त्रेता: एक सम्यक मूल्यांकन 

 

‘अनुसूया’ सर्ग में कवि उद्भ्रांत ने सती अनुसूया के जीवन चरित्र पर प्रकाश डालते हुए सिद्ध करने का प्रयास किया है कि स्वायंभुव मनु की पुत्री देवहुति तथा ब्रह्मर्षि कर्दम के गर्भ से जन्म लेने वाली अनुसूया में अपने वंश के अनुरूप सत्य, धर्म, शील, सदाचार, विनय, लज्जा, क्षमा, सहिष्णुता तथा तपस्या आदि सद्गुणों का स्वाभाविक रूप से विकास हुआ था। ब्रह्मा जी के मानस पुत्र परम तपस्वी महर्षि अत्रि को उन्होंने पति के रूप में प्राप्त किया था। इस प्रसंग में अनुसूया के सतीत्व की परीक्षा करने आए तीनों देव ब्रह्मा, विष्णु और महेश को अपने संकल्प बल द्वारा नवजात शिशुओं में बदल कर उनकी विवस्त्र होकर ‘भिक्षाम देही, भिक्षाम देही’ की शर्त को पूरा करती है। कवि उद्भ्रांत लिखते हैं ‘यदि मेरे अन्तर्मन में/कभी किसी भी क्षण/किसी अन्य पुरुष का/आया नहीं ध्यान हो तो/ये तीनों मुनिवर/नवजात शिशु बनकर/लगाएँ वक्ष से’। मगर दलित समीक्षक कंवल भारती के अनुसार उद्भ्रांत की अनुसूया का जीवन चरित्र तथ्यों से मेल नहीं खाता। उन्होंने अपनी पुस्तक “त्रेता-विमर्श और दलित चिन्तन” के अध्याय चार (पतिव्रत धर्म की कसौटी) में उसे अपने समय की सबसे बड़ी मूर्ख, कर्तव्यविमूढ़ और चेतना-शून्य स्त्री बतलाया है जिसके अनुसार न केवल उसने अपने चरित्र को स्वयं दूषित किया है, वरन्‌ उस पर तरस भी नहीं खाया जा सकता है। रामायण की इस कहानी पर कंवल भारती ने निम्न शंकाएँ ज़ाहिर की हैं। जब सरस्वती, लक्ष्मी और पार्वती को असलियत का पता चला तो उन्होंने जाकर अनुसुइया से क्षमा माँगी और अपने-अपने पतियों को छुड़ा कर लायीं। दलित आलोचक के अनुसार ब्रह्मा, विष्णु और महेश के शिशु बनने वाली बात पर विश्वास नहीं किया जा सकता। यदि अनुसूया के सत्य में इतनी ही ताक़त थी, तो उन्होंने उन तीनों व्यभिचारी देवताओं को भस्म क्यों नहीं कर दिया? उन्हें शिशु बनवाकर उनसे अपनी छातियाँ क्यों चुसवायीं? इस कहानी में दो बड़े सवाल यह हैं कि तीनों देवता अपनी पत्नियों के कहने पर अनुसूया के साथ सम्भोग करने के लिए तैयार क्यों हो गये? स्पष्ट है कि वे तीनों अनुसूया से सम्भोग के लिये इसलिए तैयार हो गए, क्योंकि वे पहले से ही व्यभिचारी और कामान्ध थे। उनकी चरित्र भ्रष्टता के अनेक प्रमाण शास्त्रों में मौजूद हैं। ब्रह्मा अपनी ही पुत्री के साथ सम्भोग रत हो चुके थे। (कुछ आध्यात्मिक संस्थाएँ सरस्वती को ब्रह्मा की मानस-पुत्री मानते हैं। किन्तु सृष्टि का पालन व ज्ञानदान करने के कर्त्तव्य निर्वाह करने के कारण ब्रह्मा को जगतपिता और सरस्वती को जगतमाता माना है। उनके अनुसार ब्रह्म देव एवं सरस्वती के मध्य किसी प्रकार का शारीरिक सम्बन्ध की कल्पना तक नहीं की जा सकती। क्योंकि वे निरंकारी आत्मस्वरूप में स्थित हैं) विष्णु जलंधर की पत्नी वृंदा का शील भंग कर चुके थे, और महेश इतने ज़्यादा कामान्ध थे कि मोहिनी के पीछे कहाँ-कहाँ नहीं भागे। वे तीनों व्यभिचारी थे और सुंदर स्त्रियों को भोगने का कोई भी अवसर नहीं छोड़ते थे। दूसरा बड़ा सवाल यह है कि अनुसूया ने देवताओं की विवस्त्र हो कर भोजन परोसने की शर्त क्यों स्वीकार की? यदि यह पतिव्रता स्त्री थी, तो उसको यह शर्त बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करनी चाहिए थी, प्रत्युत ऐसी शर्त सुनकर उन तीनों की एक मोटे डंडे से पिटाई करनी चाहिए थी। उसने विरोध क्यों नहीं किया और वह उनके सामने निर्वस्त्र हो गई? इससे यही कहा जा सकता है कि वह मूर्ख थी या स्वयं व्यभिचारिणी थी। 

डॉ. आनंदप्रकाश दीक्षित ने अपनी पुस्तक ‘त्रेता:एक अंतर्यात्रा’ में इस प्रसंग को दूसरे ढंग से लिया है कि शायद कवि उद्भ्रांत इसके माध्यम से न केवल राम अवतार की पुष्टि करना चाहते हैं वरन्‌ साथ ही साथ सीता की त्रासदी की भूमिका भी तैयार करता हुआ नज़र आते हैं। 

मैंने कहा, “क्षमा योग्य
नहीं है अपराध यह, 
किन्तु क्षमा करती हूँ
स्त्री की
अपनी प्रकृति के अनुरूप। 

X    X    X

“तीनों से सर्वाधिक पाप
महालक्ष्मी का, 
क्योंकि उसने ही किया
सूत्रपात ऐसी कुटिल मंत्रणा का; 

X    X    X

“अतएव पृथ्वी पर विष्णु के रामवातार के समय
अपमानित उसे ही होना होगा
सामने समाज के, 
पति से बिछोह का भी
सामना करना होगा;” 

मगर कंवल भारती उपर्युक्त प्रसंगों का विरोध करते हैं कि अनुसूया ने ब्रह्मा, विष्णु, महेश को अभिशाप न देकर केवल विष्णु की पत्नी महालक्ष्मी को अभिशाप देने का क्या तुक था। कवि ने एक स्त्री के विरोध में दूसरी स्त्री को खड़ा कर दिया, जबकि पुरुष वर्ग को क्लीन चिट दे दी। उनकी शंका निम्न प्रश्नों के रूप में प्रकट होती हैं:

प्र. (1)—क्या अनुसूया को रामवातार की जानकारी थी? अगर हाँ, तो ब्रह्मा, विष्णु, महेश उसके साथ क्या षड्यंत्र करने जा रहे हैं इस चीज़ की जानकारी क्यों नहीं हुई? 

प्र. (2)—अनुसूया ने लक्ष्मी को सीता बनाने के लिए अपहरण, पति बिछोह, पातिव्रत धर्म की पूर्ति हेतु अग्नि परीक्षा के लिए अभिशाप दिया, मगर सवाल अभी भी ज़िन्दा है कि सीता ने अग्नि परीक्षा निर्वस्त्र हो कर क्यों नहीं दी? जबकि अनुसूया ने अपनी परीक्षा पर पुरुषों के समक्ष निर्वस्त्र होकर दी। 

प्र. (3)—क्या अनुसूया को अपने किए पर पश्चाताप हुआ? वह अपने को दोषी मानने के बजाय देवताओं को ही व्यभिचारी मान रही है। 

प्र. (4)—क्या उसे अपनी परीक्षा में स्त्री की इज़्ज़त से जुड़ा हुआ मुद्दा नज़र नहीं आया? 

प्र. (5)—भिक्षा के लिए ऐसी कोई भी अनैतिक प्रथा रामायण काल में प्रचलित नहीं थी। जैन दिगंबर साधुओं में यह प्रथा ज़रूर थी, जो आज भी मौजूद है कि भिक्षा के लिए निकलते समय वे मन में जो भी संकल्प बनाते है, वे वही भोजन लेते हैं, जहाँ उनका चित्त संकल्प पूरा होगा। मगर वे लोग भी ऐसा घृणित और अनैतिक संकल्प नहीं लेते कि कोई स्त्री उन्हें निर्वस्त्र होकर भोजन परोसे। फिर त्रिदेवों ने ऐसी अनैतिक शर्त क्यों रखी? 

प्र. (6)—आज तक ऐसा कोई विज्ञान विकसित नहीं हुआ है जो ध्यान करते ही आदमी को नवजात शिशु बना दे। वस्तुतः अनुसूया त्रिदेव की काम-वासना को शांत करने के लिए ही निर्वस्त्र हुई थी। नवजात शिशु की कपोल-कल्पित अवैज्ञानिक कथा त्रिदेवों और अनुसूया के यौन-सम्बन्धों पर पर्दा डालने के लिए गढ़ी गयी थी। 

प्र. (7)—डॉ. आनंदप्रकाश दीक्षित के अनुसार रामवातार के लिए अनुसूया के शाप का कारण अनुचित है क्योंकि कर्म-बंधन से मुक्त मानी जाने वाली आत्माओं के इस वजह से पृथ्वी पर अवतरण तथा अवतारवाद की गरिमा क्षीण हो जाती है। फिर “यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति . . .” की सार्थकता क्या रह जाती है? 

प्र. (8)—इस सर्ग में कवि ने सीता-अनुसूया संवाद को नहीं दिखाया है, शायद महाकाव्य का आकार बढ़ न जाए या फिर गोस्वामी तुलसी दास द्वारा प्रत्येक स्त्री को सदा स्मरण रखने योग्य सरल, सुबोध एवं सरस पद्यमय उपदेशों के वर्णन का औचित्य कवि को उचित प्रतीत नहीं हुआ, जो यह दर्शाता हो। 

“वृद्ध रोगबस जड़ धनहीना। अंध, वधिर क्रोधी अति दीना॥
ऐसेहु पति कर किए अपमाना। नारी पाव जमपुर दुख नाना॥
जग पतिब्रता चारी बिधि अहहिं। वेद पुराण संत सब कहहिं॥
उत्तम के आस बस मन माहीं। सपनेहूँ आन पुरुष जग नाहीं॥”

क्योंकि संत कवि तुलसी के आत्मघाती सामाजिक विचारों, ब्राह्मणवाद, नारी विमर्श तथा अनेक असंगत प्रसंगों से परिचित थे। श्री विश्वनाथ द्वारा संपादित पुस्तक ‘हिन्दू समाज के पथभ्रष्टक तुलसीदास’ के आलेखों में उन सारी तमाम भ्रामक धारणाओं पर से पर्दा उठाने के लिए प्रस्तुत विश्लेषण और विवेचना आँखें खोलने वाली हैं कि अंधविश्वास, मायाजाल, वर्णाश्रम-व्यवस्था, ब्राह्मणवाद, आज भी आधुनिक हिन्दू समाज को रसातल में धकेलता जा रहा है। 

डॉ. देवदत्त पटनायक ने अपनी पुस्तक ‘मिथक=मिथ्या’ (हिन्दू मिथकों का विश्व कोश) में मिथकों को झूठा दर्शाया है अर्थात् उन्हें काल्पनिक कहकर सत्य से अलग रखा है। उनके अनुसार पुनर्जन्म, स्वर्ग, नर्क, देवदूत, दानव, स्वेच्छा, पाप, शैतान और मोक्ष जैसे विषय धार्मिक मिथकों के दायरे में आते हैं, जबकि संप्रभुता, राष्ट्र राज्य, मानवाधिकार, महिलाओं के अधिकार, जानवरों के अधिकार, समलैंगिक अधिकार जैसे विचार पंथ-निरपेक्ष मिथक है। उन्होंने ‘विष्णु और लक्ष्मी के वर्ग’ में प्राकृतिक क़ानूनों से सांस्कृतिक संहिता को अलग कर के देखा है। उनके अनुसार विष्णु प्रकृति की लय से परिचित करता है ताकि ब्रहमाण्ड में होनेवाले परिवर्तनों का पूर्वानुमान किया जा सके और उसके बाद उसका प्रबंधन भी किया जा सके। विष्णु के लिए लक्ष्मी के दो प्रकार हैं। लक्ष्मी वांछित-स्वरूप (प्रकृति का उपजाऊपन, शुभ तरंग, दैनंदिन-बढ़ता हुआ चाँद, बसंत, बारिश, फसल), दूसरी ओर अलक्ष्मी अवांछित-स्वरूप (प्रकृति का बंजरपन, अशुभ पक्ष, रात, घटता चाँद, निम्न तरंगें, गर्मी, भयंकर सर्दी)। 

अनुसूया के प्रसंग के बारे में अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त ओड़िआ लेखिका सरोजिनी साहू की टिप्पणी का उल्लेख किए बिना यह अध्याय अधूरा रह जाएगा। उनके अनुसार न केवल भारत में वरन् पूरे विश्व में स्त्री जाति को दबा कर रखने के लिए मिथकीय यौन-राजनीति पुरुष लेखकों द्वारा लिखी गई है। तभी तो क्रिस्टोफर पेनसाक ने अपनी किताब ‘गे विच क्राफ्ट: एम्पावरिंग दि ट्राइब’ में पॉर्ननिज़्म और जादुई विद्या का समावेश करके विश्लेषण किया है, उनके अनुसार देवी-देवताओं ने मिलकर अपनी यौन-फंतांसियों की पूर्ति हेतु इन मिथकों का सृजन किया था। उदाहरण के लिए ग्रीक राजा इडिपस ने पिता की हत्या के बाद माँ से शादी की और यह बात मालूम पड़ने पर उसने अपनी आँखें फोड़ दीं। कंडम्बिल के देवता ओरुगन ने अपनी माँ येमाज्ना पर ज़बरदस्ती की, तद्पश्चात सूर्य व चंद्र सहित बारह बच्चों का जन्म हुआ। आस्टेक मिथक के एक विवरण के अनुसार वहाँ की माँ-देवी कोयाल्लिक को पति से तब तक दैहिक उत्पीड़न सहना पड़ता है जब तक उसके शत पुत्रों में से एक आकर प्रतिकार करता है, वह अपनी पिता की हत्या करके माँ का प्रेमी बन जाता है। जब सूर्य और उसकी बेटी चाँद के बीच में यौन-सम्बन्ध होता है तभी पूर्णग्रहण होता है। सियस संदर्भ पाकर, पुरुषों को अपनी यौन विकृतियों से रिझाकर उनके साथ सम्बन्ध रख लेती है। यौनानन्द को यहाँ पर ‘तपिश’ से सूचित किया जाता है। ग्रीक सागर देवता पोसीडोन भी यौन-प्रवृतियाँ में सियूस के कुछ पीछे नहीं है। उसने डेमेटीर देवी सहित कई स्त्रियों को अपने वश में किया था। उसने अमिल्टाइट का बलात्कार किया, बाद में ब्याह किया। 

हिन्दू मिथकों में स्रष्टा की परिकल्पना ‘अर्धनारीश्वर’ के रूप में मिलती है जिसकी तुलना आस्टिक देवता ओमेटेचुहली के साथ की जाती है। यूनाइटेड किंगडम की सपना-विशेषज्ञ सारा डेनिंग ने यौनाचारों को सामाजिक प्रवृतियों का परिणाम माना और अपनी किताब ‘दि मिथोलोजी ऑफ़ सेक्स’ में मिथकों के आधार पर उनका विश्लेषण किया। 

इसी संदर्भ में सिमोन दि बोउआ के अनुसार पुरुष दुनिया ने स्त्री-सम्बन्धी मिथकों को निर्मित किया है और ये मिथक (जैसा कि माता, यौनशुचिता, मातृराज्य, मातृ-प्रकृति) स्त्रियों के शोषण के लिए बनाये हैं, इसलिए ये विभिन्न प्रकार के स्त्री व्यक्तित्वों के विकास पर रोक लगानेवाले हैं। सिमोन मातृत्व और विवाह के विरोध में थी। इसमें शंका नहीं कि काफ़ी समय पहले ही नारीवाद, मार्क्सवाद से प्रभावित रहा है। नारीवाद के विकास में सिमोन, क्रीड़न, ग्रीक और लिंडा हिरशमेन जैसी पाश्चात्य नारीवादियों ने नारीवाद को पितृसत्तात्मकता के समान स्तर पर निरूपित करने का प्रयास किया था। लिंगभेद की समस्या पर विचार करें तो यह विरजीनिया वुल्फ़ की ‘ओरियान्डों’, रोडक्लीफ़ की ‘दि वेल ऑफ़ लोनलीनेस’ में वर्णित है और इनके बहुत पहले जूडिथ बटलकर ने भी इसकी चर्चा की है। जोयस की ‘यूलिसस’ या थामस हार्डी के उपन्यासों में यौनता एक विषय बनी है। ‘सेकेंड सेक्स’ लिखने से पहले सिमोन ने दो कहानियाँ लिखी थीं—‘शी केम टू स्टे’ और ‘दि बल्ड ऑफ़ अदर्स’, जिसमें यौनता का प्रतिपादन है। पर यह तो शंकातीत है कि ‘दि सेकेंड सेक्स’ के पहले किसी ने यौन-देह पर घटना वैज्ञानिक अन्वेषण नहीं किया था। सिमोन ने इसकी दिशा बदल डाली। यौन-समानता पर उनका तर्क द्वि-आयामी है। सबसे पहले वे यह सिद्ध करती है कि पितृसत्तात्मकता यौन-भेद के शोषण का कारण बनती है इस तरह वे असमान सामाजिक व्यवस्था तथा यौन राजनीति को खेल के रूप में रखती हैं। नतीजतन पुंसवर्चस्व को निपटाने के लिए नारीवाद जन्म लेता है। 

“कोई विषय बहुत विवादास्पद है और अगर वह यौनता सम्बन्धी है तो कोई सच नहीं बताता है। बस इतना बताता है कि उस पर ख़ुद के क्या विचार है, बाक़ी सुनने वाले को, उनके अपने विवेक, आत्मसीमा, पूर्वधारणा तथा स्वभाव के अनुकूल निष्कर्ष तक पहुँचने का मार्गदर्शन ही करता है।”—विराजीनिया वुल्फ़। 

क़ुरान बहुपत्नीत्व की अनुमति देता है, पर नारी को बहुपतित्व का अधिकार नहीं देता है। ईसाई विश्वासों के अनुसार पुरुष व स्त्री, दोनों एकाधिक विवाह नहीं कर सकते। हिन्दू, इत्यादि दूसरे धर्मों में भी स्त्री के यौनाधिकारों पर सुनिश्चित रोक है। सभी समाजों में यही विश्वास बना हुआ है कि स्त्री की यौन शुचिता बनी रहनी चाहिए। 

सारलादास कृत ‘ओड़िया महाभारत’ के अनुसार द्रौपदी को कृष्ण और कर्ण पर प्रेमकुंठा थी। कर्ण कौरवों का नाजायाज़ भाई था। द्रौपदी पाँचों पांडवों के साथ यौन-सम्बन्ध रखती थी, फिर भी उसके मन में कृष्ण व कर्ण का स्थान था। 

संस्कृत की पौराणिक लिपियों में प्रसिद्ध उक्ति है: “अहिल्या, द्रौपदी, तारा, कुंती, मंदोदरी तथा, पंच कन्या स्मरेनित्यम महापातक नाशनम्।” मिथकों के अनुसार अहिल्या, द्रौपदी, तारा, कुंती और मंदोदरी प्रशस्त पंचकन्याएँ (पुण्यवतियाँ) हैं। पर मज़ेदार बात है कि इनमें सभी के एकाधिक पति थे। पाँचों का स्थान सती सावित्री जैसा था, जो अनुसूया से कमतर नहीं है। 

ऋषिपत्नी अनुसूया उपदेश दे रही हैं—वह विस्तृत है—

“मातु, पिता, भ्राता हितकारी। मितप्रद सब सुनु राजकुमारी॥
अमितदानि भर्त्ता वैदेही। अधम सो नारि जो सेव न तेही॥”

                                                               —रामचरितमानस, अरण्य कांड

(अर्थ—हे राजकिशोरी सीता, सुनो, माता, पिता, भाई हितैषी सब एक सीमा तक सुख देने वाले हैं—किन्तु हे वैदेही, पति अपार सुख देने वाला, वह स्त्री अधम है जो पति की सेवा न करे) 

अपने आर्थिक स्वार्थ को भी न समझकर जो स्त्री पति सेवा न करे, उसे चाहे मूर्ख भले ही कह लें, किन्तु अधम न जाने क्यों कहा गया है। 

अनुसूया का उपदेश है—

“धीरज धर्म मित्र अरु नारी। आपद काल परखिये चारी॥
बृद्ध रोग बस जड़ धन हीना। अंध बधिर क्रोधी अति दीना॥
ऐसेहु पति कर किए अपमाना। नारि पाव जमपुर दुख नाना॥
एकइ धर्म एक ब्रत नेमा, काय बचन मन पतिपद प्रेमा॥”

                                                                    —रामचरितमानस, अरण्य कांड

(हे सीता, धैर्य, धर्म, मित्र और स्त्री इन चारों की परीक्षा आपद काल में ही लेनी चाहिए। बूढ़ा, रोगी, मूर्ख, धनहीन, अंधा, बहरा, क्रोधी, अत्यंत दीन—ऐसे पति का भी अपमान करने से स्त्री यमपुरी में दुख पाती है) 

कहने का अर्थ उद्भ्रांत जी यह सर्ग भी आधुनिक संदर्भ में ऐसे बहस को जन्म देती है, जिसमें फ्रायड का मनोविश्लेषण, पुरातन व आधुनिक नारीवादी दृष्टिकोण, एकाधिक यौन सम्बन्ध, यौन शुचिता सभी विषयों पर पक्ष-विपक्ष में बहुत कुछ कहा जा सकता है। 

<< पीछे : तीसरा सर्ग: भवानी का संशयग्रस्त… आगे : पाँचवाँ सर्ग: कौशल्या का अंतर्द्वंद्व >>

लेखक की कृतियाँ

साहित्यिक आलेख
पुस्तक समीक्षा
बात-चीत
ऐतिहासिक
कार्यक्रम रिपोर्ट
अनूदित कहानी
अनूदित कविता
यात्रा-संस्मरण
रिपोर्ताज
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में