त्रेता: एक सम्यक मूल्यांकन 

त्रेता: एक सम्यक मूल्यांकन   (रचनाकार - दिनेश कुमार माली)

तेइसवाँ सर्ग: सुलोचना का दुख

 

सुलोचना रामायण का एक उपेक्षित पात्र है जिसके बारे में जन-सामान्य को बहुत कम जानकारी है। त्रेता के माध्यम से कवि उद्भ्रांत ने सुलोचना के चित्रांकन में कोई कमी नहीं छोड़ी है। सुलोचना एक ऋषिकन्या थी, शिवभक्त थी, सदैव शिव आराधना में लगी रहती थी। एक दिन शिव मंदिर में एक सुंदर सुगठित शरीर बाले तेजस्वी युवक को देख कर वह मंत्रमुग्ध हो गई। उसे यह पता नहीं था कि वह रावण का पुत्र मेघनाद है। मेघनाद से प्रथम प्रेम दृष्टि शीघ्र ही विवाह में बदल गई। उसके जादू भरे सम्मोहक लोचनों को देखकर मेघनाद ने उसका नाम सुंदर लोचन वाली अर्थात्‌ सुलोचना रखा। ससुराल में माँ मंदोदरी सदैव उसकी कपूर के दीये से आरती उतारती ताकि उस पर किसी की भी कुदृष्टि न पड़े। जब सुलोचना को रावण द्वारा सीता का अपहरण, रामदूत हनुमान द्वारा अक्षय का संहार और उसके बाद मेघनाद द्वारा अशोक वन में हनुमान से लड़ाई करने के लिए पहुँचना आदि घटना क्रम याद आते तो उसका रोम-रोम काँप उठता था और “शिव-स्तोत्र” पढ़ना शुरू कर देती थी। जब सुलोचना ने सोने की लंका को आग की लपेटों में धू-धू जलते देखा तो उसे किसी अनहोनी घटना की आशंका होने लगी और वह लंका की सुरक्षा के लिए रात-दिन शिव की पूजा-पाठ करने लगी। जब सुलोचना को यह पता चला कि उसके पति मेघनाद ने दधीचि की हड्डियों से बने बज्र के द्वारा लक्ष्मण को सांघातिक चोट पहुँचाकर मूर्च्छित किया है और सिवाय संजीवनी बूटी के प्रयोग के वह बचाया नहीं जा सकता, तब लक्ष्मण के प्रति मन में एक अलग प्रकार के भाव प्रकट हुए। वह सोचने लगी शायद उसे शत्रु मानकर ही युद्ध में अपनी अमोघ शक्ति का प्रयोग नहीं किया होगा। सुलोचना को लक्ष्मण की चेतना लौट आने पर कुछ अनहोनी घटने का आभास होने लगा। मेघनाद के युद्ध में जाने से पहले उसके मस्तिष्क पर विजय तिलक लगाते हुए कहने लगी थी—क्या यह युद्ध टाला नहीं जा सकता था? क्या राम के पक्ष से युद्ध न करने के लिये आए हुए संदेश माने नहीं जा सकते थे? तरह-तरह के सवाल करते हुए सुलोचना ने युद्ध संबंधित निर्णय पर पुनर्विचार करने की प्रार्थना की। कवि उद्भ्रांत ने सुलोचना के मनोविज्ञान को अच्छी तरह व्यक्त किया हैं:

“रण के लिए प्रस्थान करते
मेघनाथ को विजय-टीका मस्तक पर लगा
विदा करने से पहले
मैंने पूछा, “प्रिय! 
क्या यह युद्ध अपरिहार्य था? 
नहीं टाला जा सकता था इसे? 
जनकनंदिनी सीताजी को
जो ले आए महाराज रावण
लंका नगरी में, 
क्या उनका कार्य यह उचित था?” 

प्रत्युतर में मेघनाद ने गंभीरता पूर्वक सुलोचना का अवलोकन करके उत्तर दिया कि रावण ने महापंडित, वेदों और शास्त्रों का ज्ञाता होने के बाद भी, अगर सीता का अपहरण किया है तो इसके पीछे भी कोई राज होगा और युद्ध के परिणामों से भली-भाति परिचित होंगे? मैं तो केवल उनका पुत्र होने के साथ-साथ सेना–नायक हूँ और युद्ध से सम्बन्धित सारे निर्णयों का फ़ैसला राजा को करना होता है, न कि सेना-नायक को। मैं जानता हूँ युद्ध से सम्बन्धित कोई भी निर्णय उचित नहीं होता, क्योंकि उसका परिणाम आने वाली पीढ़ी भुगतती है। मेरे लिए तो केवल अस्मिता की ख़ातिर युद्ध करना अपरिहार्य हो जाता है। अन्यथा लोग मुझे प्राणों के मोहवश हुआ जान अनुचित समझेंगे। फिर भी मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूँ आज शाम को सेना नायक की नहीं, वरन् पुत्र की हैसियत से सम्पूर्ण विषय पर मैं रावण से बात करूँगा। उद्भ्रांत जी अपनी पारंपरिक शैली में मेघनाद की मनःस्थिति को उजागर करते हैं:

“फिर भी मैं
तुम्हें भरोसा याद दिलाता हूँ
आज सायं
युद्ध के पश्चात मैं
महाराज से, 
सेनानायक नहीं—
एक पुत्र की तरह से
करूँगा विमर्श—
इस समग्र स्थिति पर।” 

इस तरह सुलोचना ने मेघनाद के हृदय में युद्ध पर पुनिर्वचार के बीज को बो दिए थे। मन्दोदरी युद्ध की नवीनतम स्थिति के बारे में बार-बार पूछती थी। रावण ने उस दिन कुम्भकर्ण को जगाया था तो उसके सद् परामर्श देने के बावजूद भी युद्ध के लिए भेज दिया था। बाद में जब पता चला कि कुम्भकर्ण राम के हाथों मारे गए हैं और सेना का उत्साह धीमा पड़ता जा रहा था। यह देख उनका उत्साह-वर्द्धन करने के लिए मेघनाद लक्ष्मण से विकट युद्ध कर रहे थे और इधर सुलोचना उनकी रक्षा के लिए तीव्र गति से शिवस्त्रोत का पाठ कर रही थी। देखते-देखते लक्ष्मण ने शेषनाग का रूप धारण कर लिया और मेघनाद पर टूट पड़ा। चूँकि सुलोचना की माता नागवंशी थी इसलिए कभी-कभी हँसी मज़ाक़ में शेषनाग की पुत्री के रूप में पुकारी जाती थी। जैसे ही सुलोचना का चिंतन का भंग हुआ तो उसने देखा उसके आँचल में पति का रक्तस्नात बाणबिद्ध सिर पड़ा हुआ था। मानो वह कह रहा हो ‘देखो प्रिये, मैं युद्ध भूमि से तुम्हारे पास तुम्हारे आँचल में लौट आया हूँ, इस निरर्थक विनाशकरी युद्ध पर विमर्श करने के लिए’। सुलोचना के मस्तिष्क पर क्या गुज़री होगी, यह नहीं कहा जा सकता। मगर सती सुलोचना के जीवन की सबसे बड़ी मर्मांतक लोमहर्षक घटना के अतिरिक्त और क्या हो सकता है। उसने उस भोले-भण्डारी का आशीर्वाद मानकर इस घटना को स्वीकार कर लिया। कवि उद्भ्रांत जी की कल्पना की लंबी उड़ान निम्न पंक्तियों में अभिव्यक्त होती है:

“मेरे आँचल में
पति का रक्त-स्नात बानबिद्ध शिर था पड़ा, 
और पति की सुंदर आँखें
मेरी आँखों में दृष्टि डालकर
कह रही थी मुझसे—
‘प्रिय! देखो
लौट आया मैं
युद्धभूमि से तुम्हारे पास
फिर से तुम्हारे ही आँचल में—
लंकाधीश से उनके द्वारा छेड़े गए
इस निरर्थक विनाशकारी युद्ध
पर विमर्श करने के लिए; 

‘अब तो मुस्कुरा दो तुम, 
अब तो हो जाओ प्रसन्न भी!”

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