज की पुत्री वेदवती नारायण को पति-रूप में प्राप्त करने के उद्देश्य से हिमालय में तप करती है। उसके पिता की भी ऐसी अभिलाषा थी। किसी राजा को अपनी पुत्री प्रदान करने से इंकार करने पर कुशध्वज का उस राजा द्वारा वध किया गया था। किसी दिन रावण की दृष्टि उस कन्या पर पड़ती है। उसके रूप-लावण्य से विमोहित होकर वह उसे उसके केशों से पकड़ता है। अपना हाथ असि के रूप में बदलकर वेदवती उससे अपने केशों को काटकर अपने को विमुक्त करती है। अनन्तर वह रावण को शाप देकर भविष्यवाणी करती है, कि मैं तुम्हारे नाश के लिए अयोनिजा के रूप में पुनः जन्मग्रहण करूँगी। अन्त में, वह अग्नि में प्रवेश करती है और बाद में जनक की यज्ञभूमि में उत्पन्न होती है।
श्रीमद् भागवतपुराण तथा ब्रह्मवैवर्तपुराण में इस कथा में परिमार्जन किया गया है। कुशध्वज और उसकी पत्नी मलवाती लक्ष्मी की उपासना करते हैं और उनसे उनको पुत्री स्वरूप में प्राप्त करने का वर पाते हैं। जन्म ग्रहण करते ही लक्ष्मी वैदिक मंत्रों का गान करती है; इस कारण उन्हें वेदवती का नाम दिया जाता है। कुछ समय के उपरान्त वह हरि को पति रूप में वरण करने के लिए तप करने लगती है तथा रावण द्वारा अपमानित हो जाने पर वह उसे शाप देती है कि मैं तेरे विनाश का कारण बन जाऊँगी। अनन्तर वह योग के बलपर अपनी शरीर त्याग देती है और बाद में सीता के रूप में उत्पन्न होती है। यह स्पष्ट है कि सीता तथा लक्ष्मी के अपमानित होने के विश्वास की प्रेरणा से वेदवती की कथा को नवीन रूप दिया है।
3. रावणात्मजा—सीता-जन्म की कथाओं में, जिनका हमें यहाँ विश्लेषण करना है, सर्वाधिक प्राचीन तथा प्रचलित कथा वह है जिसमें सीता को रावण की पुत्री माना गया है। भारत, तिब्बत, खोतान (पूर्वी तुर्किस्तान), हिन्देशिया और श्याम में हमें यह कथा मिलती है। भारतवर्ष में इस कथा का प्राचीनतम रूप वसुदेवहिणिड में सुरक्षित है। इसके अनुसार विद्याधर मय ने रावण के पास जाकर उसके साथ अपनी पुत्री मन्दोदरी के विवाह का प्रस्ताव रखा। शरीर के लक्षणों का ज्ञान रखने वालों ने कहा कि मन्दोदरी की पहली संतान अपने कुल के नाश का कारण बनने वाली है, रावण मन्दोदरी का सौन्दर्य देखकर मोहित हो चुका था, अतः उसने उसकी पहली संतान का त्याग देने का निर्णय कर उसके साथ विवाह किया। बाद में मन्दोदरी ने एक पुत्री को जन्म दिया था। उसे रत्नों के साथ एक मंजूषा में रखकर मंत्री को आदेश दिया कि उसे कहीं छोड़ दिया जाए। मंत्री ने उसे जनक के खेत में रख दिया। बाद में जनक से कहा गया कि यह बालिका हल की रेखा से उत्पन्न हुई है। जनक ने उसे ग्रहण किया। महारानी धरिणी को सौंप दिया। गुणभद्र के उत्तरपुराण की निम्नलिखित कथा में वेदवती वृत्तांत तथा वसुदेवहिणिड की कथा का समन्वय किया गया है–
“अलकापुरी के राजा अमितवेग कि पुत्री राजकुमारी मणिमती विजयार्थ (विन्ध्य) पर्वत पर तप करती थी। रावण ने उसे प्राप्त करने का प्रयास किया। सिद्धि में विघ्न उत्पन्न होने के कारण मणिमती ने क्रुद्ध होकर निदान किया कि मैं रावण कि पुत्री बनकर उसके नाश का कारण बन जाऊँगी। उस निदान के फ्लस्वरूप वह मन्दोदरी के गर्भ से उत्पन्न हुई। उसका जन्म होते ही लंका में भूकंप आदि अनेक अपशकुन होने लगे। यह देखकर ज्योतिषियों ने कहा कि यह कन्या रावण के नाश का कारण होगी। इस पर रावण ने मारीच को यह आदेश दिया कि वह उसे किसी दूर देश में छोड़ दे। मन्दोदरी ने कन्या को द्रव्य तथा परिचयात्मक पत्र के साथ-साथ एक मंजूषा में रख दिया। मारीच ने उसे मिथिला देश कि भूमि में गाड़ दिया, जहाँ वह उसी दिन कृषकों द्वारा पाई गई। कृषक उसे जनक के पास ले गए। मंजूषा को खोलकर जनक ने उसमें से कन्या को निकाल लिया तथा उसका पुत्रीवत पालने का आदेश देकर अपनी पत्नी वसुधा को सौंप दिया। “महाभागवत पुराण” में भी इसका उल्लेख है कि सीता मन्दोदरी से उत्पन्न हुई है।
सीता मंदोदरीगर्भे संसुता चारूरुपिणी।
क्षेत्रजा तनयाप्यस्य रावणस्य रघुत्तम॥
गुणभद्र के उत्तरपुराण के अनुसार रावण की पटरानी की कन्या की जन्म पत्रिका में उसके द्वारा पिता का नाश होने की भविष्यवाणी के कारण वह समुद्र में फेंकी जाती है और बचाने पर कृषकों द्वारा पाली जाती है। इसका नाम लीलावती है।
4. पद्मजा सीता—रामायण की भूमिजा सीता की कथा इसमें स्वीकृत है। सीता और लक्ष्मी का अभेद है। लक्ष्मी के अनेक नामों में एक नाम पदमा है और नामों ने सम्भवतः पद्मजा सीता की आधारभूमि तैयार की है।
रावण एक विशिष्ट स्थान पर बार-बार जाता है। वह आरम्भ में वहाँ एक पर्वत देखता है, त्तपश्चात नगर देखता है, फिर जंगल देखता है, उसके बाद एक विस्तृत गड्ढा और अंत में कमलयुक्त एक सुंदर सरोवर। वहाँ एक लिंग स्थापित कर रावण सरोवर के कमलों से शिव उपासना करता है। एक कनक-पद्म पर उसे एक कन्या दृष्टिगत होती है, जो लक्ष्मी की है। वह उसे पुत्री के रूप में ग्रहण कर लंका ले आता है और मन्दोदरी को दे देता है। नारद एक दिन मन्दोदरी के यहाँ पहुँचते हैं और उसकी गोद में उस कन्या को देखकर कहते हैं कि यह कन्या बाद में रावण की प्रेमपात्री बनेगी (कन्या भविष्यति अभिलाषभूमि चपलेद्रस्य)। यह सुनकर मन्दोदरी उस कन्या को स्वर्ण पेटिका में बंद करके किसी दूर देश में छोड़ आने का आदेश देती है। यज्ञ के लिए स्वर्ण हल चलाते हुए जनक उसे प्राप्त करते हैं।
5. रक्तजा सीता—सीता जन्म की अनेक अर्वाचीन कथाओं में सीता ऋषियों के रक्त से उत्पन्न मानी जाती है।
रावण दिग्विजय करते-करते दण्डकारण्यवासी ऋषियों से राजकर लेते हैं। द्रव्य के अभाव में वे रावण को रक्त की कुछ बूँदें प्रदान करते हैं, जिन्हें ऋषि गृत्समद के पात्र में एकत्र किया जाता है। उस पात्र में कुश का किंचित रस था, जिसमें गृत्समद के मंत्रो के फलस्वरूप लक्ष्मी विद्यमान थी। रावण उस पात्र को लंका ले जाता है और मन्दोदरी को उसे यह कहकर देता है: “इसमें तीव्र विष भरा है” कुछ समय बाद रावण दूसरी विजय-यात्रा के लिए चला जाता है। यह सुनकर कि रावण परस्त्रियों के साथ रमण करता है, मन्दोदरी आत्महत्या के उद्देश्य से उस रक्त का पान कर लेती है और गर्भवती हो जाती है। इस पर वह तीर्थयात्रा के लिए निकलती है। और गर्भ प्रसव करके कुरुक्षेत्र में भ्रूण गाड़ देती है। बाद में जनक के यज्ञ के लिए वहाँ हल जोतते समय एक कन्या भूमि से निकलती है। जनक उसे पुत्रीवत ग्रहण कर उसका नाम सीता रखते है।
उत्तर भारत की एक अन्य कथा इस प्रकार है: जनक ने महादेव के धनुष के प्रभाव से रावण को कई बार पराजित किया था। अद्भुत रामायण के वृत्तांत के अनुसार रावण राजस्व के स्थान पर ऋषियों का रक्त लेता है। इस पर ऋषि शाप देते है, कि इस रक्त से तुम्हारा नाश होगा। रावण उस शाप की अवज्ञा करता है और उस रक्त को एक घड़े में रखकर उसे लंका ले जाता है। उस समय से लंका राज्य में अनावृष्टि आदि अनिष्ट घटित होते हैं, शास्त्री रावण से कहते हैं कि जब तक यह रक्त लंका में विद्यमान है विपत्तियों का अंत नहीं होगा। यह सुनकर रावण जनक से प्रतिकार लेने के उद्देश्य से उस घड़े को मिथिला में गड़वाते हैं। अब वहाँ भी वे ही अनिष्ट घटित होने लगते हैं। मंत्री राजा को रानी के साथ जाकर हल जोतने का परामर्श देते है। ऐसा करते हुए जनक उस घड़े को प्राप्त करते हैं, जिसमें ऋषिरक्त से उत्पन्न सीता दिखलाई पड़ती है। इसके बाद सर्व अनर्थ शांत हो जाते है। अन्यत्र भी उसका उल्लेख किया गया है कि मिथिला में रक्त गड़ा था, कन्या नहीं।
6. अग्निजा सीता—लंका के साथ सीता के सम्बन्ध का अंतिम रूप आनन्द रामायण में उपलब्ध है। सीता-जन्म का यह वृत्तान्त वेदवती की कथा पर आधारित प्रतीत होता है। कठोर तपस्या के उपरान्त राजा पद्माक्ष ने लक्ष्मी को पुत्रीरूप में प्राप्त किया था और उसका नाम पद्मा रखा था। पद्मा के स्वयंवर के अवसर पर युद्ध हुआ और उसका पिता पद्माक्ष मारा गया। यह देखकर पद्मा ने अग्नि में प्रवेश किया, एक दिन वह अग्निकुंड से निकालकर रावण द्वारा देखी जाती है। जिस पर वह शीघ्र ही अग्नि में प्रवेश करती है। किन्तु रावण अग्नि को बुझा देता है और उसकी राख में पाँच दिव्यरत्न देख कर उन्हें एक पेटिका में रख देता है और लंका ले जाता है। लंका में कोई भी उस पेटिका को उठा नहीं सकता, उसे खोला जाता है और उसमें से एक कन्या मिलती है। मंदोदरी के परामर्श से यह पेटिका मिथिला में गाड़ दी जाती है। बाद में उसे एक शुद्र पाता है और खोलकर तथा उसमें एक कन्या देखकर राजा को सौंपता है। जनक उसे पुत्री रूप में स्वीकार करते है।
7. फल अथवा वृक्ष से उत्पन्न—दक्षिण भारत के एक वृत्तांत के अनुसार लक्ष्मी एक फल से उत्पन्न होती है और वेदमुनि नामक एक ऋषि द्वारा उनका पालन पोषण होता है उनका नाम सीता है और बाद में वह समुद्र तट पर तपस्या करने जाती है। उनके सौंदर्य के विषय में सुनकर रावण उसके पास पहुँचता है, जिस पर वह अग्नि में प्रवेश कर भस्मीभूत हो जाती है। राख को एकत्र कर वेदमुनि उसे एक स्वर्णयष्टि में बंद कर देता है। बाद में यह यष्टि रावण के पास पहुँच जाती है, जो उसे अपने कोषागार में रख देता है। कुछ समय के उपरान्त उस यष्टि से आवाज़ सुनाई पड़ती है। उसे खोला जाता है और उसमें एक लघु कन्या के रूप में परिणत सीता दिखाई पड़ती है। ज्योतिषी कहते हैं कि यह कन्या सिंहल के नाश का कारण सिद्ध होगी: इस कारण रावण उसे एक स्वर्ण मंजूषा में बन्द करके समुद्र में फेंक देता है। यह मंजूषा लहरों पर तैरती हुई बंगाल की ओर बह जाती है और गंगा में प्रविष्ट होकर एक खेत तक पहुँच जाती है। वहाँ कृषक उसे देखते हैं और अपने राजा को दे देते हैं।
8. दशरथात्मजा—दशरथ की पटरानी मन्दोदरी के सौंदर्य का वर्णन सुनकर रावण दशरथ के पास जाता है और मंदोदरी की याचना करता है। मन्दोदरी यह सुनकर कि उसका पति उसे दे देने को उद्यत-सा हो रहा है, अपने भवन में जाती है और जादू के द्वारा एक दूसरी मन्दोदरी उत्पन्न करती है, जिसे रावण ले जाता है। बाद में वास्तविक मन्दोदरी से सच वृत्तांत सुनकर दशरथ घबराते हैं। यह नई मन्दोदरी अक्षतयोनि है जिससे रावण को धोखा होने का पता चलेगा। अनन्तर दशरथ लंका जाते हैं और छिपकर उस नवीन मन्दोदरी से मिलते हैं। बाद में रावण-मन्दोदरी का विवाह मनाया जाता है और मन्दोदरी के एक पुत्री उत्पन्न होती है। उसकी जन्म कुंडली से पता चलता है कि उसका पति रावण-हंता सिद्ध होगा। अतः उसे पेटिका में बंद करके समुद्र में फेंका जाता है। महर्षि कली उसे पाते हैं और उसका पालन-पोषण करते हैं।
अग्नि परीक्षा के बाद सीता ने राम जैसे अविश्वासी पुरुष को त्याग क्यों नहीं दिया? शायद रचनाकार अपने कथानक में और मानविक पुट देना चाह रहा था। तभी तो सीता के गर्भ में पल रहे बच्चे की चिंता के लिए उसने जीवन के शेष दिन वाल्मीकि के आश्रम में बिताए। यह तो माँ की ममता ही थी कि इतना कष्ट सीता ने सहन किया। कँवल भारती के अनुसार हज़ारों साल की यात्रा के बाद भी हिन्दू जनता राम के अपराध में कोई प्रतिरोध नहीं देखती, राम को अपराधी नहीं मानती, दुःख तो इस बात का है कि स्त्री विमर्श से जुड़ी अनेक हिन्दू स्त्रियाँ सीता की पीड़ा से जुड़ न सकीं। वे अभी भी स्त्री-विरोधी चौपाइयों का श्रद्धा से पाठ करती हैं और गद-गद होती हैं। कारण एक ही था अवतारवाद और कर्म-फल के सिद्धान्त की मान्यता ने जनता में यह विश्वास पैदा कर दिया कि राम मनुष्य नहीं हैं, वह विष्णु के अवतार हैं। जो कुछ कर रहे हैं या उनके साथ घट रहा है, वह सब उनकी लीला मात्र है। सीता एक विद्रोहिनी स्त्री थी। वह “असूर्यम्पश्या” की तरह नहीं रहकर अपने पति के साथ जाना, क्या विद्रोह नहीं था। सीता ही वह पहली स्त्री थी जिसने राम के द्वारा राक्षसों के वध किए जाने का घोर विरोध किया। वाल्मीकि रामायण के अनुसार उसने कहा था–यह आप अच्छा काम नहीं कर रहे हैं। मुझे चिंता हो रही है कि इतनी हिंसा के बाद आपका कल्याण कैसे होगा? आप इन लोगों की क्यों हत्याएँ कर रहे है? इन्होंने आपका क्या बिगाड़ा है? बिना अपराध के ही लोगों को मारना संसार के लोग अच्छा नहीं समझते हैं। यह अधर्म है। शस्त्र का उपयोग करने से आपकी बुद्धि कलुषित हो गयी है। जब आप वल्कल वस्त्र धारण कर वन में आ गए है; तो मुनिवृत्ति से ही क्यों नहीं रहते? हम अयोध्या में नहीं है, तपोवन में ही हैं। यहाँ के अहिंसामय धर्म का पालन करना ही हमारा कर्त्तव्य होना चाहिए।
राम ने सीता को उत्तर दिया था, “मैं अपने प्राण छोड़ सकता हूँ, तुम्हारा और लक्ष्मण का भी त्याग कर सकता हूँ, किन्तु ब्राह्मणों के लिए की गयी अपनी प्रतिज्ञा को कदापि नहीं छोड़ सकता।”
सवाल यह नहीं है कि राम ने क्या उत्तर दिया वरन् सवाल यह है कि जिस सीता ने मनु-व्यवस्था को तोड़कर राम को धर्म का उपदेश दिया हो, उसके उस विद्रोह को कवि उद्भ्रांत ने रेखांकित क्यों नहीं किया?
डॉ. आनन्द प्रकाश दीक्षित के अनुसार त्रेता की सीता अपराध बोध से पीड़ित है। वह अपने आपको स्वर्णमृग की घटना के बहाने माया, मोह, लोभ से ग्रस्त स्वीकार करती है और श्री राम से अपने बिछोह के चौदह महीनों को उसके परिणाम स्वरूप ‘महादण्ड’ मानती है। यह उसका कर्मफल था। अपराध बोध के कारण ही वह इन त्रिदोषों की वार्ता को दीर्घ व्यवहार के रूप में अग्नि-परीक्षा की घड़ी तक खींच ले जाती है। शायद रामकथा-काव्य की परंपरा में अपराध-बोध-ग्रस्त सीता का चित्रण पहला ही है।
पहला है तो है, किन्तु तनिक ठहर कर सोचें कि न्यायालय में खड़ी हुई किसी अपहृता की यह आत्मस्वीकृति और अपहरणकर्ता के मर्यादायुक्त व्यवहार को सूचित करने वाला यह और इसी प्रकार के दूसरे बयान क्या अभियुक्त को दोषमुक्त कर दिए जाने के पक्ष में नहीं जाते? क्या इन सब बयानों और आगे मन्दोदरी के कथनों के बाद भी उसके अपने पक्ष में कहने की आवश्यकता रह जाती है? यदि नहीं तो रावण के दोषमुक्त हो जाने के बाद रामावतार और रावण-बोध की सार्थकता क्या रहेगी? सीता द्वारा रावण को पितृवत आदृत किए जाने की बात जान (पढ़) लेने के बाद पाठक की क्या गति होगी? क्या उसके लिए रावण-वाद की कथावाला शेषांश अपरिहार्य और विश्वसनीय बना रहेगा; आस्वाद्य होगा? क्या पाठक पूछ सकता है कि जब सीता, रावण के मर्यादापूर्ण आचरण के प्रति इतनी आश्वस्त थी, तब उन्होंने अशोकवाटिका में हनुमान को इसका संकेत क्यों नहीं दिया। यदि दिया होता तो युद्ध रुक जाता? अनर्थ घटित होने से बच जाता। रावण के हठ और छद्मपूर्ण आचरण के कारण मान लें तो युद्ध अनिवार्यतः होना ही था; तो भी क्या अग्निपरीक्षा के पश्चात अयोध्या लौटने पर सीता ने जब कभी प्रसन्न भाव से राम को रावण के मर्यादित व्यवहार के बारे में बताया होगा, तब श्रीराम को अपने किए पर पछतावा नहीं हुआ होगा? इस प्रकार के प्रश्न पाठक को विकल कर सकते हैं। इससे कथा-नियोजन में व्याघात पहुँचता प्रतीत होता है। देखें, कदाचित मन्दोदरी या शूर्पणखा के वक्तव्य से इस समस्या का कोई समाधान मिल जाय।
भरत आनंद कौसल्यायन ने तुलसीदास की सीता के बारे में उसे कन्यादान कहना तथा राजा जनक द्वारा दहेज़ देने की प्रथा का उल्लेख कर भारतीय संस्कृति की विकृति की ओर ध्यान आकृष्ट किया है। सीता का कन्यादान दान नहीं था। वह तो स्वयंवर था। जहाँ स्वयं वरण हो वहाँ दान कैसा? इसी तरह आज भी दहेज़ प्रथा न जाने कितनी लड़कियों के माता-पिता के जीवन का अभिशाप बनी हुई है। क्या यह हो सकता है? रामचरित्र की कथा जगह-जगह पर सुनाई जाए, मगर इस देश से दहेज़-प्रथा समाप्त हो जाए। बालकाण्ड के श्लोक में यह बात आसानी से देखी जा सकती है:
• सुखमूल दुलहू देही दंपती पुलक तनु हुलस्यों हियो,
करि लोक वेद विधानु कन्यादानु नृपभूषन कियो।-मानस बालकांड
• दाइज अमित न सकिय कहि दीन्ह बिदेहँ बहोरि।
जो अवलोकत लोकपति लोक संपदा थोरि॥३३३॥-मानस बालकांड
तुलसीदास जी की सीता राम की सहयोगिनी नहीं, सह-धर्मिणी नहीं, वरन् एकदम किंकरी है, तो क्या आश्चर्य है कि आज की इस विकृत संस्कृति में स्त्री को पाँव तले की जूती कहा जाए या समझा जाए।
“तुलसीस सीलु सनेहु लखि निज किंकरी करि मानिबी॥”
इस तरह राम के विवाह के बाद राजतिलक के मंगल कार्य में किसी ने बाधा डाली तो वह स्त्री थी, राम वनवास का कारण भी स्त्री बनी। इसी तरह राजा दशरथ के मृत्यु का कारण भी स्त्री बनी।
अग्निपरीक्षा—राम-रावण युद्ध हो चुका है, सीता लौट आई है। यह तो ज्ञात ही नहीं था कि वास्तविक सीता का कभी हरण ही नहीं हुआ। वास्तविक सीता तो अग्नि में सुरक्षित रही। रावण तो केवल उनके प्रतिबिंब को उन जैसी बनावटी मूर्ति को ले गया था। तब भी लोकापवाद के लिए स्थान था ही। रामचन्द्र ने सीता को अथवा उनके प्रतिबिंब को सार्वजनिक तौर पर अपनी शुद्धि प्रमाणित करने के लिए कहा। प्रतिबिंब के अग्नि-प्रवेश द्वारा और आग में से वास्तविक सीता के सकुशल बाहर आने से सीता की शुद्धि प्रमाणित हुई।
प्रचलित वाल्मीकि रामायण में अग्नि परीक्षा के संदर्भ में जो कथा दी गयी है, उसी कथा को कँवल भारती ने अपनी पुस्तक ‘त्रेता-विमर्श और दलित चिंतन’ में प्रकट किया है कि जब राम ने सीता के चरित्र पर संदेह प्रकट किया कि जब वह दूसरे घर में रही है तो कोई आकर्षण नहीं रहा। वह जहाँ चाहे चली जा सकती है, राम के यह कठोर वचन सुनकर सीता के अपने सतीत्व की शपथ खाते हुए लक्ष्मण द्वारा तैयार की गयी चिता में प्रवेश करने का प्रसंग है। अंत में अग्नि देवता आग में से निकालकर सीता के सतीत्व का साक्ष्य देते हुए उसे ग्रहण करने का अनुरोध करते हैं। तब राम कहते हैं कि मुझे सीता के चरित्र पर संदेह नहीं था। अगर मैं अग्नि परीक्षा नहीं लेता तो लोग मुझे कामात्मा होने का आक्षेप लगाते।
शायद सीता के अग्नि परीक्षा का यह वर्णन बाद में जोड़ा गया है। इसीलिए महाभारत समेत प्राचीन पुराणों में भी उदाहरणार्थ—हरिवंश, विष्णुपुरण, वायुपुराण, भागवत पुराण, नृसिंह पुराण, अनामक जातकम, स्याम का रामजातक, खोतानी और तिब्बती रामायण, गुणभद्रकृत, उत्तर पुराण में अग्नि परीक्षा का निर्देश नहीं मिलता।
रामोपाख्यान में विभीषण और लक्ष्मण सीता को राम के पास ले जाते हैं।
पउमं चरीय में भी राम और सीता के पुनर्मिलन के समय देवताओं की पुष्पवृष्टि तथा सीता की निर्मलता के पक्ष में उनकी सक्षमता के अतिरिक्त किसी भी परीक्षा का उल्लेख नहीं मिलता। एक बात अवश्य लिखी गई है कि सीता त्याग और सीता के पुत्र द्वारा राम सेना से युद्ध के पश्चात राम अपने परिवार के साथ अयोध्या लौटे तो राम ने सीता को लोगों के सामने अपने सतीत्व का प्रमाण देने को बात कही तो सीता ने कहा—मैं तुला पर चढ़ सकती हूँ, आग में प्रवेश कर सकती हूँ, लोहे की तपी हुई लंबी छड़ धारण कर सकती हूँ अथवा मैं उग्र विष भी पी सकती हूँ। राम ने अग्नि परीक्षा को उचित समझा और 300 हाथ गहरा अग्निकुण्ड खोदने का आदेश दिया। अग्नि प्रज्वलित होने पर सीता ने सतीत्व की शपथ खाकर प्रवेश किया। सीता के प्रवेश करते ही वह कुण्ड स्वच्छ जल से भर गया। उसके बाद जब राम ने उससे क्षमायाचना की और अयोध्या में निवास करने का अनुरोध किया तो सीता ने इंकार कर दिया और जैन धर्म में दीक्षा लेने के लिए चली गई।
कथा सरितसागर में राम द्वारा सीता की परीक्षा लेने का उल्लेख नहीं है। मगर वाल्मीकि आश्रम में अन्य ऋषि सीता के चरित्र पर संदेह करते हैं, तो सीता स्वयं कोई भी परीक्षा देने को तैयार हो जाती है। उसके लिए लोकपाल टीटिभा सरोवर बनाते है। जब सीता जल में प्रवेश करती है, तो पृथ्वी देवी प्रकट होकर उसे अपने गोद में ले लेती है और सरोवर के उस पार पहुँचा देती है। यह देखकर ऋषि राम को शाप देना चाहते हैं, मगर सीता ऐसा नहीं करने का अनुरोध करती है।
अन्य रचनाओं में अधिकांश मध्यकालीन रामायणों में माया सीता अग्नि में प्रवेश करती है और वास्तविक सीता उसमें से प्रकट हो जाती है। आनन्द रामायण के अनुसार सीता अपने हरण के पूर्व तीन रूपों में विभक्त हो गई थी, अग्नि परीक्षा में समय वह एक हो जाती है। कृतिवास रामायण में मन्दोदरी का शाप अग्निपरीक्षा का कारण माना गया। मन्दोदरी ने राम के दर्शनों की आशा में सीता को यह कहकर शाप दिया था कि तुम्हारा यह आनन्द अकस्मात् निरानन्द हो जाएगा। लंका की स्त्रियों ने भी उस अवसर पर सीता को शाप दिया था।
रामायणमसिही में मन्दोदरी सीता को राम के पास ले जाती और राम स्वयं सीता को आग में डालते हैं।
ब्रह्मचक्र के अनुसार सीता ने राम का संदेह देखकर आग जलाने का आदेश दिया और सीता के अग्नि में प्रवेश करते ही अग्नि बुझ गई। कश्मीरी रामायण में सीता को चौदह दिनों तक जलते हुए दिखाया है और बाद में वह सोने की तेजस्विता की तरह बाहर निकलती है। ‘अद्भुत रामायण’ और ‘मलयन रामायण’ में रावण द्वारा सीता की छाया सीता या माया सीता का अपहरण किया जाता है, न की वास्तविक सीता का। यह वास्तव में वेदवती होती है, और अग्नि परीक्षा का अर्थ वास्तविक सीता को वापस लाना है। ग्रीक माइथोलोजी में भी मूल नायिका की जगह डुप्लिकेट नायिका के अपहरण के कथानक मिलते हैं। हेरोडोटस (Herodotus) कहता है कि पेरिस (Paris) द्वारा हेलेन (Helen) का अपहरण कर ट्रॉय (Troy) ले जाया गया है, वह असली हेलेन नहीं है, बल्कि उसके जैसे दिखने वाली है और असली हेलेन मिश्र में है, जिसके लिए ग्रीक और ट्रोजन (Trojan) आपस में युद्ध करते हैं। इस तरह विश्व–संस्कृति में पुरुषों का सम्मान पाने के लिए स्त्री की पवित्रता, सतीत्व और फ़िडेलिटी (fidelity) ज़रूरी है। अग्नि परीक्षा को शुद्धिकरण की दृष्टि से भी देखा जाता है। महाभारत में द्रौपदी जब तक एक पति से दूसरे पति के पास जाती है तो आग के माध्यम से गुज़रकर अपने आप को शुद्ध कर लेती है।
अन्य दृष्टान्तों में सीता की निम्नलिखित परीक्षाओं का उल्लेख मिलता है:
विषैले साँपों से भर घड़े में हाथ डालना, मदमस्त हथियों के सामने फेंका जाना, सिंह और व्याघ्र के वन में त्याग किया जाना, अत्यन्त तप्त लोहे पर चलना।
सीता-त्याग—आदि रामायण, महाभारत और प्राचीन पुराणों में सीता त्याग का अभाव है। जबकि दूसरी रचनाओं में सीता त्याग के भिन्न करणों में लोक अपवाद, धोबी की कथा, रावण के चित्र, परोक्ष कारणों में भृगु, तारा, शुक का साथ, लक्ष्मण का अपमान, सुदर्शन मुनि की निंदा, वाल्मीकि को प्रदत्त वरदान आदि से दिया गया है। जबकि गीतावली, अध्यात्म रामायण, मधुराचार्य, आनन्द रामायण में अवास्तविक सीता के त्याग की बात कही गई है।
सीता-त्याग के भिन्न-भिन्न कारण-रामकथा के अधिकांश लेखकों ने प्रचलित वाल्मीकि रामायण के उत्तरकाण्ड के अनुकरण पर सीतात्याग का वर्णन किया है। परित्याग के विभिन्न कारणों के अनुसार ये वृत्तांत तीन वर्गों में विभक्त किये जा सकते हैं।
• लोकापवाद—उत्तरकाण्ड की कथा इस प्रकार है। गर्भवती सीता किसी दिन राम के सामने तपोवन देखने की इच्छा प्रकट करती है। उनको अगले दिन भेज देने की प्रतिज्ञा करके राम अपने मित्रों के साथ बैठकर परिहास की कहानियाँ सुनते हैं—कथा बहुबिधा: परिहास समन्विताः। संयोगवश राम भद्र से पूछते हैं, “मेरे, सीता तथा भरत आदि के विषय में लोग क्या कहते हैं?” तब भद्र सीता के कारण हो रहे लोकापवाद और जनता के आचरण पर पड़नेवाले उसके कुप्रभाव का उल्लेख करता है। लोग कहते हैं—हमको भी अपनी स्त्रियों का ऐसा आचरण सहना होगा।
यह सुनकर राम लक्ष्मण को बुलाते हैं और सीता को गंगा के उस पार छोड़ आने का आदेश देते हैं। तपोवन दिखलाने के बहाने लक्ष्मण सीता को रथ पर ले जाते हैं और वाल्मीकि के आश्रम के समीप छोड़ देते हैं।
वाल्मीकि कथा कालिदास के रघुवंश में भी मिलती है। अंतर यह है कि इसे भद्र मित्र न होकर गुप्तचर बताया गया है। उत्तररामचरित, कुंदमाला, दशावतारचरित आदि प्राचीन रचनाओं में इस प्रकार का वर्णन किया गया है। उत्तररामचरित में गुप्तचर का नाम दुर्मुख है। आध्यात्म रामायण तथा आनन्द रामायण में इसका नाम विजय माना गया है।
“चलित राम” के अनुसार दो छद्मवेशी राक्षस राम को सीता के विरोध के लिए उकसाते है, जबकि “असमिया लवकुशर युद्ध” में राम के एक स्वप्न की चर्चा है।
विमलसुरीकृत पउमचरियं में सीता त्याग का विस्तृत तथा किंचित परिवर्द्धित वर्णन किया गया है।
राम स्वयं गर्भवती सीता को वन में विभिन्न चैत्यालय दिखला रहे थे कि राजधानी के नागरिक उनके पास आए और अभयदान पाकर उन्होंने अपने आने का कारण बताया, पहले वे साधारण जनता के दुष्ट स्वभाव का वर्णन करते हैं; जिसके निम्नलिखित अवगुण होते हैं: पवमोहित्यमई (पापमोहितमति), परदोसगहणरउ (परदोषग्रहरणरत), सहववको (स्वभाव–कुटिल), सठ्सिलों (शठशील), ऐसी जनता में सीता के अपवाद को छोड़कर किसी और बात की चर्चा नहीं होती। नागरिकों का यह भाषण सुनकर राम ने लक्ष्मण के साथ परामर्श किया, किन्तु लक्ष्मण ने सीतात्याग का विरोध किया। राम को सीता पर संदेह हुआ। अतः उन्होंने अपने सेनापति कृतान्तवदन को बुलाकर आदेश दिया कि जैन-मंदिर दिखलाने के बहाने सीता को गंगा के पार भयानक (निमानुष) वन में छोड़ दो। सेनापति ने ऐसा ही किया। संयोग से पुण्डरीकपुर के राजा बज्रपंध ने उस वन में सीता का विलाप सुन लिया। वह सीता को अपने भवन में ले आया और उसके यहाँ सीता के दो पुत्रों का जन्म हुआ।
रविषेण के ‘पद्मचरित’ में सीता को ग्रहण करने के दुष्परिणाम के वर्णन में परिवर्द्धन किया गया है। समस्त प्रजा मर्यादा-रहित बताई जाती है। स्त्रियों का हरण हुआ करता है और बाद में पुनः वे अपने-अपने घर लौट कर स्वीकृत हो जाती हैं।
हेमचन्द्रकृत योगशास्त्र में सीतात्याग के पश्चात की एक घटना का वर्णन किया गया है। इनके अनुसार राम अपनी पत्नी की खोज में वन गए थे, किन्तु सीता का कहीं भी पता नहीं चल सका। राम ने सोचा कि सीता कहीं किसी हिंस्र पशु द्वारा मारी गई है। अतः उन्होंने घर लौटकर सीता के श्राद्ध का आयोजन किया।
• धोबी का वृतान्त—सीता त्याग की कथाओं का एक दूसरा वर्ग मिलता है, जिसमें लोकापवाद का एक विशेष उदाहरण प्रस्तुत किया गया है। एक पुरुष (बाद में यह धोबी कहा जाता है) अपनी पत्नी को, जो घर से निकली थी; वापस लेने से इन्कार करते हुए कहता है, “मैं राम की तरह नहीं हूँ, जिन्होंने दीर्घकाल तक दूसरे के घर में रहने के पश्चात सीता को ग्रहण किया।”
इस वृतान्त का सर्व प्रथम वर्णन सम्भवतः आजकल गुणादय कृत वृहत्कथा में हुआ था और अब सोमदेव-कृत कथासरित्सागर में सुरक्षित है। कथा इस प्रकार है—एक दिन अपने नगर में गुप्त-वेश में घूमते हुए राजा ने देखा कि एक पुरुष अपनी स्त्री को हाथ से पकड़कर अपने घर से निकाल रहा है और यह दोष दे रहा है कि तू दूसरे के घर गई थी। इस पर वह स्त्री कहती है—राम ने सीता को राक्षस के घर रहने पर भी नहीं छोड़ा; यह मेरा पति राम से बढ़कर है, क्योंकि यह मुझे बंधु के गृह जाने पर भी अपने घर से निकाल रहा है। यह सुनकर राम को बहुत दुःख हुआ और उन्होंने लोकापवाद के भय से गर्भवती सीता को वन में छोड़ दिया।
भागवतपुराण में जो वृतान्त मिलता है वह कथासरित्सागर की उपर्युक्त कथा से बहुत कुछ मिलता-जुलता है।
जैमिनीय अश्वमेध तथा पद्मपुरण की सीतात्याग विषयक कथाओं का मूल-स्रोत एक ही प्रतीत होता है; क्योंकि दोनों में शाब्दिक समानता के अतिरिक्त एक ही नया तत्त्व मिलता है। जिस पुरुषों ने अपनी पत्नी को निकाला वह धोबी कहा जाता है।
आगे चल कर धोबी की यह कथा व्यापक हो गई है। तमिल रामायण का उत्तरकाण्ड, आनन्द रामायण, नर्मद्कृत गुजराती रामायण सार, रामचरितमानस के प्रक्षिप्त लवकुश-काण्ड आदि में इसका वर्णन किया गया है। तिब्बती रामायण का वृतान्त कथासरित्सागर तथा भागवत-पुराण की कथा से विकसित प्रतीत होता है। उसमें जनश्रुति का प्रभाव भी स्पष्ट दिखाई पड़ता है। राम किसी पुरुष को अपनी व्यभिचारिणी पत्नी से झगड़ा करते सुनते हैं। पति कहता है–तुम अन्य स्त्रियों की तरह नहीं हो। इस पर पत्नी उत्तर देती है–तुम स्त्रियों के बारे में क्या जानते हो, सीता को देख लो; एक लाख वर्ष तक वह दशग्रीव के साथ रही, फिर भी राम ने उसे ग्रहण कर लिया।
यह सुनकर राम को सीता के विषय में संदेह उत्पन्न होता है और वह छिपकर उस स्त्री से मिलते हैं। स्त्रियों का स्वभाव समझाते हुए वह राम से यों कहती है–ज्वर-पीड़ित मनुष्य जिस प्रकार शीतल सरिता का निरन्तर स्मरण करता है, ऐसे से ही काम-पीड़ित स्त्री रूपवान पुरुष का निरन्तर स्मरण करती रहती है। जब तक उसे कोई देखता अथवा सुनता हो वह निंदनीय आचरण नहीं करती, लेकिन एकांत में बंधन से मुक्त होकर वह पर-पुरुष के साथ अपनी काम-पीड़ा शान्त कर लेती है।
यह सुनकर राम के मन में शंका सुदृढ़ हो जाती है। वह घर जाकर सीता को कहीं भी चले जाने का आदेश देते हैं और सीता अपने दो पुत्रों के साथ किसी आश्रम के लिए प्रस्थान करती है।
• रावण का चित्र—पउमचरिय के अनुसार राम को सीता के चरित्र पर संदेह होने के कारण सीता के पास रावण का चित्र होना बताया है। जैन साहित्य के टीकाकार मुनिचन्द्र सूरी के अनुसार सीता ने अपनी ईर्ष्यालु सपत्नी की प्रेरणा से रावण के चरणों का चित्र बनाया था। सपत्नी ने राम को यह चित्र दिखाया। इसीलिए राम ने सीता का त्याग कर दिया, राम ने उसकी बात पर ध्यान नहीं दिया तो सपत्नियों ने यह बात दासियों के द्वारा जनता में फैला दी। बाद में राम जब गुप्त वेश धारण कर नगर के उद्यान में टहल रहे थे, तो सीता को ग्रहण करने के कारण अपनी निन्दा सुननी पड़ी। इस बात का गुप्तचरों ने भी समर्थन किया। लक्ष्मण ने सीता का पक्ष लिया था। मगर राम ने कृतांत-वदन की तीर्थयात्रा के बहाने सीता को जंगल में छोड़ने का आदेश दिया।
कृतिवास रामायण में इसी तरह का वृतान्त देखने को मिलता है। चन्द्रावली-कृत रामायण गाथा में कैकेयी की पुत्री ‘कुकुआ’ के बहकावे में आकर सीता रावण का चित्र खींचती है, जिसे कीकवी देवी (भरत और शत्रुघ्न की सहोदरी) उसे सोती हुई सीता की छाती पर रख देती है और यह अभियोग लगाती है कि उन्होंने चित्र का चुम्बन भी किया था।
हिंदेशीय के शोरीराम में यह दिखाया गया है कि रावण की पुत्री अपने पिता का चित्र सीता की छाती पर रख देती है, जिसका वह नींद में चुम्बन करती है। यह दृश्य देख राम सीता को कोड़ों से मारते हैं; उसके बाल काटते हैं और लक्ष्मण को बुलाकर मार डालने तथा प्रमाण स्वरूप उसका हृदय लाने का आदेश देते हैं।
सिंहल द्वीप की रामकथा, रामकीर्ति के अनुसार शूपर्णखा की पुत्री अदूल सीता से रावण का चित्र खिंचवाती है। ब्रह्मचक्र की कथा में शूपर्णखा स्वयं छद्मवेश में सीता के पास आती है। कश्मीरी रामायण में रामायण के दो भाग है, पहला “सरी राम अवतार चरितम्” तो दूसरा “लवकुश युद्ध चरितम्।” चोल साम्राज्य में दो कवि कम्बन और ओट्टाकोथार ने 12वीं शताब्दी में रामायण के ऊपर अपनी व्याख्या लिखी है। तमिल साहित्य में कहा जाता है कि पूर्व रामायण कम्बन द्वारा लिखी गई और उत्तर रामायण ओट्टाकोथार द्वारा। वाल्मीकि रामायण में इसे केवल स्ट्रीट गॉसिप माना है। जबकि तेलगु कन्नड़ और ओड़िआ कथाओं में सीता द्वारा रावण की परछाईं बनाने का वर्णन आता है, तो कई गाथाओं में शूर्पणखा और उसकी पुत्री, मंथरा, कैकेयी, तो अन्य स्त्रियों द्वारा सीता को रावण की तस्वीर खींचने के लिए बाध्य किया जाता है। संस्कृत कथासरित सागर (11वीं शताब्दी) तथा बंगाली कीर्तिवास रामायण (15वीं शताब्दी) में धोबी और उसकी पत्नी के झगड़े का संदर्भ है।
रामायण के अन्य परोक्ष कारणों में दुर्वासा मुनि का शाप, भृगु पत्नी-वध, तारा का शाप (बालीवध के बाद), उद्यान में शुकों के साथ, पूर्व जन्म में सीता द्वारा मुनि सुदर्शन की निन्दा, सीता द्वारा लक्ष्मण पर आक्षेप, वाल्मीकि की तपस्या द्वारा लक्ष्मी के पिता बनने के वरदान की कथा, जैसे अनेकानेक कथानक देखने को मिलते हैं।
तुलसीदास की गीतावली, अध्यात्म रामायण, आनंद रामायण आदि में राम के चरित्र के आदर्श को सुरक्षित रखने के उद्देश्य से अनेक अर्वाचीन राम कथाओं में सीता त्याग के वृतान्त को एक अन्य रूप देकर अवास्तविक बनाने का प्रयास किया गया है। गीतावली के अनुसार दशरथ अपनी आयु के पूर्ण होने से पहले ही स्वर्गवासी हो गए थे और राम को उनकी शेष आयु मिली थी। पिता की आयु सीता के साथ भोगना अनुचित समझकर राम ने अपनी आयु के समाप्त होने पर सीता का निर्वासन किया।
अर्वाचीन रामकथा साहित्य में काल-क्रम के अनुसार सीता-त्याग की कथाओं के विकास की पुष्टि होती है। धोबी द्वारा लोकापवाद, रावण के चित्र और अंत में सीता की एक रजस्तमोमयी छाया मात्र का हरण होने तथा सत्वगुण से अदृश्य रूप से राम के वामांग में निवास करना।
रविषेण के अनुसार राजा जनक की विदेहा नामक महाराणी की एक पुत्री सीता और एक पुत्र भामण्डल उत्पन्न हुआ। राम म्लेच्छों के विरोध के समय जनक की सहायता करते हैं। जिसके फलस्वरूप राम और सीता का वाग्दान हुआ। सीता हरण के बारे में विमल सूरी लिखते है, कि चंद्रनखा और खरदूषण का पुत्र सूर्यहास खंग की सिद्धि के लिए बारह साल तक साधना करते हैं। जब उसकी साधना सफल हो जाती है, खंग प्रकट होता है; संयोगवश लक्ष्मण वहाँ पहुँचते हैं और खंग को उठाकर बाँस काटकर शंबुक का सिर काट देते हैं। चंद्रनखा अपने मृतपुत्र को देखकर विलाप करते-करते वन में फिरने लगती है। वह राम और लक्ष्मण के पास पहुँचकर उनकी पत्नी बनने का प्रस्ताव रखती है। असफल होकर वह अपने पति खरदूषण को पुत्रवध का समाचार सुनाती है और रावण को भी ख़बर कर देती है। रावण अपनी अवलोकनी विद्या से सिंहनाद करके राम और लक्ष्मण को वहाँ से हटाकर सीता का हरण करने में सफल हो जाता है।
उत्तरचरित में राम की आठ हज़ार पत्नियाँ बताई गयी हैं, जिनमें से सीता, प्रभावती, रतिनिभा और श्रीदामा प्रधान है। जबकि लक्ष्मण की दस हज़ार पत्नियाँ बताई गयी हैं। सीता के पुत्रों के नाम लवण, (अनंग लवण) तथा अंकुश (मदनांकुश) माने गए हैं।
वैदिक काल में पशु पालन करने वाले आर्यों के लिए जो स्थान गायों का था, वही स्थान कृषकों के लिए खेतों की सीता का था। फलस्वरूप गायों का हरण सीता हरण में बदल जाते हैं। डॉ. वेबर के अनुसार रामकथा का मूलस्वरूप बौद्ध दशरथ जातक में सुरक्षित है। इस कथा में सीता हरण और रावण का युद्ध का कोई उल्लेख नहीं मिलता है। डॉ. वेबर के अनुसार सीता हरण की कथा का मूल-स्रोत होमर में वर्णित पैरिस द्वारा हेलन का हरण है और जो लंका में युद्ध हुआ था, उसका आधार संभवतः यूनानी सेना द्वारा त्राय का अवरोध है।
हनुमान शब्द संभवतः एक द्रविड़ शब्द का संस्कृत रूपान्तरण है। इसका अर्थ है ‘नर कपि’। इसी कारण अनुमान किया गया है कि वृषाकपि तथा हनुमान दोनों किसी प्राचीन द्रविड़ देवताओं के नाम है।
दूसरे मत के अनुसार रामायण के अन्य वानर, ऋक्ष और राक्षस विन्ध्य प्रदेश और मध्यभारत की आदिवासी अनार्य प्रजातियाँ थीं। वाल्मीकि रामायण में इन्हें आदिवासी ही कहा गया है। मगर आदिकाव्य के अनेक स्थलों से पता चलता है कि प्रारम्भ में यह सभी मनुष्य ही माने जाते थे। जैन रामायण के विद्वानों के अनुसार उन जातियों की ध्वज के कारण नाम पड़े। अर्थात् जिस जाति के ध्वज पर बंदर का चिह्न था, वह वानर जाति कहलाए और जिसकी ध्वज पर रीछ का चिह्न था वह रीछ कहलाए। आज भी क्रिकेट खेल में आस्ट्रेलिया को ध्वज के कारण कंगारू, अँग्रेज़ों की ध्वज पर शेर का चिह्न होने के कारण ब्रिटिश लॉयन और रूस के ध्वज पर बियर (रीछ) का चिह्न होने के कारण रूसी लोगों को बियर कहते है। कुछ विद्वानों के अनुसार आदिवासी जातियाँ पशु या वनस्पति की पूजा करती थी और उसी के नाम से पुकारे जाते थे जिन्हें ‘टोटम’ या ‘गोत्र’ कहते है। रामायण में वानर, ऋक्ष (जम्बुवान) और गिद्ध (जटायु, सम्पाति और रावण) आदि इन्हीं टोटमों के परिणाम है। ध्यान देने योग्य बात यह है उराँव, असुर तथा खरिया आदि आदिम जातियों की भाषा में रावण का अर्थ गिद्ध ही है। जैन रामायण में विमलसूरी के अनुसार रावण का एक ही सिर था, जब उसका जन्म हुआ था। तो माँ ने नौ दर्पण वाला हार उनके गले में डाला था, जिसमें उसकी छाया थी। इसलिए माँ दशानन के नाम से पुकारती थी, जो आगे जाकर उसका नाम बन गया। मगर दूसरे कवियों ने अद्भुत रस और अतिशयोक्ति का सहारा लेते हुए रावण के दस सिर होने, हनुमान द्वारा समुद्र लाँघने तथा आकाश में उड़कर पर्वत लाने जैसे वाक्यों का प्रक्षेपण किया है—ऐसा अनुमान लगाया जाता है।
रामायण के अनुसार सीता अपने आपको साधारण स्त्री मानती है और अपने इस जन्म को दुःखों का कारण पूर्व जन्म के किए हुए पाप को समझती है। राक्षसों के प्रति राम की हिंसात्मक प्रवृति देखकर राम के परलोक की चिन्ता करती है और रावण उनसे अनुरोध करता है कि वह राम जैसे साधारण मनुष्य को छोड़ दे तो वह उत्तर नहीं देती है। राम साधारण मनुष्य नहीं है। युद्ध के समय भी वह राम को अमर नहीं समझती है। रामकथा की लोकप्रियता का एक कारण बौद्ध और जैन साहित्य से मिलता है। बौद्ध ने राम को बोधिसत्व मानकर लोकप्रियता और आकर्षकता का साक्ष्य दिया है और जैनियों ने वाल्मीकि की रचनाओं को मिथ्या कहकर राम को नए रूपों में अपनाने का प्रयत्न किया है। कृपा निवास, मधुराचार्य (रसिक संप्रदाय के आचार्य) के अनुसार न तो वास्तव में सीता का हरण हुआ और न ही स्वयं ब्रह्म राम ने एक तुच्छ राक्षस के वध के लिए धनुष बाण उठाया। वनयात्रा के समय राम, लक्ष्मण और सीता चित्रकूट से आगे तक नहीं गए।
तत्वसंग्रह रामायण के अनुसार माया सीता का वृत्तांत सामने आता है, जिसके अनुसार वास्तविक सीता राम के वक्ष स्थल में छुप जाती है और शतानन रावण का वध ख़ुद सीता ही करती है।
कथासरितसागर में राम और सीता का मिलन दिखाकर रामकथा का सुखांत किया है।
असुर और राक्षस अधिकांश एक दूसरे के लिए प्रयुक्त होते है, मगर दोनों में अंतर है। असुर कश्यप के वंशज थे, जो ज़मीन पर रहते थे और देवताओं से लड़ाई करते थे। जबकि राक्षस पुलस्त्य की संतान थे, जो जंगलों में रहते थे और आदमियों से लड़ाई करते थे। वास्तुविदों के अनुसार रावण को दक्षिण दिशा (यम की दिशा) तथा कुबेर को उत्तर दिशा (स्थायित्व। धन संग्रह) का प्रतीक माना है।
कुछ विद्वानों के अनुसार धनुष तोड़ने का अर्थ अनासक्ति से लिया जाता है। शायद सीता की आसक्ति से मुक्त होने के लिए राम को वनवास जाना पड़ा, जो एक राजा के लिए अनिवार्य शर्त थी। वैदिक विचारों के अनुसार मनुष्य समाज को चार अवस्थाओं में गुज़रना पड़ता है। व्यतिक्रम क्रेता (4), त्रेता (3), द्वापर (2), कली (1) और उसके बाद प्रलय (0) और उसके बाद 4, 3, 2, 1 . . . हर समाज आदर्शवादिता से शुरू होता है और धीरे-धीरे करके अपने समापन को प्राप्त करता है। हर युग की समाप्ति एक अवतार से होती है, जैसे क्रेता में परशुराम, त्रेता में राम, द्वापर में कृष्ण और कलि में कल्की। रामबाण का अर्थ अपने उद्देश्य का अचूक निशाना है।
भारतवर्ष में सभी बच्चों को चंद्रमा के प्रति राम के प्रेम के बारे में सुनाया जाता है। मगर कुछ विद्वानों के अनुसार सीता और शूर्पणखा पर किए गए अत्याचारों के कारण उनके सूर्यवंशी परिवार की आभा धूमिल होने की वजह से उन्हें रामचन्द्र कहा जाने लगा। राम को मर्यादा पुरुषोत्तम कहा जाता है, जिनके लिए नियम क़ानून ही सब-कुछ होता है, भावना और संवेदनाओं की कोई क़द्र नहीं होती है। तत्कालीन समाज में क़ानून को ज़्यादा मान्यता देने का अर्थ यह नहीं था कि अपने पिता का दिल दुखाना अथवा अपनी पत्नी पर अत्याचार करना। नियम का अनुसरण करने वाला कभी भी न तो आज्ञाकारी पुत्र हो सकता है और न ही एक अच्छा पति। इससे ऐसा लगता है कि उस समाज में नियम क़ानून को व्यक्ति की तुलना में ज़्यादा मान दिया जाता था। पाँचवीं शताब्दी तक राम एक अच्छे मानवीय नायक थे। वाल्मीकि ने भी उन्हें देवता के रूप में स्वीकार नहीं किया। धीरे-धीरे राम को पृथ्वी पर विष्णु का अवतार तथा एक आदर्श राजा माना जाने लगा और उनकी कहीं हुई हर बातों को दिव्यता से परिपूर्ण देखा जाने लगा। कंबन के तमिल ‘रामायण-ई-रामवताराम’ में राम अपने देवत्व से संघर्ष करते हैं और अपने देवत्व के विपरीत किए गए कार्यों की वजह से नीरवता में लोप हो जाते हैं। मगर बारहवीं शताब्दी के शुरूआत में वेदान्त के प्रवर्तक रामानुज ने राम की तुलना भगवान से कर राम भक्ति की शुरूआत की।
आज भी महाकाव्यों में यह सवाल हमेशा बना रहता है कि सीता राम का अनुकरण क्यों कर रही थी। वह इसे अपना कर्त्तव्य समझती थी, अथवा वह राम को अत्यधिक प्यार करती थी। क्या सीता का यह निर्णय सामाजिक नियमों पर आधारित था, अथवा भावना केंद्रित? राम जब नियमों की बात करते है तो सीता भावनाओं की तरफ़ झुक कर संतुलित करती है। सीता की परंपरागत कथाओं में आज्ञाकारी पत्नी होने के विपरीत वाल्मीकि रामायण में उसे अपने मस्तिष्क का प्रयोग करने वाली सजग नारी के रूप में चित्रित किया गया है। वह राम के पौरुष को ललकारती है। जिसके कारण वह उन्हें अपने साथ जंगल में नहीं ले जाना चाहते। कई संस्करणों में अभी तक यह भी गुत्थी बनी हुई है कि सीता ने राम के साथ शाही परिधानों में वन गमन किया था अथवा वल्कल पहन कर।
भारत में रामायण की घटनाओं के अनुरूप महानगरों को विभाजित किया गया है। उदाहरण के तौर पर वाराणसी में अयोध्या (राम नगर) और लंका के कुछ हिस्से हैं—जो गंगा नदी के आमने-सामने वाले तट पर हैं। इसी तरह चित्रकूट (जहाँ राम का भरत से मिलाप होता है) तथा पंचवटी (जहाँ से सीता का अपहरण होता है) आदि स्थान गंगा के आस-पास ही हैं। कुछ विद्वानों के अनुसार रामायण की घटनाओं का विस्तार मध्य भारत से आगे नहीं जा सका, मगर तीर्थों की कहानियाँ और रामायण के स्थानों के प्रति श्रद्धा व्यक्त करते हुए इसका विस्तार प्रायदीप तथा इससे आगे श्रीलंका तक माना जाने लगा। जहाँ राम के पाँवों के निशान तथा अपने हाथों से ही स्थापित किए गए शिव मंदिर के अवशेष नज़र आते हैं।
भास द्वारा रचित ‘प्रतिमा नाटक’ के अनुसार राम की अपने पिता की अंत्येष्टि कर्म न करने की निराशा के अवसर का फ़ायदा उठाते हुए, रावण ने अंत्येष्टी नियमों में पारंगत होने का बहाना बनाकर राम को अपने पिता की आत्मा की शान्ति के लिए हिमालय में पाए जाने वाले सोने के हिरण समर्पित करने की सलाह दी। इस वजह से सीता कुटिया छोड़कर जा सके और वह सीता का अपहरण कर सके। गया में पूर्वजों की आत्मा की शान्ति के लिए आज भी हिन्दू लोग श्राद्ध करते हैं।
अधिकांश रामकथाओं में राम को रावण के अत्याचार से दुनिया को बचाने के लिए विष्णु के अवतार के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। साहित्यिक दृष्टि से दक्षिण भारत में राम की यात्रा का अर्थ औपनिवेशवाद तथा अग्नि-पूजक, वैदिक आर्यों के धीरे-धीरे विस्तार होने की दिशाओं में संकेत है। प्रतीकात्मक रूप में जंगल का अर्थ अपालतू, डरपोक और इधर-उधर भटकने वाले मन से लिया जाता है। उसके पश्चात राम और साधुओं के पहुँचने का अर्थ मानवीय शक्तियों के उजागरण से लिया जाता है। कुछ लोग रावण को रक्ष संस्कृति के प्रवर्तक के रूप में मानते है। जिसने ऋषि संस्कृति का विरोध किया। संस्कृति में ऐसा क्या था, जिसका स्वागत और आदान-प्रदान नहीं हुआ; दोनों संस्कृतियों में आपसी टकराव के क्या कारण थे? क्या दोनों संस्कृतियाँ एक-दूसरे से स्वतन्त्र रह सकती थी अथवा उन्हें एक-दूसरे को प्रभावित करते हुए बदला जाना चाहिए था। वाल्मीकि ने रावण के पिता ऋषि तथा माता राक्षस होने के कारण इस सवाल पर बहुत ज़्यादा विचार किया। राक्षसों का वर्णन अस्पष्ट है, उन्हें उग्र हथियार लिए हुए, बड़ी-बड़ी आँखों वाले, बड़े-बड़े नाख़ूनों वाले पंजे तथा ख़ून से सने हुए दिखाया जाता है। कभी-कभी उन्हें बहरूपिया, तो कभी–कभी उन्हें सुंदर, संवेदनशील और सभ्य दिखाया गया है। राक्षसों को डरावने और दैत्य के रूप में दिखने के पीछे मुख्य उद्देश्य उन्हें अमानवीय बताकर उनकी हत्या करने के कारणों को न्याय-संगत सिद्ध करना है। यह ऐसा ही है कि सभ्य देश अपने युद्ध के कारणों को उचित ठहराते हैं। मानवीय मस्तिष्क में निहित जन्तु-पिपासा कभी–कभी उसके चरित्र पर हावी हो जाती है, उसे सुरक्षित स्थान प्रदान करना भी ऐसा ही है। राक्षस अगर पालतू नहीं है या उन्हें छोड़ दिया गया है, वे भी हमारे ऊपर प्रभुत्व जमाकर हमें समाप्त कर देंगे। इसीलिए उनका व्यस्त रहना अत्यंत ही अनिवार्य है।
भारत में राम-लक्ष्मण-सीता की गुफाएँ देखने को मिलती है। कई जगह तीनों गुफाएँ अलग-अलग है। अर्थ यह लगाया जाता है कि साथ रहने के बावजूद भी वे लोग अलग-अलग रहते थे। विभिन्न सूत्रों का अध्ययन करने से तरह-तरह की बातें सामने आती है कि किस तरह घुमक्कड़ बंजारा जाति एक जगह इकट्ठी होकर खेती-बाड़ी का काम करने लगी, किस तरह जंगल में रहने वाली जतियों ने गाँव और नगरों का निर्माण किया, किस तरह अग्नि-पूजक परम्पराएँ मंदिर की कथात्मक परम्पराओं में तब्दील हो गई? अमरता और परिवर्तन को स्वीकार करने के द्वन्द्व और अस्थायित्व में किस तरह मूल वैदिक अवस्थाएँ बरक़रार रही। शायद इन्हीं आस्थाओं ने कर्म, काम, माया और धर्म के विचारों को जन्म दिया।
अनेक कहानियों के अनुसार राम-लक्ष्मण और सीता जंगल में जाते समय किशोरावस्था में थे। जंगल में उनका विकास हुआ। यह विकास उस समय हुआ, जब उनके दिमाग़ बचपन की निश्चिंतता को चुनौती दे रहे थे। और उस दौरान वे सामाजिक संरक्षण के कृत्रिम रूप को आसानी से देख सकते थे। जंगल में जानवर अथवा पेड़-पौधों ने उनके साथ कोई अलग व्यवहार नहीं किया। इसलिए कि वे राजसी घराने से सम्बन्ध रखते थे। उन्हें शिकार अथवा शिकारी के दृष्टि से ही देखा गया। यह कथानक ग्राम, क्षेत्र, उपनिवेश को वन या अरण्य से पृथक करता है। कुछ विद्वान वनगमन की घटना को मीमांसा अर्थात् आत्म-अवलोकन की दृष्टि से देखते हैं, अर्थात् राजसी घराने के उन तीनों ने मीमांसा के माध्यम से अपने आप को साधुओं में बदल दिया।
राम-लक्ष्मण-सीता के नाम पर कई पोखरियों का नाम रामकुण्ड, लक्ष्मणकुण्ड, सीताकुण्ड रखा गया है, जो उनके संन्यासी जीवन का प्रतीक है कि वे कभी भी एक तालाब में नहीं नहाते थे। महाराष्ट्र के नासिक, तमिलनाडु के रामेश्वरम्, बिहार के हजारीबाग और ओड़िशा के शिमलीपाल में यह कुण्ड पृथक-पृथक देखे जा सकते हैं। पितृसत्तात्मक प्रवृतियों के विपरीत उस समय उन ब्रह्मचारियों को सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा जाता था, जिनका नियंत्रण अपनी इंद्रियों से ख़त्म हो जाता था।
उद्भ्रांत जी के ‘सीता-सर्ग’ में सोने का हिरण ख़ुशियों के अंत का प्रतीक है। युद्ध के बाद जब राम और सीता मिले तो सामाजिक प्रोपराइटी (Propriety) और फ़िडेलिटी (Fidelity) के मुददों की वजह से उनके सम्बन्ध तनाव में रहे। ओड़िशा की मिनिएचर क्लॉथ पेंटिंग (Miniature cloth painting) में दो सिर बाला हिरण दिखाया जाता है। गुजरात में रहने वाले भीलों के रामायण में भी यह बात दिखाई गई है। कई कहानीकारों को सीता द्वारा हिरण पकड़ने अथवा उसका आखेट करने का कथानक स्वीकार नहीं है। इसलिए भील रामायण (राम सीता निवार्त्ता) में यह दिखाया गया है, दो मुखवाला सोने का हिरण सीता के बग़ीचे को नष्ट करता है, और उसे परेशान करता है; इसलिए राम क्रोध में आकर मारने का निश्चय करते हैं। मारीच के रूप में जो हिरण मरता है, वह तो केवल वास्तव में राम और रावण के युद्ध का निरीह शिकार है, जो अपने मालिक की ख़ातिर प्राण-त्याग देने वाला समान्य नौकर का प्रतीक है।
सीता आज्ञाकारी लक्ष्मण को अवज्ञाकरी बनाने का भरसक प्रयास करती है। यहाँ तक कि डरकर वह उस पर झूठा दोषारोपण करती है। सीता स्त्री गुणों की पराकाष्ठा का प्रतीक है। इसलिए अधिकांश पाठक इस बात को नहीं मानते हैं। भारत की कई जातियों में आज भी उत्तर-पश्चिम और गंगा के मैदानी घाटों में विधवा भाभी की देवर के साथ शादी की जाने की रस्म है। पति के मरने के बाद उसके बच्चे को तथा विधवा महिलाओं को सहारा प्रदान करने के लिए यह परिपाटी बनाई गई होगी। लोक-संगीतों में भी दोनों के बीच काम-जन्य तनाव के उदाहरण दिये जाते हैं। बाली के मरने के बाद सुग्रीव द्वारा तारा को अपनी पत्नी बनाने तथा रावण के मरने के बाद विभीषण द्वारा मन्दोदरी को अपनी पत्नी बनाने का उल्लेख मिलता है। वाल्मीकि रामायण में कहीं पर भी लक्ष्मण रेखा का उल्लेख नहीं है। वाल्मीकि रामायण के हज़ारों साल बाद तेलगु और बंगाली रामायण में इसका उल्लेख आता है। अनेक शुरूआती संस्कृत नाटकों में सीता के अपहरण में इस बात का उल्लेख नहीं मिलता। बद्द रेड्डी की तेलुगू ‘रंगनाथ रामायण’ में लक्ष्मण सीता की झोंपड़ी के सामने भूमि पर सात रेखाएँ खींचता है, एक नहीं। जैसे-जैसे रावण इन रेखाओं को पार करता है, वैसे-वैसे आग निकलती जाती है। वाल्मीकि रामायण में इस बात में कोई संदेह नहीं है कि रावण ने सीता को हाथ से पकड़कर खींचा था, जबकि परवर्ती हज़ारों सालों के क्षेत्रीय संस्करणों में रावण सीता को स्पर्श नहीं करता है। ‘कम्बन’ रामायण में वह उसे झोंपड़ी समेत लंका ले जाता है। यह विचारधारा मध्ययुग में प्रकट हुई कि भारतीय समाज में स्पर्श से प्रदूषण अथवा व्यभिचारी प्रवृतियाँ बढ़ती है। दक्षिण भारतीय कहानियों के अनुसार रावण सीता का एक प्रेमी था। राम सभ्य, वफ़ादार और मर्यादा में रहनेवाला प्रेमी था, जबकि रावण भाव-प्रवण और अमर्यादित, जो किसी भी हालत में इन्कार को स्वीकार नहीं कर सकता था।
नवीं शताब्दी के शक्ति भद्र द्वारा रचित संस्कृत नाटक ‘आचार्य चूड़ामणि’ में राम और सीता को साधुओं द्वारा उपहार दिये जाते हैं, राम को अँगूठी और सीता को हेयर पिन (hair pin)। ये ज़ेवर कुछ ख़ास होते हैं। जब तक वे लोग इसे पहने रहेंगे, तब तक कोई भी दानवीय शक्ति उन्हें स्पर्श नहीं कर सकती। यहाँ तक कि राक्षसों के मायाजाल का पर्दाफ़ाश करती है। नाटक में रावण सीता के पास साधु के वेश में न आकर, रथ पर राम के रूप में आरूढ़ होकर आता है। जिसका सारथी लक्ष्मण होता है और वह सीता से कहता है कि दुश्मनों की सेना ने अयोध्या पर आक्रमण किया है। सीता यह विश्वास कर रथ पर चढ़ती है। रावण हेयर पिन के डर से उसे स्पर्श नहीं करता है। मगर जब सीता उसे स्पर्श करती है, तो रावण अपने वास्तविक रूप में प्रकट होता है। इसी तरह शूर्पणखा राम को सीता के रूप में मिलती है और अँगूठी की वजह से स्पर्श नहीं करती है। मगर जब राम उसे स्पर्श करता है, तो वह अपने मायावी रूप में प्रकट हो जाती है। कहानी कहती है, राम के जीवन पर आधारित शक्ति भद्र का यह नाटक जब वेदान्त ज्ञाता शंकर को समीक्षा के लिए दिया जाता है, मगर जब वह उस पर कोई टिप्पणी नहीं करते हैं तो वह इस नाटक जला देते हैं। बाद में जब शंकर उस कार्य की तारीफ़ करते हैं तो शक्ति भद्र को अपने किए पर पश्चाताप होता है। रावण के रथ या कुबेर के रथ को पुष्पक विमान कहा जाता है। जिससे यह विश्वास किया जाता है कि प्राचीन भारतीयों को सर्वोत्कृष्ट तकनीकी उपलब्ध थी। इस बात को इंगित करते हैं। सिंहल देश में रावण के रथ को दानदु मोनारा (dandu monara) कहते हैं, जिसका अर्थ होता है उड़ने वाला मोर, श्रीलंका में वेरागंतन (weragantotan) (महियांगन से 10 कि॰मी। दूर) रावण का एयरपोर्ट है।
सीता का अपहरण वनवास के अंतिम वर्ष में हुआ था। महाराष्ट्र में गोदावरी नदी के तट पर नासिक के नज़दीक पंचवटी से सीता का अपहरण हुआ था। संस्कृत और प्राकृत भाषा में “नासिका” का अर्थ नाक होता है, जो शूर्पणखा के नाक काटने की घटना पर आधारित है। हेयर पिन या चूड़ामणि स्त्रियों द्वारा बालों में लगाया जाने वाला ज़ेवर होता है। खुले बाल प्रतीकात्मक रूप से आज़ादी तथा जंगलीपन का प्रतीक है। जबकि बँधे हुए बाल बंधन एवं संस्कृति का प्रतीक है। महाभारत में द्रौपदी के खुले बाल सभ्य, आचरण के ख़त्म होने का संकेत करते हैं।
भारतीय दर्शन आदमी और उसके आधिपत्य की सामग्री को पृथक करता है। हमारे अपने विचार हैं और हमारी अपनी वस्तुएँ हैं। राम अपने विचारों से शक्ति पाते हैं, जबकि रावण अपने सामानों से शक्ति खोजते हैं। रावण के पास ज्ञान है, वह समझदार हो सकता है, मगर बुद्धिमान नहीं। रावण के माध्यम से लोक-गीतों में यह ध्यान आकर्षण किया गया है कि भले ही आप अच्छी तरह से मंत्र उच्चारण कर सकते हैं, मगर उनका अर्थ समझकर अपने आपको बदल नहीं सकते है। सीता रेणुका नहीं है, जो कार्त्तवीर्य की इच्छा करती हो, न ही वह अहिल्या है, जो इन्द्र की जालसाज़ी में फँसती हो। उसे राम के प्यार पर पूरा भरोसा है। रामायण यह सवाल पूछती है, प्यार क्या है? क्या यह आसक्ति है? क्या यह नियंत्रण है? क्या प्यार बदला जा सकता है? क्या प्यार को ख़ास होना चाहिए? क्या यह शारीरिक, बौद्धिक या संवेदनशील होता है? क्या राम की चुप्पी या रावण का बड़बोलापन प्यार का प्रतीक है। रामायण के खलनायक रावण की कई पत्नियाँ हैं। अगले जन्म में जब राम, कृष्ण बनते हैं तो उनकी भी अनेकों पत्नियाँ होती हैं। कृष्ण का प्यार और रावण का प्यार अलग–अलग है। रावण का प्यार वासना, अधिकार और नियंत्रण का प्रतीक है, जबकि कृष्ण का प्यार स्नेह, समझ और स्वतन्त्रता का प्रतीक है। अधिकांश पाठक रामायण की कहानी पढ़ते समय सीता के विपरीत “स्टॉकहोम सिंड्रोम” (falling in love with one’s captors) के शिकार हो जाते हैं और रावण के गुणों की तारीफ़ करना शुरू कर देते है, भले ही वह किसी औरत को अपने घर में ज़बरदस्ती खींचकर लाता हो और ज़बरदस्ती बंधक बनाता हो। कुछ विद्वानों के अनुसार “नाक काटना” एक मुहावरा है, जिसका अर्थ होता है, किसी की इज़्ज़त का मटियामेट करना। जब सुपर्नखा की नाक काटी गई तो रावण रघुवंश के परिवार की मर्यादा का प्रतीक सीता का हरण कर राम की नाक काटना चाह रहा था। सीता का शारीरिक शोषण हुआ हो या नहीं, मगर राम की इज़्ज़त को दाग़ अवश्य लग गया था। आधुनिक समय में भी इज़्ज़त के गहरे संस्कार औरतों के प्रति हिंसा व दमन को उचित ठहराने में किए जाते हैं।
सीता के अपहरण और हनुमान के अशोक वाटिका में पहुँचने तक कम से कम एक ‘वर्षा ऋतु’ का अंतर है। बारिश से पहले गर्मियों में सीता का अपहरण हुआ था और राम ने बारिश के बाद दशहरे के त्योहार (Autumn) में रावण से युद्ध किया। सीता और हनुमान का मिलना भी कई तरीक़े से दिखाया गया है। वाल्मीकि रामायण में रावण द्वारा सीता को उसे स्वीकार न करने पर रावण द्वारा मारने की धमकी पर हनुमान का आगमन, तेलगु रामायण में सीता द्वारा अत्महत्या करते समय, मराठी रामायण में राम के नाम का उच्चारण करते समय तथा ओड़िआ रामायण में हनुमान द्वारा उसके प्रहरियों के सो जाने पर अँगूठी फेंक कर उसका ध्यान आकर्षित कर मिलने का उल्लेख मिलता है। वाल्मीकि रामायण में हनुमान सोचते हैं कि वे सीता से देव वाचन (देवताओं की भाषा) अर्थात् संस्कृत अथवा मनुष्य वाचन (मनुष्यों की भाषा) अर्थात् प्राकृत (कोई-कोई तमिल कहते है) भाषा में बात करें, मगर एक बंदर को ये भाषाएँ बोलते सुनकर सीता को आश्चर्य होगा। वाल्मीकि की कहानियों में राम की दिव्यता को अलग रखा गया है। राम को अपनी दिव्यता का ज्ञान है, मगर वह पृष्ठभूमि में है। जैसे-जैसे शताब्दियाँ पार होती जाती है, वैसे-वैसे राम की दिव्यता सामने आने लगती है और उनका नाम एक मंत्र बन जाता है। राम विष्णु से जुड़ने लगते हैं, हनुमान शिव के साथ या तो रुद्र अवतार बनकर या फिर उनके पुत्र के रूप में और सीता देवी बनती चली जाती है। इस तरह रामायण में हिंदुओं की तीनों मुख्य शाखाओं-शैव, वैष्णव और शाक्त संप्रदायों का सम्मिश्रण हो जाता है। संस्कृत के हनुमान नाटक में रुद्र के ग्यारह रूप बताए गए हैं, जिसमें से दस रुद्र रावण के दस सिरों की रक्षा करते है। जबकि ग्यारहवाँ हनुमान के रूप में अवतरित होता है। राम नाम से अंकित मुद्रिका जो सीता को हनुमान जी देते है, उसमें राम का नाम क्या संस्कृत, हिन्दी, मराठी अथवा गुजराती में लिखा हुआ था? मुद्रिका पर लिखा हुआ राम का नाम आज भी विद्वानों को राम के समय में प्रचलित लेखन की पद्धति के प्रयोग की और ध्यानाकृष्ट करती है। यह कथा दांडी (गलियाँ) में गाई जाती है, संस्कृत को चाहने वाले पण्डितों के भय से, आम आदमी को ख़ुश करने के लिए। तुलसीदास के रामचरित मानस पढ़ने के उपरान्त 19वीं और 20वीं सदी में शंकाओं का समाधान करने के लिए लिखी गई विशेष पुस्तक “शंकावली” के अनुसार वह अँगूठी वास्तव में सीता की थी जो उसने केवट (गुहा) को देने के लिए राम को दी थी। मगर गुहा ने स्वीकार नहीं की, इसलिए राम के पास रह गई थी।
राम का दुःख उनके व्यक्तिगत जीवन की झाँकी है। जब तक कि वह सामाजिक, मर्यादा और शाही आभिजात्य (stoicism) को व्यक्तिगत रूप से देखते हैं। जब बुद्धि लड़खड़ाने लगती है और भावुकता आने लगती है, लक्ष्मण भी उन्हें अपनी भावनाओं के अनुचित प्रदर्शन के लिए फटकारते हैं। कहीं-कहीं इस बात का भी उल्लेख मिलता है कि शिवजी की इच्छा के विरुद्ध पार्वती सीता का रूप धारण कर राम के दुख को कम करने के लिए उनसे मिलती है। मगर वह राम को मूर्ख नहीं बना पाती, राम उसे देवी के रूप में पहचान लेते हैं और उसे प्रणाम करते हैं। महाराष्ट्र की पौराणिक गाथा तूलजा भवानी का यह अंश है। तुलसीदास जी इसी कहानी को अपने संस्करण में लिखते हैं कि शक्ति द्वारा राम की दिव्यता को पहचानने में विफल होने पर वह उसकी सती दाह के रूप में परीक्षा लेना चाहते हैं। रामायण में कैकेयी, राम, लक्ष्मण और सीता सामाजिक निश्चिंतता के अंत, अस्तित्व से जुड़े भाव तथा wilderness से घिरे हुए प्रतीक हैं, जिसे तंत्र में मूलाधर चक्र से प्रकट किया गया है। तंत्र की भाषा में हिरण का यहाँ अर्थ लोभ, मोह, माया से ऊपर उठना है, उसके बाद विरोध, सूपर्नखा, अयोमुखी आदि की यौन-इच्छा स्वाधिष्ठान चक्र, कबन्ध की भूख मणिपुर चक्र, रावण की भावुक आवश्यकताएँ अनाहत चक्र, हनुमान संवाद विशुद्धि चक्र, जिससे अंतरात्मा की रोशनी, आत्म-चेतना का विकास होता है, और विभीषण का सहयोग आज्ञाचक्र तथा अंत में बुद्धि की सहस्र पद्मचक्र पर पुष्पवृष्टि होती है। कई बार यह भी सवाल उठता है कि राम शाही परिधान तथा ज़ेवरों का त्याग कर वनवासी हो गए थे, तब उनके पास सोने की अँगूठी कहाँ से आई? इसी तरह वानर को वा+नर अथवा वन+नर के रूप में पढ़ा जा सकता है, जिसका अर्थ होता है नर से कम अथवा वन में रहने वाले नर। वाल्मीकि कपि शब्द का भी प्रयोग करते है, शायद प्रतीकात्मक रूप से बंदर गोत्र की जंगली जातियाँ। मगर उनकी पूँछ के बारे में रहस्य नहीं खुलता है। जैन रामायण बोलने वाले बंदर की जतियों के होने से इन्कार करती हैं। विमल सूरी हनुमान को विद्याधर कहते हैं। शायद ये वे विशेष जातियाँ है, जो अपनी ध्वजाओं पर बंदरों का चिह्न रखते हैं। पुराणों में सभी सजीव प्राणियों का प्रादुर्भाव ब्रह्मा से हुआ है। जिनकी कोई पत्नी नहीं है, मगर उनके मानस पुत्रों की पत्नियाँ होती हैं। प्रत्येक पुत्र विभिन्न प्रजातियों का जनक है। इस तरह आसानी से विभिन्न प्रजातियों जैसे मछली, पक्षी, सर्प, मनुष्य, celestials being, subterranean being, आदि आदि। अलग-अलग तरीक़ों से सोचने के कारण मनुष्य को भी अलग-अलग विभाग में रखा जाता है। जो मनुष्य अधिकार अनुभव करते हैं (देवता), जो मनुष्य trick प्रयोग में लाते हैं (असुर), जो मनुष्य पकड़ते हैं (राक्षस), जो मनुष्य संग्रह करते हैं (यक्ष) और जो मनुष्य कला-प्रेमी होते हैं (बंदर) आदि। वानर किष्किन्धा में रहते हैं जो वर्तमान में कर्नाटक और आन्ध्रप्रदेश के प्रान्तों के रूप में जाना जाता है। आर्यावर्त्त में मनुष्य रहते हैं और लंका में राक्षस। किष्किन्धा की कल्पना भौगोलिक जगह होने की तुलना में मानो वैज्ञानिक ज़्यादा है। लंका की जातियों में हनुमान के द्वारा सीता की खोज के पीछे वाल्मीकि का उद्देश्य है, राक्षसों के घर पर पाठकों की दृष्टि को आकृष्ट करना। वे कभी मनुष्य की तरह लगते हैं, तो कभी दानवों की तरह, कभी दुर्दान्त, तो कभी पालतू। एक तरफ़ संवेदना पैदा करना, तो दूसरी तरफ़ भय की सृष्टि करना। वाल्मीकि का बिस्तर पर रावण का कई स्त्रियों के साथ दिखाया जाना उत्तेजना-प्रद है। इच्छा और संतुष्टि के अलग-अलग स्तर पर दिखाया गया है। कई स्त्रियों ने अपने पति को छोड़ दिया है, ताकि रावण के द्वारा आनन्द प्राप्त कर सके। इन दृश्यों से हनुमान का मुँह फेरना, उनकी संन्यासी प्रवृति को दर्शाता है। कीर्तिवास रामायण से हनुमान को एक ऐसा घर मिलता है, जहाँ राम का उच्चारण होता है। बाद में पता चलता है, वह रावण के भाई विभीषण का घर है। मराठी में “लंकेछी पार्वती” का अर्थ उस धनवान स्त्री से होता है जो कभी गहने नहीं पहनती है। साज-शृंगार करने का अर्थ स्त्री की अप्रसन्नता है। सीता ने कोई गहने नहीं पहने थे। तथापि वह सोने के शहर में बैठी थी, जो उसके मन की दुखी अवस्था का प्रतीक है। हनुमान के द्वारा रावण से मिलकर राम का संदेश पहुँचाने तथा उसके लोगों को डराने का अर्थ एक मुक्त आत्मा से लिया जाता है, जो किसी के आदेश का इंतज़ार नहीं करती। कई लोक कथाओं में राम, हनुमान द्वारा लंका में किए गए तहस-नहस की निंदा करते हैं। मगर अभी तक यह स्पष्ट नहीं हुआ के क्या यही वह कार्य है जिसकी प्रशंसा नहीं की गई अथवा बिना अनुमति के हनुमान ने इस कार्य को अंजाम दिया। रंगनाथ रामायण में सीता हनुमान को एक बाजू-बंध प्रदान करती है ताकि वह लंका के बाज़ार से फल ख़रीद सके। मगर हनुमान कहते हैं, दूसरों के तोड़े गए फलों को मैं नहीं खाता। अपने नगर में रावण को पहली बार अपनी हार का आभास होता है। उसका पुत्र अक्षय अपने पिता की सम्पत्ति की रक्षा करते हुए मारा जाता है। वह कोई खलनायक नहीं था। शहीद घोषित किया जाता है। इस तरह नायक और खलनायक के बीच धुँधली रेखा स्पष्ट नहीं होती है।
रामसेतु बनाते समय हनुमान ने राम का नाम किस शैली में लिखा; वाल्मीकि के समय में शायद लिखने की पद्धति का विकास नहीं हुआ था। सारे साहित्य मौखिक या श्रुतियों पर आधारित थे। खरोष्टी और ब्राह्मी लिपि बहुत बाद में आई। शारदा लिपि कश्मीर में कभी लोकप्रिय हुई थी और सिद्धाम (siddham) लिपि आज भी तिब्बत में चलती है। 12वीं शताब्दी के बाद में देवनागरी लिपि का विकास हुआ। जबकि हनुमान को देवनागरी लिपि में लिखते हुए दर्शाया जाता है। रामसेतु रामेश्वर से श्रीलंका के मन्नार टापू तक लाइमस्टोन की चट्टानों (limestone shoals) से बना हुआ है। हिंदुओं का मानना है कि बंदरों ने इस पुल का निर्माण किया था। मगर श्रीलंका के इतिहास-विज्ञ इस बात को नहीं मानते। आज के ज़माने में इस प्राकृतिक बैरियर को सामरिक गतिविधियों के लिए तोड़ने की भी बात चल रही है। इस योजना के कई पक्ष में है तो कई विपक्ष में हैं। कई लोग इसे ऐतिहासिक मोनूमेंट मानते हैं तो कोई इसे प्राकृतिक परिस्थिति संवेदी स्थल मानकर किसी भी क़ीमत पर उसे बचाए रखने की आवाज़ उठाते हैं। बलराम दस ने जगमोहन रामायण लिखी थी जिसे दाण्डी रामायण के रूप में भी माना जाता है।
रामायण का पाँचवाँ अध्याय ‘सुंदरकांड’ (जिसमें कपि द्वारा सीता की खोज का उल्लेख है) अत्यंत ही लोक प्रिय अध्याय है, जो अपने परिजन को खो जाने पर पाने के लिए आशा का प्रतीक है। Rationalist के अनुसार हनुमान उड़ते नहीं थे। वह पानी में तैरते थे। वाल्मीकि रामायण में तैरने और उड़ने दोनों ही शब्द एक-दूसरे की जगह प्रयुक्त हो सकते हैं। भारत के प्रत्येक गाँव में एक ग्राम्यदेवी होती है जो उस गाँव की रक्षा करती है जैसे मुंबई की मुम्बा देवी, कोलकाता की काली देवी, चंडीगढ़ की चंडिका देवी तथा नैनीताल की नैनी देवी विख्यात है। भारत के अधिकांश क़िलों का नामकरण दुर्ग के रूप में किया जाता है क्योंकि वे दुर्गा देवी शेर पर सवार तथा हाथों में हथियार लिए उन राजाओं तथा क़िलों की रक्षा करती है। इस तरह लंका भी कोई अपवाद नहीं है। लंका शहर की रक्षा देवी ताड़का तथा लंकिनी द्वारा की जाती है। लंकिनी की तुलना ग्रीक माइथोलोजी के Amazon (योद्धा स्त्री) से की जाती है। चंद्रगुप्त मौर्य की सेना में भी महिला योद्धा होती थी। बंगाल में राम के द्वारा दुर्गा को अपनी आँख की आहुति देने की कहानी लोकप्रिय है। दशहरे के समय अभी भी कई गाँवों में देवी के समक्ष एक सौ आठ कमल तथा एक सौ आठ दीप जलाने की प्रथा है। सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने बंगाली रामायण की इस घटना पर आधारित राम की शक्ति–पूजा कविता लिखी थी, जो यह प्रदर्शित करती है कि आदमी को लक्ष्य की प्राप्ति के लिए व्यक्तिगत त्याग भी करना पड़ता है। दुर्गा, कालिका का कम जंगली रूप है, मगर गौरी से कम घरेलू है। वह दुलहन और योद्धा के बीच में ठहरती है, काली, राक्षसों से ज़्यादा जुड़ी हुई है और दुर्गा राम से, जो की सभ्यता का प्रतीक है, रावण से नहीं। वाल्मीकि रामायण में इन्द्र राम के लिए रथ और सारथी भेजता है, क्योंकि रावण बिना रथ वाले योद्धा से लड़ने के लिए इन्कार कर देता है। दक्षिणी पश्चिमी एशिया की लोक कथाओं में रावण को मारने वाला लक्ष्मण को बताया गया है राम को नहीं। जिन कथाओं के अनुसार किसी भी कहानी में एक क्रोधी नायक (वसुदेव), एक शांत करनेवाला नायक (बलदेव) और एक खलनायक (प्रति वसुदेव) होता है। रामायण की कहानी भी कुछ इस तरह ही है। राम बलदेव का रोल कर रहे हैं, रावण प्रति-वसुदेव तो लक्ष्मण वसुदेव। इसका मतलब लक्ष्मण रावण को मारेगा, न की राम। भील रामायण में लक्ष्मण मधुमक्खी को मारता है, जिसमें रावण के प्राण होते हैं। तमिल रामायण के अनुसार राम का एक धनुष रावण के शरीर को बार-बार भेदता है और उस हृदय को जिसमें सीता का स्थान होता है। लाओस के रामायण में फ्रा लाम (राम) को जीवन के शुरूआती वर्षों में बुद्ध के रूप में जाना जाता है और रावण को इच्छा राक्षस ‘मारा’के रूप में प्रकट किया है। तेलुगू कथा के अनुसार राम रावण की नाभि में तीर मारने से इन्कार कर देता है। युद्ध संहिता के अनुसार तीर केवल दुश्मन के चेहरे पर मारे जाने का नियम है। मगर हनुमान अपने पिता वायुदेव से राम के धनुष की दिशा बदलकर रावण की नाभि की ओर कर देता है। दशहरे के दिन राजस्थान के मुद्गल गोत्र के दवे ब्राह्मण रावण के लिए श्राद्ध रखते हैं और उसी दिन कानपुर में रावण के मंदिर के दरवाज़े खुले रखे जाते हैं। यह मंदिर 19वीं सदी में बनाया गया था और रावण को शिव और शक्ति पीठ के संरक्षक के रूप में देखा जाता है।
थाईलैंड में आज भी कई मंदिरों में रावण को मंदिरों का दरबान तथा संरक्षक माना जाता है। राम और रावण दोनों शिव भक्त थे। अयोध्या (उत्तर प्रदेश), चित्रकूट (उत्तर प्रदेश), पंचवटी (महाराष्ट्र), किष्किन्धा (कर्नाटक), रामेश्वरम् (तमिलनाडु) आदि के शिव-मंदिर राम से सम्बन्ध रखते थे; वहीं गोकर्ण (कर्नाटक), मुर्देश्वर (कर्नाटक), काकीनाड़ा (आंध्रप्रदेश), वैद्यनाथ (झारखंड) आदि शिव मंदिर रावण द्वारा बनाए जाने की मान्यता है।
रामायण के बारे में कहा जाता है कि यह किसी नायक के विजय की गाथा नहीं है, वरन् ज्ञान संचरण के साथ–साथ यह याद दिलाती है कि सामग्री का युद्ध कम बल्कि विचारों का युद्ध ज़्यादा है। किसी आदमी को देखना दर्शन है, इसका मतलब यह नहीं है कि आप उसे साधारण दृष्टि से देखेँ, बल्कि दूसरों के चरित्र के अंदर इतनी गहराई से झाँकना है कि उसे अपना चरित्र नज़र आए। रामायण में राम लक्ष्मण को इसलिए डाँटते है कि वह अपना निर्णय लेने में बहुत जल्दबाज़ी करता है और अपनी भावनाओं से ज़्यादा प्रभावित रहता है, वस्तुओं की ओर गहरी दृष्टि से नहीं देख पाता है। भारत में स्त्रियों के प्रति गहरे विक्षोभ का कारण राम का अपनी पत्नी की तुलना में परिवार को ज़्यादा महत्त्व देना है। पारंपरिक समाज में नववधू को निम्न स्तर से देखा जाता है, जब तक कि वह घर की मुखिया न बन जाए, उसे अधिकार नहीं दिया जाता। इसके पीछे डर का कारण यह है कि कहीं पत्नी अपने पति को अपनी उँगलियों पर न नचाए और उसका पुत्र घर की गिरफ़्त से भाग कर न चला जाए।
शाक्त हिन्दुत्व की एक शाखा पंद्रहवीं शताब्दी में अद्भुत रामायण में दृष्टांत पेश करती है कि रावण से भी ज़्यादा शक्तिशाली सौ या हज़ार सिर वाले राक्षस का सीता वध करती है, न की राम। ओड़िया सारला दास की ‘बिलंका रामायण’ में सीता की ऐसी ही कहानी मिलती है। अद्भुत रामायण में देवी के भयानक चंडी रूप से सभ्य मंगल रूप में बदलने का उल्लेख आता है। जिस रूप की मंदिरों में पूजा की जाती है, कपड़े, ज़ेवर, प्रसाद, चढ़ाए जाते हैं और पूजा अर्चना की जाती है कि मानवता के लाभार्थ स्वेच्छा से यह रूप धारण करें। मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से दोनों दशरथ और रावण राम के पिता तुल्य हैं। मगर दोनों राम को कष्ट देते हैं, एक उसे अयोध्या से निकाल देता है, तो दूसरा सीता का अपहरण कर देता है। पहले में राम अपने ग़ुस्से को अभिव्यक्त नहीं कर पाता है, बल्कि दूसरे में वह बंदरों के द्वारा वह अपने सीमित क्रोध को उजागर करता है। श्री वैष्णव साहित्य में सीता ने रावण को अपनी इच्छा से मरने का सामर्थ्य दिखलाया है, मगर राम के कहने पर वह ऐसा नहीं करती है।
• पुष्पक विमान—पद्म पुराण के अनुसार राम और दूसरे लोग उड़कर घर जाते हैं, क्योंकि समुद्र पर बना हुआ वह पुल तोड़ दिया जाता है। विभीषण राम को बंदरों द्वारा निर्मित पुल को तोड़ने का आग्रह करता है, ताकि लंका पर विदेशी आक्रमण न हो सके। कलाकार विमान या उड़ने वाले रथ को अलग-अलग ढंग से देखते हैं। कभी-कभी उसे ‘शगड़’ या रथ, जो की गधों, घोड़ों द्वारा खींचा जा रहा हो, तो कभी-कभी उनकी संरचना में पंख लगे हुए दिखाया जाता है। पारंपरिक हिन्दू या जैन मंदिर को भी विमान कहा जाता है, जो कि स्वर्ग और मृत्युलोक की यात्राएँ कराते हैं। ग्रीक माइथोलोजी में उड़ते हुए देवताओं और नायकों के बारे में सुनने को मिलता है। जेउस (Zeus) के ईगल (eagle) होते हैं, बेल्ल्रोफोम (Bellrophom) के पास उड़ने वाले घोड़े होते है, हेर्मेस (Hermes) के पास पंख लगे जूते होते हैं और मेडेय (Medea) के पास उड़ने वाले साँपों का रथ होता है। संस्कृत काव्य में (वाल्मीकि से प्रारम्भ कर) अंतरिक्ष से पृथ्वी को देखने का वर्णन मिलता है।
• रामेश्वरम्—रामेश्वरम में तीर्थ यात्री बालुका शिवलिंग बनाते हैं जो कभी शिव को प्रसन्न करने के लिए राम और सीता ने बनाए थे, रामेश्वर मंदिर में दो शिवलिंग है, एक नहीं। कहानी इस तरह शुरू होती है कि राम ने हनुमान को काशी जाकर शिवलिंग लेने के लिए भेजा। मगर वह बहुत समय तक नहीं आए तो राम ने बालुका शिवलिंग लाने के लिए सीता से कहा। जैसे ही पूजा पाठ शुरू होने जा रहा था, वैसे ही हनुमान जी शिवलिंग लेकर वहाँ पहुँच जाते हैं और उसका इंतज़ार नहीं करने के कारण क्रोधित होते हैं। हनुमान अपनी पूँछ से सीता के उस बालुका शिवलिंग को तोड़ने का प्रयास करते है, मगर असफल रहते हैं। हनुमान को ख़ुश करने के लिए सीता की शिवलिंग के पास हनुमान जी का शिवलिंग रखकर राम पूजार्चना करते हैं। मध्ययुग में राम को ब्रह्महत्या पाप से मुक्त करने के लिए तरह-तरह के कथानक सामने आए हैं। दक्षिण में रामेश्वरम तथा उत्तर में ऋषिकेश, ऐसे तीर्थस्थान हैं जहाँ राम ने रावण की याद में श्रद्धाञ्जलि पूर्वक आराधना की। भक्तिमार्ग के विपरीत एक दूसरा और मार्ग होता है, जिसे विपरीत भक्ति या रिवर्स डिवोशन कहते हैं। इसके अनुसार भगवान को लगातार गाली देने अथवा भगवान का दुश्मन बनने का अर्थ है। भगवान को इतनी बार याद करना कि वह उनकी दिव्य अनुकंपा का पात्र बन जाते हैं। रावण भी ऐसा ही एक पात्र है। जैन और बुद्ध परम्पराओं में रावण को कुछ कमज़ोरियों वाला बुद्धिमान पुरुष माना गया है। जैन परंपरा में वह साधु के रूप में पुनर्जन्म लेता है और बुद्ध परंपरा में उसे बुद्ध के रूप में माना गया है।
रावण का जन्म एक बुद्धिमान पुजारी के रूप में होता है और वह राजा के रूप में काम करता है। इसके बावजूद भी उसे बुद्धि प्राप्त नहीं होती है। भले ही, उसके पास अपार धन, शक्ति और ज्ञान क्यों न हो। हनुमान का जन्म बंदर के रूप में होता है और वह सूरज से शिक्षा प्राप्त करता है, न उसका कोई सामाजिक रुत्बा होता है अथवा उसके पास धन दौलत होती है, मगर राम की सेवा के द्वारा अपने ज्ञान और शक्ति के उद्देश्य के बारे में समझ जाता है। इस तरह वह बुद्धिमानी का प्रतीक माना जाता है। रावण और हनुमान के दोनों चरित्रों में विरोधाभाव संयोग-वश नहीं है, बल्कि विचारों को समझने के लिए रचनाकर ने प्रस्तुत किया है। कन्नड़ रामायण में अपनी हड्डियों के चारों तरफ़, राम के नाम लिखे जाने के उद्देश्य को प्रस्तुत किया है। सीता और राम को हनुमान द्वारा अपने हृदय में दिखाना लोगों की कल्पनाशक्ति को जागृत करना है। ओड़िया रामायण में सुग्रीव जब सीता के पाँव को देखता है तो वह सोचता है, बाक़ी उसका शरीर कितना सुंदर होगा। राम सुग्रीव को कहता है कि अगले जन्म में वह एक स्त्री से शादी करेगा, जो सीता का दूसरा रूप होगा, वह राधा कहलाएगी। मगर उन दोनों का सम्बन्ध कभी भी अपने चरम तक नहीं पहुँच पाएगा।
• रामनाम—हनुमान को बहुधा लाल रंग से दिखाया जाता है जो कि देवी का रंग है। कुछ ऐतिहासिक कहते हैं कि पुराने आदिवासी देवता जिसे यक्ष कहा जाता है, वे ख़ून में नहाए हुए थे। जो कालान्तर में लाल रंग का प्रतीक बन जाता है। आधुनिक समय में हनुमान को केसरिया रंग से दिखाया जाता है, जो ब्रह्मचर्य के रंग का प्रतीक है। उत्तर भक्तिकाल में देवता और भक्त के बीच लड़ाई होना सामान्य बात है, भक्त देवता का नाम उच्चारण कर अपनी रक्षा करता है। कहने का अर्थ यह है कि देवता का नाम देवता की प्रतिमा से ज़्यादा महत्त्व रखता है अर्थात् राम का नाम, राम के रूप से ज़्यादा महत्त्वपूर्ण है। यह सबसे बड़ा मंत्र है जो मंदिरों में जाने से भी ज़्यादा मायने रखता है। यह प्रदर्शित करता है कि धीरे-धीरे सगुण भक्ति कम होती जाती है और निर्गुण भक्ति बढ़ती जाती है। कबीर और नानक (15वीं से 18वीं शताब्दी) के संतों ने अलौकिकता की कल्पना के लिए राम को व्यक्ति के रूप में स्वीकार नहीं किया। आज भी भारत में कई जगह पर अभिवादन के लिय ‘राम राम’ शब्द का प्रयोग किया जाता है। अंत्येष्टि कर्म के दौरान भी अधिकांश हिन्दू “राम राम या राम नाम सत्य” है (राम का नाम ही सत्य है) का उच्चारण करते हैं। रामायण के अनुसार राम सगुण नायक अथवा निर्गुण राम के रूप में निराकार अलौकिकता को प्रकट करते हैं। राम रसिकों की धारणा है कि राम को न तो वनवास हुआ था, न ही सीता का अपहरण। यह तो केवल राम और सीता द्वारा भ्रम फैलाया गया, उन लोगों के लिए जो थ्रिल ऑफ़ एडवेंचर को पसंद करते थे। राम रसिक ध्यान के माध्यम से अपने मन में स्वर्ग की कल्पना करते हैं, जिसे साकेत कहा जाता है और कनक भवन प्रासाद, जहाँ वे राम और सीता के अंतरंग सम्बन्धों को देखकर शान्ति प्राप्त करते है। कोई-कोई राम रसिक अपने आपको जनक का भाई मानकर (सीता के चाचा) मानकर अयोध्या में भोजन ग्रहण नहीं करते हैं, अपने दामाद का घर समझकर। दूसरा राम रसिक अपने आपको सीता का छोटा भाई समझते हैं और यह सोचकर अयोध्या जाते हैं कि सीता उसे मिठाई खिलाएगी और कोई राम रसिक सीता के लिए खिलौने ख़रीदकर ले जाता है। इस तरह दैविक जोड़ी के साथ वे अपने सम्बन्धों को अभिव्यक्त करते है। कृष्ण के विपरीत राम को कभी भी यौनावेग (eroticism) से नहीं जोड़ा गया। मगर 19वीं शताब्दी में ओड़िआ कवि उपेन्द्र भंज ने इस सम्बन्ध में वैदेही विलास नामक ग्रन्थ की रचना की है। कइयों के अनुसार रामायण रामवेद है, जो राम और सीता के सम्बन्धों को दर्शाता है। मानो एक मंत्र हो तो दूसरा उसका अर्थ। दोनों का एक दूसरे के बिना अस्तित्व नहीं है। पारंपरिक तौर पर सीता के नाम के पीछे राम का नाम जोड़ा जाता है, जैसे “जय सिया राम” (सीता के राम की जय हो) यद्यपि कई जगह पर स्त्री लिंग शब्द से हटाकर लोग “जय श्री राम” कहना पसंद करते हैं। मगर कई लोग तर्क करते हैं कि श्री = Mr. के तौर पर प्रयुक्त नहीं होता है। श्री वैदिक नाम है धन सम्पत्ति की देवी का। 17वीं शताब्दी में एनोना (Annona) संवर्ग के लैटिन अमेरिका के फल जब भारत पहुँचते हैं तो उन्हें लोकप्रिय बनाने के लिए भारतीय नाम दिए जाते हैं जिनमें सीता-फल (सीता का फल) यानी कस्टर्ड एप्पल (Custard Apple) तथा राम-फल (राम का फल) (Bull’ heart) प्रचलित है। इसी तरह लक्ष्मण-फल और हनुमान-फल भी होते हैं।
• राम निर्णय—वाल्मीकि रामायण में भद्र नामक जासूस द्वारा राम के राज्य में लोगों द्वारा कही गई बातों की सूचना मिलती है। जब राम उसे केवल सकारात्मक बातें कहने के लिए डाँटते हैं तो भद्र नकारात्मक बातें शुरू करता है। राम को पुरुषोत्तम कहा जाता है जिसका अर्थ एक आदर्श व्यक्ति से होता है, इसलिए यह जानना स्वाभाविक है कि एक आदर्श व्यक्ति महिलाओं के साथ किस तरह व्यवहार करता है। मगर राम केवल पुरुषोत्तम ही नहीं है, वह मर्यादा पुरुषोत्तम हैं, जो नियम, नियमों की सीमा को जानते हैं और उनका सम्मान करते हैं और नियम और क़ानून को जानने वाले पैतृक रूप से अत्याचारी होते हैं, क्योंकि वे उचित आचरण के लिए कृत्रिम सौपानिकी का निर्माण करते हैं। कृष्ण भी पुरुषोत्तम हैं, मगर लीला पुरुषोत्तम, जो जीवन जीने की आवश्यकता पर बल देते हैं, न कि उसे गंभीरता से लेते हैं। तेलुगू लोक कथाओं में सीता की बहनें, जो कि उसके पास खड़ी होती हैं, वे भी महलों से अपने निष्कासन की माँग करती हैं। क्योंकि उनका भी यही कहना होता है रावण के बारे में उन्होंने भी सोचा है।
• वापस वनगमन—मराठी लोक गीतों में सीता के वनगमन के दौरान गर्भवती होने का उल्लेख मिलता है कि सीता की ख़ुशी से किस तरह दूसरी औरतें ईर्ष्या करती हैं और उसे कष्ट देना चाहती हैं। जंगल जाते समय सीता गंगा में कूद कर अत्महत्या करना चाहती है, इसलिए शायद इसे जंगल भेजा जाता है। पद्मपुराण के अनुसार, बचपन में सीता दो तोतों की कहानी सुनती है। सीता शायद यह समझती है कि वे झूठ बोलते हैं और शेष कहानी सुनने के लिए उस पर दबाब डालती हैं, जिनमें से एक मर जाता है और सीता को वन गमन का अभिशाप देता है।
• राम के निर्णय का लक्ष्मण द्वारा अनुपालन—गंगा घाट के लोक गीतों में सीता लक्ष्मण को पानी लाने के लिए कहती है, तो वह कहता है आस-पास में कोई पानी का स्रोत नहीं है, तो वह कहती है अपने धनुष द्वारा पृथ्वी को भेदकर पानी निकालने के लिए। तो लक्ष्मण उसे ख़ुद करने के लिए कहता है, ताकि उसे रथ नहीं रोकना पड़े तो सीता अपने सतीत्व के प्रभाव से एक कुँए का निर्माण करती है। यह घटना लक्ष्मण के लिए सिद्ध करती है कि वह वास्तव में सती है और उसने अग्नि परीक्षा से लेकर कभी भी रावण के बारे में नहीं सोचा है। प्रादेशिक रामायणों में या लोक कथाओं में राम, लक्ष्मण को सीता की हत्या कर उसकी मौत के प्रमाण लाने के लिए कहता है, या तो उसकी आँखें या उसका ख़ून। मगर लक्ष्मण सीता को छोड़ देता है और उसकी जगह हिरण की आँखें ले जाता है। भील गानों में राम चाहता है कि लक्ष्मण सीता की हत्या करे, मगर उसे गर्भवती जानकार ऐसा नहीं करता। तेलगू गानों में सीता को मरा हुआ समझकर राम उसकी अन्त्येष्टि भी कर देते हैं। उत्तर रामायण पढ़ने के लिए मना किया जाता है, क्योंकि इस दुखान्त कहानी से धरती माता (सीता की माँ) दुखी हो जाती है, जिसकी वजह से भूकंप आने लगते है। जब लक्ष्मण महलों में लौटते है तो प्रकृति के यथार्थ पर राम के साथ उनकी दार्शनिक बाते होती हैं, जिसे अध्यात्म रामायण में रामगीता के रूप में जाना जाता है।
• शूर्पणखा द्वारा सीता को रुलाना—कई लेखक सोचते हैं कि शूर्पणखा का क्या हुआ? कई गाथाएँ राम द्वारा सीता के निष्कासन को दायी मानते हैं, तो कोई लेखक पितृसत्तात्मक समाज को उसका कारण मानते हैं, जबकि दूसरे, औरतों की ईर्ष्या का परिणाम समझते हैं। सुश्रुत संहिता में कटे नाक की सर्जरी के द्वारा यह अनुमान लगाया जाता है कि रावण के सर्जनों ने शूर्पणखा की नाक ठीक कर दी होगी। राजस्थानी लोक गाथाओं में शूर्पणखा के पुनर्जन्म की कहानियाँ मिलती हैं। वह फूलवती के रूप में जन्म लेती है और लक्ष्मण महान लोक नायक पाबूजी के रूप में जन्म लेते हैं। उनके भाग्य में शादी का संजोग होता है, मगर पाबूजी कभी ही इस सम्बन्ध को स्वीकार नहीं करता है। लक्ष्मण की तरह वह भी ब्रह्मचारी योद्धा के रूप में रहते हैं और और सूपर्नखा का प्यार फिर अधूरा रह जाता है।
• चोर जो कवि बन जाता है—पुराने ग्रन्थों में वाल्मीकि को प्रचेत या भार्गव कुल का ऋषि बताया गया है, जबकि मध्ययुगीन शास्त्रों में उसे अपने परिवार का निर्वाह करने के लिए चोरी करने वाला निम्न जाति का सदस्य बताया है। यह दोनों विरोधाभासी तथ्य नहीं हैं, क्योंकि उस समय ऋषि किसी भी जाति का हो सकता था। कुछ कहानियों में जैसे स्कन्द पुराण, आनंद रामायण, अध्यात्म रामायण में सन्त ऋषि या नारद के आशीर्वाद से रत्नाकर वाल्मीकि बन जाता है। सारला दास की ओड़िआ विलंका रामायण के अनुसार नदी के किनारे बालू पर ब्रह्मा के पसीने की बूँद गिरने से वाल्मीकि का जन्म होता है। उत्तर भारत में नीची जातियाँ जिसमें स्वीपर (sweeper) और मोची (cobbler) आते हैं, वे वाल्मीकि को अपना आदि (patron) संत मानते हैं। राम को पतितपावन कहा गया है। जिसका अर्थ पतितों का उद्धार करने वाला। कुछ साधुवादी रामायण को जातिप्रथा से मुक्ति दिलाने वाला आइकॉन मानते हैं। 17वीं शताब्दी में चंपा (आधुनिक वियतनाम) में वाल्मीकि का मंदिर बनाया गया है, और उन्हें विष्णु भगवान का अवतार माना जाता है। पारंपरिक तौर पर वाल्मीकि का आश्रम उत्तर प्रदेश के बान्दा ज़िले में है। वाल्मीकि की पूरी रामायण अनुष्टुप छन्द में लिखी गई है।
• जुड़वाँँ बच्चे—वाल्मीकि रामायण में सीता को जुड़वाँ बच्चों को जन्म देते दिखाया है। जबकि कथा सरित्-सागर और तेलुगू लोक संगीतों में वाल्मीकि द्वारा कुश-घास के माध्यम से दूसरे पुत्र की उत्पत्ति होती है। हिन्दुत्व में सम-मिति (symmetry) का ज़्यादा महत्त्व है। देवताओं की दो पत्नियाँ होती हैं एक इधर, एक उधर। देवी के दो बच्चे होते हैं जैसे (गौरी के गणेश और कार्तिकेय)। दो भाई होते हैं जैसे-पूरी में (सुभद्रा के साथ जगन्नाथ और बलभद्र)। दो योद्धा होते हैं जैसे उत्तर भारत के शेरवाली मंदिरों में-भैरव और लंगुभीर या हनुमान। इसी से यह अनुमान लगाया जाता है कि सीता के दो पुत्र symmetry की विचार धारा को प्रतिपादित करते हैं। रावण के दश सिर देखने में asymmetrical लगते हैं। मुख्य सिर के एक तरफ़ चार तो दूसरे तरफ़ पाँच सिरों का होना अस्थायीत्व प्रदर्शित करते हैं।
• हनुमान की रामायण—कई लोक कथाओं में रामायण का स्रोत हनुमान को माना गया। वाल्मीकि ने वही लिखा जो उसे हनुमान ने बताया। इसके पीछे कहने का यह उद्देश्य है कि सारे कथानक अपूर्ण हैं तथा किसी भी रचनाकार को उनकी रचनाओं की पूर्णता पर घमंड नहीं होना चाहिए। कुछ संस्करणों में हनुमान पत्थरों पर रामायण लिखते हैं, बल्कि दूसरे संस्करणों में उन्हें बड़ के पत्तों पर रामायण लिखते हुए दिखाया गया है, जिन्हें हवा भारत के अलग-अलग हिस्सों में उड़ा देती है।
• शत्रुघ्न द्वारा रामायण सुनना—वाल्मीकि रामायण में राम अपने भाइयों को अलग-अलग स्वतंत्र राज्य की स्थापना करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। मगर लक्ष्मण और भरत मना कर देते है। जबकि शत्रुघ्न लवण असुर को हराने के बाद स्वतंत्र राज्य स्थापना करने का साहस करता है। रास्ते में लौटते समय वाल्मीकि आश्रम में रुकता है और उनकी रचना रामायण को दो युवा बच्चों द्वारा गाते हुए सुनते हैं। वह उन्हें अयोध्या में गाने के लिए आमंत्रित करता है। क्या वह अपने भतीजों को पहचान लेता है? क्या वह राम के परिवार को मिलाना चाहता है? क्या रामायण में शत्रुघ्न को केवल इतनी ही भूमिका दी गई है। शत्रुघ्न रामायण में भरत की छाया से ज़्यादा कुछ नहीं है तथा उत्तर रामायण में लवण असुर को हराने के। लोक कथाओं में यह भी उल्लेख आता है कि लक्ष्मण सीता से चुपके–चुपके कई बार मिलते हैं। एक बार वह अपने बच्चों को दिखाने के लिए राम को ले जाते हैं। राम को देखकर वे उस पर कीचड़ फेंकते हैं।
• अयोध्या में मनोरंजन—सोने को शुद्ध धातु समझा जाता है, इसलिए राम ने सीता के प्रतिबिम्ब इसी धातु का प्रयोग करते हुए बनाया है। “कुशिलव” कहने का तात्पर्य घुमक्कड़ गायकों से हैं। जो राम के मौलिक पुत्र का दावा करते हुए राम से अपने पत्नी के परित्याग के निर्णय पर प्रश्नवाचक चिह्न खड़ा करते हैं। क्या उन्होंने अपने संदेह के कारण सीता का परित्याग किया? क्या वह लोगों की संतुष्ट करना चाहते थे या फिर समाज की धारणा के प्रति आवाज़ उठाना चाहते थे? जैन रामायण में (योग शास्त्र के रचयिता हेमचन्द्र के अनुसार) राम सीता को खोजने के लिए जंगल में जाते है, मगर उसे नहीं पाकर जंगली जानवरों द्वारा मरा हुआ जानकार उसकी अंत्येष्टि कर देते हैं। तेलगु लोक गीतों में घर की स्त्रियों द्वारा सीता के सोने के पुतलों को नहलाने का ज़िक्र आता है। राम की बड़ी बहन के साथ घर की स्त्रियाँ यह करने से इंकार कर देती है।
• राम का घोड़ा—वाल्मीकि रामायण में राम के घोड़े का कोई उल्लेख नहीं है, मगर आठवीं शताब्दी के संस्कृत नाटक भवभूति के उत्तर राम चरित तथा 14वीं सदी के पद्मपुराण के पाताल खण्ड में आता है। राम और उसकी सारी सेना सीता के पुत्रों को हराने में असमर्थ होने का अर्थ अनुचित समाज को नकारने से है। कथकली नृत्य के समय सीता की अनुपस्थिति देखकर हनुमान अवसाद ग्रस्त हो जाते हैं, और वह उन्हें जंगल में खोजने के लिए निकल पड़ते हैं। जहाँ सीता के पुत्र उन्हें पकड़कर बाँध लेते हैं। तब हनुमान उन्हें सीता का पुत्र होने का अनुमान लगाते हैं। असमी और बंगाली कथाओं में लव-कुश न केवल राम को हराते हैं, बल्कि वे उन्हें जान से मार देते हैं और उनका मुकुट माँ के पास ले जाते हैं, जिसे देखकर सीता पूरी तरह डर जाती है। वह भगवान से प्रार्थना कर उन्हें ज़िन्दा कर देती है। इस तरह सीता अपने साथ ग़लत किए हुए काम का बदला लेती है। अश्वमेध यज्ञ के पीछे उद्देश्य यह है कि चक्रवर्ती राजा बनने के लिए कम से कम सेना का प्रयोग किया जाय। राम अपने प्रभुत्व को बढ़ाना चाहते हैं मगर मानवीय सीमाओं के तौर पर उसके पुत्र उसका विरोध कर देते हैं। कोई भी नियम पूरी तरह से उचित नहीं है। कोई न कोई उस वजह से पीड़ित अवश्य होता है और जो पीड़ित होता है वह उसका प्रतिरोध करता है। गौरी कभी भी संप्रभुत्व-शाली नहीं होती है, बल्कि काली होती है। रामायण के परवर्ती भागों में दसवीं शताब्दी के संस्कृत नाटक चलित राम के लेखक की जानकारी नहीं है और यह नाटक पूरी तरह से उपलब्ध भी नहीं है। इस नाटक के अनुसार राक्षस रावण कैकेयी और मंथरा के वेश में अपने जासूसों को सीता के चरित्र पर संदेह करने के लिए भेजता है। लव और कुश जंगल में राम के घोड़े को पकड़ते है, मगर लड़ाई में लव पकड़ा जाता है और अयोध्या ले जाया जाता है, जहाँ वह सीता की सोने की मूर्ति देखता है और उसे अपनी माँ के रूप में पहचान लेता है।
• सीता का धरती में समाना—राम से मिलने का इंतज़ार कर सीता ने संस्कृति और सामाजिक नियमों से मुँह मोड़ लिया। उसे अब अपने स्टेट्स के लिए सामाजिक मर्यादाओं की आवश्यकता नहीं थी। इसलिए उन्होंने धरती का चयन किया। जहाँ न कोई नियम है, न कोई सीमा। अधिकांश रामायण कथाकार राम द्वारा सीता के परित्याग की चर्चा अवश्य करते हैं। मगर राम के द्वारा पुनर्विवाह के लिये इन्कार तथा सीता के धरती में समा जाने के बाद अपने ज़िन्दा रहने की बात नहीं करते हैं। इस तरह अधूरे विवरण राम को स्त्री के प्रति दृष्टिकोण से पूरी तरह अलग करते हैं। पश्चिम में इस तरह की घटनाओं की ख़ूब तारीफ़ की जाती है। शायद यह भारतीयता और भारत की एक विशेष छवि है। गोविंद रामायण के अनुसार लव और कुश द्वारा राम को हराने के पश्चात राम सीता को लेकर अयोध्या लौट जाते हैं और दश हज़ार साल तक शासन करते हैं। मगर महल की स्त्रियाँ सीता का ध्यान रावण की तस्वीर की तरफ़ खींचती है, जिससे राम अपने आपको असुरक्षित एवं ईर्ष्यालु अनुभव करने लगते हैं और फिर से सीता के सतीत्व की परीक्षा की माँग करते हैं। इस बार सीता धरती में समा जाती है।
दूसरी लोककथाओं में सीता अयोध्या जाने के लिए इंकार कर देती है, मगर जब उसे कहा जाता है, कि राम मर गए हैं तो वह अयोध्या की तरफ़ दौड़ती है। जहाँ जाकर उसे पता चलता है कि राम ज़िन्दा है और उसे धोखा दिया गया है तो वह धरती से फटने के लिये आग्रह करती है। आसामी रामायण में हनुमान सीता की खोज में पाताल लोक जाते हैं और उसे राम के पास आने के लिए मना लेते हैं। हरियाणा में करणाल जगह पर सीता माई का एक मंदिर है, जिसमें ज़मीन पर वह स्थल दिखाया गया है, जहाँ से धरती फटी थी और सीता उसमें समा गई थी।
• राम की निस्संगता—क्या वफ़ादारी एक गुण है? वाल्मीकि रामायण में यह सवाल अत्यन्त ही लोकप्रिय है, जिसके आधार पर अपने भाई के प्रति प्रेम के ख़ातिर लक्ष्मण ने अपनी ज़िन्दगी दाँव पर लगा दी। न तो उसे नियमों की परवाह थी और न ही अयोध्या के लिए मोह। राम के लिए अयोध्या नियमों से ज़्यादा महत्त्वपूर्ण होती है। यद्यपि अपने क्रूर व्यवहार के आधार पर राम ने लक्ष्मण को धर्म के पालन की शिक्षा दी और यहाँ तक कि राम का अंधानुकरण करने के लिए मना किया। कुत्ता यद्यपि वफ़ादार और प्रिय जानवर है, मगर हिन्दू शास्त्र उसे शुभ नहीं मानते। शायद कुत्ते की वफ़ादारी डर पर आधारित है और वैदिक शास्त्रों का मुख्य उद्देश्य दिमाग़ का विस्तार कर डर से मुक्ति पाने का है। राम का सहारा लिया जा सकता है और लक्ष्मण राम पर निर्भर करते हैं। इस कहानी के माध्यम से राम चाहते हैं कि लक्ष्मण अपनी निर्भरता से ऊपर उठकर ज़्यादा आश्रय देने योग्य बनें। अतः “सिर काट दिया गया”, मेटाफर दिमाग़ के विस्तार का प्रतीक हैं।
जैन उदाहरणों में लक्ष्मण के मरने पर राम रोते हैं। तब एक जैन साधु चट्टान से पानी निकालते हुए कहते हैं कि उसके आँसू एक लाश को ज़िन्दा नहीं कर सकते हैं। जिस तरह चट्टान का पानी कुआँ, पेड़ पौधों की उत्पत्ति नहीं कर सकता है।
इस तरह रामायण हमें नियमों को ज़्यादा मानने के ख़तरों के प्रति सचेत करता है। इससे यह प्रदर्शित होता है वह आदमी जो सारी चीज़ों की तुलना में नियमों को ज़्यादा मानते हैं, उसके व्यक्तित्व का सहारा लिया जा सकता है, उसके बारे में कुछ कहा जा सकता है, मगर वह अच्छा इन्सान नहीं हो सकता। कृष्ण नियमों से ऊपर उठकर देखते है और मानवीय गुणों को ज़्यादा तव्वजो देते हैं। रामायण और महाभारत दोनों का उपसंहार मृत्यु है और जो बुद्धि मृत्यु का पीछा करती है, वही मृत्यु सुखांत है।
• अयोध्या का सिंहासन—वैदिक विचारों को सामान्यतया वेदान्त कहा जाता है जो आत्मा और परमात्मा के सम्बन्धों की पुष्टि करता है। यह द्वैतवाद है। जिसके अनुसार आत्मा यह अनुभव करती है कि परमात्मा के बिना उसका कोई अस्तित्व नहीं है और परमात्मा यह अनुभव करते हैं कि आत्मा के बिना उसका कोई अस्तित्व नहीं है। यह अद्वैतवाद है। सीता के धरती में समा जाने के बाद धीरे-धीरे राम की सांसारिक आकर्षणों से रुचि ख़त्म होने लगी और वाल्मीकि रामायण के उत्तरकाण्ड के अनुसार राम सरयू नदी में जाकर जल समाधि ले लेते हैं। आधुनिक संवेदनाओं के अनुसार इस तरह किसी राजा की जल समाधि लेना आत्महत्या की दृष्टि से देखा जाता है। मगर भक्तों के अनुसार इसे मुक्त आत्माओं द्वारा स्वेच्छा से शरीर त्यागने की प्रक्रिया वाली समाधि की दृष्टि से देखा जाता है। आज भी यह प्रथा जैन साधुओं तथा हिन्दू संतों जैसे ज्ञानेश्वर आदि में देखी जाती है। राम ने गर्भ से जन्म लिया तो मृत्यु निश्चित है। दुनिया में ऐसे भी कोई स्थायित्व नहीं है। मगर हनुमान चिरंजीवी तथा अमर है। शायद अपने ब्रह्मचर्य के कारण। गृहस्थ राम की मृत्यु होती है, मगर साधु हनुमान की नहीं। भारतीय मिथकों में इस तरह की सारी संभावनाएँ देखी जाती हैं। जब कभी भी रामायण का पाठ होता है तो श्रोताओं में एक जगह हनुमान जी के लिए ख़ाली छोड़ी जाती है। कई कथाओं के अनुसार लव और कुश दो अलग-अलग नगरों के उत्तराधिकारी बनते हैं, श्रावस्ती तथा कुशावती। बाद में लव अयोध्या को लौटते हैं और उसे खंडहर के रूप में पाते हैं। जिसका जीर्णोद्धार कर पुरानी कीर्ति को प्राप्त करते हैं।
कालिदास के रघुवंश में राम के उत्तराधिकारियों की कहानी है, जो अग्निवर्मा पर जाकर समाप्त होती है जो कि एक बिगड़ैल, सुखवादी भोगी राजा है, जो अपना सारा समय रानियों के साथ बिताता है और जब भी जन सुनवाई की जाती है, तो वह खिड़की से अपना पाँव दिखाता है। वह इतना आलसी है कि बिस्तर से उठ भी नहीं पाता है। आख़िरकार वह मर जाता है और उसके सिंहासन पर गर्भवती रानी को बिठाया जाता है।
केरल में हिन्दू लोगों द्वारा मानसून के महीने में 16वीं शताब्दी में एज़्हुथचन (Ezhuthachan) द्वारा मलयालम में लिखी सम्पूर्ण रामायण गाथा को गाया जाता है। भारतीय मिथकों में अनेक राम हैं तो अनेक रामायण भी। जो यह दर्शाते हैं जीवन एक सरल रेखा नहीं है, कहीं पर पूर्ण विराम भी नहीं है। जीवन एक चक्र है, जो जाता है, वही आता है। इस तरह समय के विचार कभी भी इतिहास का आदर नहीं करते हैं। जो भूतकाल था, वही भविष्य होगा। इसलिए अनेक भारतीय भाषाओं में बीते हुए और आनेवाले दोनों दिनों के लिए “कल” का प्रयोग किया जाता है। महाभारत की तरह रामायण भी एक इतिहास है, जिसका दो भागों में अनुवाद किया जा सकता है। पहला—प्राचीन घटनाओं के रिकार्डों का लेखाजोखा। दूसरा—ऐसी कहानी जो कालजयी है। इस तरह पाँच हज़ार साल या उससे पूर्व गंगा के मैदानी घाटों पर एक कवि वाल्मीकि द्वारा गायी गई कथा या हमारे व्यक्तित्व के अलग-अलग पहलुओं के चरित्र को मनोवैज्ञानिक तौर पर प्रस्तुत करती हुई कालजयी कृति है।
<< पीछे : चौदहवाँ सर्ग: शान्ता: स्त्री विमर्श… आगे : सोलहवाँ सर्ग: शबरी का साहस >>विषय सूची
- कवि उद्भ्रांत, मिथक और समकालीनता
- पहला सर्ग: त्रेता– एक युगीन विवेचन
- दूसरा सर्ग: रेणुका की त्रासदी
- तीसरा सर्ग: भवानी का संशयग्रस्त मन
- चौथा सर्ग: अनुसूया ने शाप दिया महालक्ष्मी को
- पाँचवाँ सर्ग: कौशल्या का अंतर्द्वंद्व
- छठा सर्ग: सुमित्रा की दूरदर्शिता
- सातवाँ सर्ग: महत्त्वाकांक्षिणी कैकेयी की क्रूरता
- आठवाँ सर्ग: रावण की बहन ताड़का
- नौवां सर्ग: अहिल्या के साथ इंद्र का छल
- दसवाँ सर्ग: मंथरा की कुटिलता
- ग्यारहवाँ सर्ग: श्रुतिकीर्ति को नहीं मिली कीर्ति
- बारहवाँ सर्ग: उर्मिला का तप
- तेरहवाँ सर्ग: माण्डवी की वेदना
- चौदहवाँ सर्ग: शान्ता: स्त्री विमर्श की करुणगाथा
- पंद्रहवाँ सर्ग: सीता का महाआख्यान
- सोलहवाँ सर्ग: शबरी का साहस
- सत्रहवाँ सर्ग: शूर्पणखा की महत्त्वाकांक्षा
- अठारहवाँ सर्ग: पंचकन्या तारा
- उन्नीसवाँ सर्ग: सुरसा की हनुमत परीक्षा
- बीसवाँ सर्ग: रावण की गुप्तचर लंकिनी
- बाईसवाँ सर्ग: मन्दोदरी:नैतिकता का पाठ
- तेइसवाँ सर्ग: सुलोचना का दुख
- चौबीसवाँ सर्ग: धोबिन का सत्य
- पच्चीसवाँ सर्ग: मैं जननी शम्बूक की: दलित विमर्श की महागाथा
- छब्बीसवाँ सर्ग: उपसंहार: त्रेता में कलि
लेखक की कृतियाँ
- साहित्यिक आलेख
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- अमेरिकन जीवन-शैली को खंगालती कहानियाँ
- आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी की ‘विज्ञान-वार्ता’
- आधी दुनिया के सवाल : जवाब हैं किसके पास?
- कुछ स्मृतियाँ: डॉ. दिनेश्वर प्रसाद जी के साथ
- गिरीश पंकज के प्रसिद्ध उपन्यास ‘एक गाय की आत्मकथा’ की यथार्थ गाथा
- डॉ. विमला भण्डारी का काव्य-संसार
- दुनिया की आधी आबादी को चुनौती देती हुई कविताएँ: प्रोफ़ेसर असीम रंजन पारही का कविता—संग्रह ‘पिताओं और पुत्रों की’
- धर्म के नाम पर ख़तरे में मानवता: ‘जेहादन एवम् अन्य कहानियाँ’
- प्रोफ़ेसर प्रभा पंत के बाल साहित्य से गुज़रते हुए . . .
- भारत के उत्तर से दक्षिण तक एकता के सूत्र तलाशता डॉ. नीता चौबीसा का यात्रा-वृत्तान्त: ‘सप्तरथी का प्रवास’
- रेत समाधि : कथानक, भाषा-शिल्प एवं अनुवाद
- वृत्तीय विवेचन ‘अथर्वा’ का
- सात समुंदर पार से तोतों के गणतांत्रिक देश की पड़ताल
- सोद्देश्यपरक दीर्घ कहानियों के प्रमुख स्तम्भ: श्री हरिचरण प्रकाश
- पुस्तक समीक्षा
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- डॉ. आर.डी. सैनी का उपन्यास ‘प्रिय ओलिव’: जैव-मैत्री का अद्वितीय उदाहरण
- डॉ. आर.डी. सैनी के शैक्षिक-उपन्यास ‘किताब’ पर सम्यक दृष्टि
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- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 2
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 3
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 4
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 5
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 1
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