त्रेता: एक सम्यक मूल्यांकन (रचनाकार - दिनेश कुमार माली)
दूसरा सर्ग: रेणुका की त्रासदी
त्रेता महाकाव्य का द्वितीय सर्ग है ‘रेणुका’, जिसके अंतर्गत कवि उद्भ्रांत ने तत्कालीन समाज में रेणुका के माध्यम से नारी की स्थिति का अवलोकन करते हुए उनके सतीत्व की महत्ता पर प्रकाश डाला है। इस प्रसंग में रेणुका अपने जीवन के प्रसंगों को आत्म कथात्मक रूप से प्रकट करती है। जैसे: सूर्यवंशी राजा कि नटखट किरणपुत्री/राजकुमारी के रूप में/जन्म लिया मैंने। और रेणुका नाम के पीछे छुपे रहस्य को प्रकट करते हुए वह कहती है कि उसका निर्मल सौन्दर्य प्रातः की किरण की तरह था इसलिए ज्योतिषियों ने उसका नाम “रेणुका” रखा। बचपन की चपलता, चंचलता, लाड़-प्यार में पली होने के कारण उसका बचपन शैतानियों से भरा हुआ होता था। एक बार जब उसने देखा कि उसके पिताजी किसी ऋषि के सामने उनके चरणों में गिर कर क्षमा याचना कर रहे थे तो उसे बरदाश्त नहीं हुआ और उसने ऊँची आवाज़ में पिता से इस बारे में सवाल पूछा कि ऐसा आपने क्या अपराध किया, जो उनके सामने गिड़गिड़ा रहे हो। मगर उसके पिता ने रेणुका को समझाने के बजाय उस ऋषि जमदग्नि के साथ विवाह का प्रस्ताव रखा। यहाँ पर यह बात उठती है कि तत्कालीन समाज में ब्राह्मणों का वर्चस्व इस क़द्र ज़्यादा था कि राजा-महाराजा भी उनसे थरथर काँपते थे और अपनी बेटियों तक को उनके समक्ष शादी के लिए प्रस्तुत कर देते थे। यही नहीं, उसमें अपने गर्व कि अनुभूति महसूस करते थे तभी तो कवि उद्भ्रांत लिखते हैं—यदि मेरी प्रार्थना स्वीकारने की/अनुकंपा हुई तो/पुत्री का धन्य होगा जीवन/सूर्यवंशी कन्या को/मिलेंगे ब्राह्मणों के/उच्चतम संस्कार भी। साथ ही साथ, कवि उस बालिका के मन में उठ रहे अंतर्द्वन्द्व को प्रस्तुत करने में पीछे नहीं रहते हैं कि बिना उसकी अनुमति के इस तरह का प्रस्ताव रखना क्या पिता के लिए उचित था/ अगर यह उचित था तो क्या ऋषि जमदग्नि द्वारा इस प्रस्ताव को मान लेना शोभनीय कार्य था/ इस कविता में भृगु ऋषि का भी ज़िक्र किया गया है कि उनके प्रतापी वंशज जमदग्नि थे। सवाल यह उठता कि क्षत्रिय संस्कार क्या इतने नीचे गिर चुके थे कि वर्ण-व्यवस्था का पालन किए बिना विवाह कर सकते थे। रेणुका आगे कहती है कि उसके चार पुत्र हैं। सबसे छोटा पुत्र जिसे वह राम कहती थी, पिता की तरह संस्कारवान, वेदवेत्ता, शास्त्रज्ञ, तपस्वी, वाक्पटु, गंभीर होने के बावजूद भी रक्त में क्षत्रिय संस्कार होने के कारण उसके चेहरे पर भयानक क्रोध दमदमाता था। उसका सबसे प्रिय शस्त्र था पर्शु और वह महादेव का परम भक्त था और उसकी माता-पिता के प्रति अगाध श्रद्धा भी थी। जब ब्राह्मण समाज उसे भगवान राम के नाम से संबोधित करता था तो उसे उसकी माँ रेणुका को अत्यंत ही हर्ष होता था। बचपन में एक क्षत्रिय राजा ने उसके पिता का अपमान किया तब उसने अपने पर्शु से धड़ अलग करने की शपथ ली थी। वह इतना ज़िद्दी हो चुका था कि लाख बार रोकने के बाद भी लगातार इक्कीस हत्याएँ कर दी थीं। रेणुका को इस बात की कल्पना न थी कि क्षत्रियों के प्रति उसकी यह नफ़रत जानलेवा साबित हो सकती है। उसे क्या पता था कि पास की किसी नदी में अप्सराओं के साथ गंधर्वों को वस्त्र रहित स्नान करते देखने का दंड उसे अपनी गर्दन कटा कर चुकाना होगा। जब ऋषि को यह पता चला कि उसकी पत्नी गंधर्वों की कामलीला देख रही है तो वह अपना आपा खो कर उस पर दुराचरण का आरोप लगाए हुए अपने सभी बेटों से एक-एक कर उसका वध करने का आदेश देते हैं। मगर बड़े तीन भाइयों के भयाक्रांत होने के बाद उनकी आज्ञा मानने से इंकार करने पर पर्शुराम पितृ भक्ति में अंधे हो कर, उचित-अनुचित का भेद जाने बिना अपनी माता का वध कर देते हैं। उसे तो यह भी पता नहीं कि उस स्त्री ने उसे इस धरती पर लाने के लिए अपनी कोख में नौ महीने रखकर अपने रक्त-मज्जा से पोषित किया था। आप कल्पना कर सकते हैं कि अपना अंतिम क्षण जानकर भी रेणुका ने उसे चिरंजीवी रहने का असीम आशीर्वाद दिया। यह था त्रेता का प्रथम चरण जहाँ इतिहास अधोन्मुख हो जाता है, मनु संहिता लागू होने लगती है। मगर सृष्टि के गर्भ में समाए हुए अनेक रहस्य धीरे-धीरे हज़ारों सवाल हमारी वर्तमान पीढ़ी के समक्ष प्रस्तुत करते है, उदाहरण के तौर पर:
1) क्या नारी को काम सम्बन्धित अपनी भावनाओं को प्रकट करने का या अनुभव करने का लेश मात्र भी अधिकार नहीं होना चाहिए? सरोजिनी साहू की कहानी ‘रेप’ में नायिका अपने पति को सपने में किसी दूसरे आदमी से यौन सम्बन्ध बनाने के बारे में कहती है तो वह उसके साथ ऐसा व्यवहार करने लगता है मानो किसी ने उसके साथ ‘रेप’ किया हो।
2) क्या वही वर्ग-व्यवस्था तत्कालीन समाज को नाश कर रही थी, जो आज भी विनाश का मुख्य कारण है? एक ब्राह्मण तथा क्षत्रिय से उत्पन्न संतान वर्ण संकर बनकर समाज संहारक बन सकती है? गीता का श्लोक “चातुर्वर्णय मया सृष्टि . . .” इस बात की पुष्टि नहीं करती?
3) क्या तत्कालीन समाज में एक राजा अपने स्वार्थ की ख़ातिर अपनी बेटी को किसी बूढ़े आदमी को दान कर अपने संस्कारी होने की दुहाई देता है? मनुसंहिता के अनुसार राजा को भगवान मानना उचित था?
कवि उद्भ्रांत इस कविता के माध्यम से यह साबित कर देते हैं कि जो समस्याएँ कलियुग में हैं, वे सारी समस्याएँ त्रेता युग में भी थीं, शायद कुछ ज़्यादा ही। देवदत्त अपनी पुस्तक “इंडियन माइथोलोजी” में रेणुका के संदर्भ में एक कहानी के माध्यम से ऐसे ही कुछ विचार प्रस्तुत करते है। जब पर्शुराम अपनी माँ को कुल्हाड़ी लेकर मारने के लिए दौड़ रहा था तो वह अपने को बचाने के लिए एक निम्न जाति के परिवार में शरण लेती है। यह सोचकर कि उसका ब्राह्मण बेटा वहाँ प्रवेश नहीं करेगा, मगर ऐसा नहीं होता है, उसने न केवल रेणुका का सिर काटा वरन् उसको बचाने आई एक निम्न जाति की महिला का भी सिर काट लिया। जब पर्शुराम ने अपनी माँ को ज़िन्दा करने के लिए अपने पिता से वर माँगा तो उन्होंने अभिमंत्रित जल दिया, मगर उत्तेजनावश पर्शुराम ने निम्न जाति की महिला का सिर अपनी माँ के धड़ से जोड़ दिया और अपनी माँ का सिर दूसरी महिला के धड़ से जोड़ दिया। जमदग्नि ऋषि ने पहले वाले शरीर को स्वीकार किया और दूसरे शरीर को निम्न जाति के लोगों के पूजा-पाठ के लिए छोड़ दिया। जिसे ‘येलम्मा’ के नाम से जाना जाता है। महाराष्ट्र, कर्नाटक और आंध्रा के गाँवों में किसान ऊँची जाति वाले रेणुका के सिर की पूजा करते है। रेणुका और येलम्मा दोनों अपने पति द्वारा प्रताड़ना को प्रस्तुत करते हैं। इसके अतिरिक्त, उद्भ्रांत के दूसरे सर्ग की यह कविता तत्कालीन समाज में व्यभिचारिणी पत्नी पर अविश्वास, अपराध पर दंड की क्रूरता, उच्च जाति के हिंदुओं की कठोरता, निम्न जाति के हिंदुओं की नम्रता, संवेदनाओं और नैतिकता के उतार-चढ़ाव को प्रस्तुत करती है। यद्यपि यह कहानी संस्कृत साहित्य में नहीं दी गई है, मगर मनोविज्ञानियों द्वारा इसे अभी जोड़ दिया गया है। क्योंकि अधिकतर शक्तिशाली कथानक एक पीढ़ी से दूसरे पीढ़ी में मौखिक रूप से जाते हैं न कि शास्त्रों के द्वारा। रेणुका के सिर और धड़ की पूजा येलम्मा, एकवे और हुलिगम्मा के रूप में की जाती है। यह तीर्थ कुख्यात है और आजकल अवैध भी, क्योंकि यहाँ पर देवदासी के नाम से जवान लड़कियों को वेश्यावृत्ति के लिए बाध्य किया जाता है। पर्शुराम का यह संदर्भ तत्कालीन मनुष्यों में लूटपाट, चोरी जैसी लोक-प्रवृति को उजागर करता है। उदाहरण के तौर पर त्रेता में रावण ने सोने के हिरण के माध्यम से सीता को प्राप्त करना चाहा, कैकेयी ने अपने पुत्र के लिए अयोध्या का राजसिंहासन तथा कार्तवीर्य ने पर्शुराम के पिता जमदग्नि से नंदिनी गाय को प्राप्त करना चाहा। दूसरी बात, पर्शुराम की यह कहानी पितृसत्ता का बोध करती है जिसमें स्त्रियों तथा मवेशियों को सम्पत्ति के रूप में गिना जाता था। तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था में राजाओं और साधुओं के बीच में संघर्ष चला आ रहा था। ब्राह्मण ग्रन्थों के अनुसार पर्शुराम विष्णु का उग्र अवतार है जो नियम बनाता है, वह राम तथा कृष्ण से भिन्न है क्योंकि राम नियमों का पालन करते हैं तथा कृष्ण नियमों को तोड़ते हैं। पर्शुराम की कोई पत्नी नहीं थी, राम की एक पत्नी थी और कृष्ण की अनेक पत्नियाँ। पर्शुराम की माँ रेणुका, राम की पत्नी सीता तथा कृष्ण की सखी द्रोपदी को देवी के रूप में माना जाता है। इस तरह दोनों अवतारों में क्रमशः विकास हुआ है।
मगर महात्मा ज्योतिबा फूले ने अपनी पुस्तक “गुलामगिरि (1873)” में पर्शुराम को एक ब्राह्मण पुरोहित वर्ग का मुखिया तथा क्रूर क्षत्रिय बताया है जिसने इक्कीस बार क्षत्रियों को पराजित करके उनका सर्वनाश किया तथा उनकी अभागी नारियों के अबोध मासूम बच्चों का क़त्ल किया, इतने क़त्ल तो हिटलर ने भी नहीं किए होंगे। ब्राह्मणों ने चालाकी से अपने पूर्वजों के मान में कमी नहीं आने के लिए अवतार जैसा मिथ्या पात्र खड़ा किया है।
सारांश यह है कि उद्भ्रांत जी की इस काव्यमयी रामकथा की हर नारी ऐसे नए अध्याय की रचना करती जाती है, जो न केवल अतीत वरन् वर्तमान समाज में उन मूल्यों पर गहरी बहस पैदा कर नए रास्ते का प्रतिपादन करने में समर्थ है।
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- कवि उद्भ्रांत, मिथक और समकालीनता
- पहला सर्ग: त्रेता– एक युगीन विवेचन
- दूसरा सर्ग: रेणुका की त्रासदी
- तीसरा सर्ग: भवानी का संशयग्रस्त मन
- चौथा सर्ग: अनुसूया ने शाप दिया महालक्ष्मी को
- पाँचवाँ सर्ग: कौशल्या का अंतर्द्वंद्व
- छठा सर्ग: सुमित्रा की दूरदर्शिता
- सातवाँ सर्ग: महत्त्वाकांक्षिणी कैकेयी की क्रूरता
- आठवाँ सर्ग: रावण की बहन ताड़का
- नौवां सर्ग: अहिल्या के साथ इंद्र का छल
- दसवाँ सर्ग: मंथरा की कुटिलता
- ग्यारहवाँ सर्ग: श्रुतिकीर्ति को नहीं मिली कीर्ति
- बारहवाँ सर्ग: उर्मिला का तप
- तेरहवाँ सर्ग: माण्डवी की वेदना
- चौदहवाँ सर्ग: शान्ता: स्त्री विमर्श की करुणगाथा
- पंद्रहवाँ सर्ग: सीता का महाआख्यान
- सोलहवाँ सर्ग: शबरी का साहस
- सत्रहवाँ सर्ग: शूर्पणखा की महत्त्वाकांक्षा
- अठारहवाँ सर्ग: पंचकन्या तारा
- उन्नीसवाँ सर्ग: सुरसा की हनुमत परीक्षा
- बीसवाँ सर्ग: रावण की गुप्तचर लंकिनी
- बाईसवाँ सर्ग: मन्दोदरी:नैतिकता का पाठ
- तेइसवाँ सर्ग: सुलोचना का दुख
- चौबीसवाँ सर्ग: धोबिन का सत्य
- पच्चीसवाँ सर्ग: मैं जननी शम्बूक की: दलित विमर्श की महागाथा
- छब्बीसवाँ सर्ग: उपसंहार: त्रेता में कलि
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- भारत के उत्तर से दक्षिण तक एकता के सूत्र तलाशता डॉ. नीता चौबीसा का यात्रा-वृत्तान्त: ‘सप्तरथी का प्रवास’
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