त्रेता: एक सम्यक मूल्यांकन (रचनाकार - दिनेश कुमार माली)
पाँचवाँ सर्ग: कौशल्या का अंतर्द्वंद्व
महाकाव्य के पाँचवें सर्ग में कवि ने राम की माता कौशल्या के जीवन की घटनाओं के प्रसंग का आत्मपरक विश्लेषण करते हुए तत्कालीन समसामायिक स्त्री-विमर्श के फलस्वरूप परिलक्षित की जाने वाली नारी जीवन की समस्याओं, उनकी आकांक्षाओं, बहुपत्नीत्व के कारण उत्पन्न सौतिया डाह, राजनीति के कुटिल दाँव-पेंच के खेल, “त्रेता’ के नारी पात्रों में आसानी से देखे जा सकते हैं। परन्तु अनमेल विवाह, अनिच्छा-विवाह, कन्या के साथ पण्यवस्तु जैसे व्यवहार, पुरुष और स्त्री की शिक्षा में योग्यता का अंतर मानना, पुत्री को शिक्षा से वंचित रखना, पुत्री के जन्म को नारी का अपराध मानना और इसके लिए उसको दंडित करना, नवजात बालिका का केवल लड़की होने के कारण परित्याग करना, नारी का सीमाशुल्क अधिकारी होना आदि बहुत से ऐसे कार्य हैं जो त्रेता युग की चिंता के परिचित भाग नहीं हैं, उस काल की समस्याएँ नहीं हैं। कवि ने समसामयिकता से प्रभावित होकर उस काल के पात्रों और घटना-प्रसंगों पर उन्हें आरोपित किया है।
कौशल्या नामकरण के मामले में कवि उद्भ्रांत ने मौलिकता दिखाते हुए यह लिखा है कि पाक कला में कुशल होने के कारण अथवा कुश की तरह, भले ही साधारण, मगर नुकीली दृष्टि, अडिग और अविचल विचार रखने के कारण उनका नाम कौशल्या रखा गया, मगर गीताप्रेस, गोरखपुर से प्रकाशित बाइसवें वर्ष का विशेषांक “नारी-अंक” में उन्हें दक्षिण के कौशल राज्य की राजकुमारी बताया है, जिसका अपहरण रावण ने झंझावात पैदा करके किया और उन्हें काष्ठ पेटिका में बंद करके समुद्र में फेंक दिया। बाद में उनकी मुलाक़ात हिन्दी फ़िल्मी तरीक़े से राजा दशरथ से हो जाती है जो आगे जा कर परिणय सूत्र में बँध जाते हैं। इस अध्याय में कवि ने स्त्रीयोचित ईर्ष्या के भाव कैकेयी के प्रति दिखाए हैं। उनका दुख यह है कि राजा दशरथ हमेशा उसके साथ रहते है, और कैकेयी ने उन्हें अपने वश में कर लिया है। तभी तो ‘त्रेता’ में कवि ने लिखा है:
“दुर्दिन तब सचमुच मुझे
अपने आते दिखे—
जब कैकेय नरेश की
अनिंद्य रूपवती कन्या कैकेयी
अयोध्या के राजमहल में आयी।
अनिंद्य सुंदरी होने के साथ
परम निष्णात थी वह
वार्तालाप करने में
बड़ी बहन का आदर-सम्मान
उससे सदैव मैंने
प्राप्त किया प्रकटतः।”
मगर इसी अध्याय में आगे जाकर कवि उद्भ्रांत कैकेयी की वीरगाथा के बारे में अपनी आशंका जताने के साथ-साथ मनुस्मृति की संहिताओं को मानने की व्यवस्था पर खेद प्रकट किया है। वे कहते हैं—
“हम सबने सुनी जो कथा
यह दरबार में
वह थी कितनी सत्य
इसे जानने की कोई
विधि न थी हमारे पास,
और यद्यपि थी पूरी कथा ही अविश्वसनीय
किन्तु हमारे
महान पुरखे मनु महाराज द्वारा
निर्मित संहिता के अनुसार
राजा ईश्वर है
जनता के लिए और
स्त्री के लिए ईश्वर, पति है।”
राम और सीता को चौदह वर्ष वनवास देने के आदेश के दारुण दुख से महाराज दशरथ के प्राण निकल जाते हैं, कैकेयी को यह सबसे बड़ा दंड प्राप्त होता है वैधव्य के रूप में तथा सुमित्रा पश्चाताप करने लगती है, मगर कौशल्या के दुखों की मात्र दोगुनी-तिगुनी घनीभूत वृद्धि होने के बावजूद भी वह साधारण मनुष्य के दुख की तरह अभिव्यक्त नहीं कर पाती है। कवि की पंक्तियाँ . . .
“और मुझे देते हुए—
दोहरा-तिहरा दुःख घनीभूत
अनुमति व्यक्त होने की नहीं।
जननी राम की थी माँ।
मानव का साधारण दुःख भला
क्यों स्पर्श करता मुझे।”
इस प्रसंग पर आलोचक कंवल भारती अपनी राय रखते है कि कौशल्या को यह मालूम था कि विष्णु अवतार के रूप में राम उसकी कोख से जन्म लेंगे, दशरथ की मृत्यु, चौदह वर्ष राम का वन निष्कासन, सीता अपहरण, अगर सब विधि के विधान के तहत पूर्व निर्धारित घटनाएँ हैं तो कैकेयी को लेकर उनके मन में अंतर्द्वंद्व क्यों पैदा हुआ? क्या कवि कैकेयी के चित्रण में कहीं पक्षपात तो नहीं कर रहे हैं। जैसा कि भगवान राम के वन जाते समय माता कौशल्या ने अपनी मनस्थिति को इस तरह प्रस्तुत किया था। स्त्रियों के लिये सौतेली पत्नी द्वारा किये गए अपमान से बढ़कर कोई कष्ट नहीं। मैं तो कैकेयी की दासी की भाँति हूँ। मेरे सेवक-सेविकाएँ कैकेयी से सदा भीत रहती हैं और कैकेयी के सेवक भी मुझे कष्ट देते हैं।
एक बात और यहाँ उल्लेखनीय है कि कवि ने पूरी ईमानदारी के साथ तत्कालीन राजा महाराजाओं की देह-आसक्ति को उभारने के साथ-साथ मानवीय धरातल पर स्त्रियों के चरित्र-चित्रण का अच्छा-ख़ासा मनोविश्लेषण किया है। उन्होंने सत्य को सामने लाया है कि देह-लोलुप राजा-महाराजा और सामंत नारी के सौंदर्य के सामने किस तरह अपने राज्य की उपेक्षा करते थे।
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- कवि उद्भ्रांत, मिथक और समकालीनता
- पहला सर्ग: त्रेता– एक युगीन विवेचन
- दूसरा सर्ग: रेणुका की त्रासदी
- तीसरा सर्ग: भवानी का संशयग्रस्त मन
- चौथा सर्ग: अनुसूया ने शाप दिया महालक्ष्मी को
- पाँचवाँ सर्ग: कौशल्या का अंतर्द्वंद्व
- छठा सर्ग: सुमित्रा की दूरदर्शिता
- सातवाँ सर्ग: महत्त्वाकांक्षिणी कैकेयी की क्रूरता
- आठवाँ सर्ग: रावण की बहन ताड़का
- नौवां सर्ग: अहिल्या के साथ इंद्र का छल
- दसवाँ सर्ग: मंथरा की कुटिलता
- ग्यारहवाँ सर्ग: श्रुतिकीर्ति को नहीं मिली कीर्ति
- बारहवाँ सर्ग: उर्मिला का तप
- तेरहवाँ सर्ग: माण्डवी की वेदना
- चौदहवाँ सर्ग: शान्ता: स्त्री विमर्श की करुणगाथा
- पंद्रहवाँ सर्ग: सीता का महाआख्यान
- सोलहवाँ सर्ग: शबरी का साहस
- सत्रहवाँ सर्ग: शूर्पणखा की महत्त्वाकांक्षा
- अठारहवाँ सर्ग: पंचकन्या तारा
- उन्नीसवाँ सर्ग: सुरसा की हनुमत परीक्षा
- बीसवाँ सर्ग: रावण की गुप्तचर लंकिनी
- बाईसवाँ सर्ग: मन्दोदरी:नैतिकता का पाठ
- तेइसवाँ सर्ग: सुलोचना का दुख
- चौबीसवाँ सर्ग: धोबिन का सत्य
- पच्चीसवाँ सर्ग: मैं जननी शम्बूक की: दलित विमर्श की महागाथा
- छब्बीसवाँ सर्ग: उपसंहार: त्रेता में कलि
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