त्रेता: एक सम्यक मूल्यांकन (रचनाकार - दिनेश कुमार माली)
तेरहवाँ सर्ग: माण्डवी की वेदना
माण्डवी राजा जनक के भाई कुशध्वज की कन्या थी, जिनका विवाह भरत के साथ हुआ। वह श्रुति कीर्ति की बहन थी। माण्डवी के दो पुत्र हुए, तक्ष और पुष्कल, दोनों ही बड़े वीर थे। पुष्कल ने शत्रुघ्न के साथ सम्पूर्ण देशों में घूमकर रामचन्द्र के अश्वमेध यज्ञ से संबंधित अश्व की रक्षा की थी। तक्ष और पुष्कल ने भरत के साथ कैकय देशों में जाकर वहाँ रहने वाले तीन करोड़ गंधर्वों को परास्त किया और सिन्धु नदी के दोनों तटों पर अपने विशाल साम्राज्य की स्थापना की। वहाँ भरत ने दो समृद्धशाली नगर बसाए। गंधर्व देश (सिंध), सिंध में तक्ष के नामपर तक्षशिला नामक नगरी बसाई और गांधार देश (अफगानिस्तान) में पुष्कल के नाम से पुष्कलवती नाम की नगरी बसाई गई।
कवि उद्भ्रांत ने तेरहवें सर्ग ‘माण्डवी’ में उसकी मनोस्थिति का वर्णन किया है कि जब भरत, शत्रुघ्न के साथ ननिहाल से अयोध्या लौटे तो वहाँ हलचल मच गई थी। राम के वनवास के बारे में सुनकर वह भयभीत हो गई। जब भरत का निस्तेज विवर्ण मुख मण्डल देखा तो न केवल माण्डवी भयभीत हुई, वरन् कैकेयी भी भयाक्रांत हो गई थी, क्योंकि उसने जो भी किया वह उसके पुत्र की प्रकृति के विपरीत था। शादी के बाद की बातों को याद करते हुए वह कहती है कि भरत का राजमहल में कभी मन नहीं लगता था। राम के वन-गमन करते समय उन्हें अवश्य यह लगा होगा कि अगर उन्हें ख़ुद को वन जाने का अवसर मिला होता, तो भगवत भक्ति की साधना के मार्ग में उनका एक पग और बढ़ा होता। कवि उद्भ्रांत जी यहाँ कहना चाहते हैं:
“प्रिया माण्डवी!
अयोध्या के इस राजमहल में
रमता नहीं मन मेरा।”
मुझे यह प्रतीत हुआ
भैया राम के
वन-गमन के बाद-
उन्हें लगा होगा यह-
वन में एकांत चिंतन करने का
यह अवसर
उन्हें मिला होता तो
भगवद्भक्ति की साधना के मार्ग में
उनका एक पग बढ़ा होता।”
मगर माँ की राजलिप्सा के कारण भैया राम को व्यर्थ में चौदह वर्ष सपत्निक घूमना पड़ेगा, वह भी लक्ष्मण के साथ। महाराज दशरथ की ख़राब अवस्था को देखकर उन्होंने राम को वापस बुलाने का प्रयास किया। मगर वह प्रयास निष्फल हुआ, तो उनकी चरण पादुकाओं को प्रतीक का चिह्न मानकर सिंहासन पर अवस्थापित कर राजकाज का प्रबंध देखते और सुबह-शाम राजमहल के बाहर निर्मित कुटिया में भगवत चिन्तन में लीन रहते हुए अपने आपको आदर्श पुरुष बना लिया था। कवि उद्भ्रांत ने भरत की व्यथा अपने शब्दों में अंकित की हैं:
“भैया राम को
वापस लौटाने का
उपक्रम जब उनका हुआ निष्फल तो
उनकी चरण-पादुकाओं को ही
मानकर प्रतीक-चिह्न
आदर-सम्मान से
राजसिंहासन पर उन्हें
अवस्थित किया उन्होंने;
मानो स्वयं राम ही-
बैठे हो सिंहासन पर।”
कभी भी उन्होंने यह नहीं सोचा कि वे विवाहित हैं, उनकी एक पत्नी है, जो अयोध्या वासियों की दृष्टि में महारानी है। वे ख़ुद तो भूमि पर शयन करते थे, तो मैं किस तरह राजसी शैय्या पर सोने का सपना देख पाती। मैं भी भिक्षुणी की तरह जीवन बिताते हुए भूमि पर सोती थी, राजमहल के भव्य दिव्य रनिवास में। सादा, स्वाद रहित भोजन करते वे जीवन गुज़ार रही थी। सास कैकेई के इस कृत्य ने न केवल उसे विधवा बना दिया, वरन् लोक निंदा के परम दुःख ने उसके जीवन को दारुण बना दिया था। कवि कहना चाहता है:
“ऐसा कृत्य
जिसने उन्हें विधवा बनाते हुए
छीन लिया
स्त्री का स्वाभाविक तेज।
लोक कर उठा
निंदा प्रारंभ;”
न तो राज सिंहासन मिला और न ही राम अयोध्या लौटे। दुःख का अवसाद उसके चेहरे पर स्पष्ट दिखाई देता था। राजमहल में राजकीय प्रथा के अनुसार नियमों का आचरण होता था। सभी के लिए आत्मानुशासन और आचार सहिंता का पूरी तरह पालन होता था। वस्त्र पहनने ओढ़ने अथवा बिछाने में मुझ पर कोई प्रतिबंध न था। मगर मैंने अपने आप पर प्रतिबंध लगा दिया था। उत्तर दायित्व की भावना का निर्वहन करते हुए मेरे भीतर कभी भी राजा की बेटी होने का भाव पैदा नहीं हुआ था। माण्डवी की भावना को कवि उद्भ्रांत अपने शब्दों में इस प्रकार अभिव्यक्त करते हैं:
“पर, मुझ पर तो न था
कोई बंधन,
मैं थी अयोध्या की महारानी,
और थी स्वतंत्र-
राजकीय गरिमा के अनुसार
आचरण करने-
वस्त्र पहनने,
ओढ़ने अथवा बिछाने।
महाराज ने लगाया नहीं था
कोई प्रतिबंध मुझ पर।
प्रतिबंध किन्तु मैंने
लगाया था स्वयं पर था!
आत्मा को अनुशासन में रखने का
था मुझको बचपन से अभ्यास।”
कवि उद्भ्रांत ने माण्डवी नाम के रहस्य उद्घाटन करते हुए लिखा है कि—माँ ने उसकी रगरग में स्त्री धर्म को जल में गूँथे आटे की तरह माण्ड दिया था, इसलिए मेरा नाम माण्डवी हुआ। इस तरह मैंने सूर्यवंश की उजली छवि पर अपना आत्म संयम न खोकर सारा कलंक लगने से बचा दिया, अन्यथा भरत भी बड़े अपयश के भागी होते। मैंने अपना सारा जीवन जल में रहती मछली की तरह बिताया, वह भी थोड़े समय के लिए नहीं वरन् चौदह साल। कवि की मौलिकता निम्न हैं:
“जल में गूँथे आटे की तरह
माँ ने माण्ड दिया था मुझको
पोर-पोर में
स्त्री-धर्म से।
स्त्री-धर्म में दीक्षित माण्डवी से
हो सकता था-
अधर्म-कर्म नहीं;
पुरुष अपने धर्म की
परवाह करे या नहीं।”
विषय सूची
- कवि उद्भ्रांत, मिथक और समकालीनता
- पहला सर्ग: त्रेता– एक युगीन विवेचन
- दूसरा सर्ग: रेणुका की त्रासदी
- तीसरा सर्ग: भवानी का संशयग्रस्त मन
- चौथा सर्ग: अनुसूया ने शाप दिया महालक्ष्मी को
- पाँचवाँ सर्ग: कौशल्या का अंतर्द्वंद्व
- छठा सर्ग: सुमित्रा की दूरदर्शिता
- सातवाँ सर्ग: महत्त्वाकांक्षिणी कैकेयी की क्रूरता
- आठवाँ सर्ग: रावण की बहन ताड़का
- नौवां सर्ग: अहिल्या के साथ इंद्र का छल
- दसवाँ सर्ग: मंथरा की कुटिलता
- ग्यारहवाँ सर्ग: श्रुतिकीर्ति को नहीं मिली कीर्ति
- बारहवाँ सर्ग: उर्मिला का तप
- तेरहवाँ सर्ग: माण्डवी की वेदना
- चौदहवाँ सर्ग: शान्ता: स्त्री विमर्श की करुणगाथा
- पंद्रहवाँ सर्ग: सीता का महाआख्यान
- सोलहवाँ सर्ग: शबरी का साहस
- सत्रहवाँ सर्ग: शूर्पणखा की महत्त्वाकांक्षा
- अठारहवाँ सर्ग: पंचकन्या तारा
- उन्नीसवाँ सर्ग: सुरसा की हनुमत परीक्षा
- बीसवाँ सर्ग: रावण की गुप्तचर लंकिनी
- बाईसवाँ सर्ग: मन्दोदरी:नैतिकता का पाठ
- तेइसवाँ सर्ग: सुलोचना का दुख
- चौबीसवाँ सर्ग: धोबिन का सत्य
- पच्चीसवाँ सर्ग: मैं जननी शम्बूक की: दलित विमर्श की महागाथा
- छब्बीसवाँ सर्ग: उपसंहार: त्रेता में कलि
लेखक की कृतियाँ
- साहित्यिक आलेख
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