त्रेता: एक सम्यक मूल्यांकन 

 

उद्भ्रांत जी ने कैकेयी के चरित्र को यथार्थ रूप से उजागर करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। उन्होंने कैकेयी के अंतर्गत नारी मन के सूक्ष्म भावों को ठीक उसी तरह से प्रस्तुत किया है जिस तरह से नरेंद्र कोहली ने अपने राम चरित्र पर आधारित महाकाव्यात्मक उपन्यास ‘राम कथा’, में प्रस्तुत किया है। राजा दशरथ ने कैकेय नरेश को हरा कर आत्मसमर्पण करवाया था, तब उसने अपनी पुत्री का हाथ राजा दशरथ के हाथों में देना तय किया था। चूँकि कैकेय प्रदेश और उनका परिवार का भविष्य उस समय राजा दशरथ के हाथों में था। अतः समाज की भलाई, देश का कल्याण और अपने परिवार की रक्षा के लिए कैकेयी का कन्यादान ही एकमात्र विकल्प था। मगर कैकेयी कोई कोमल एवं साधारण राजकुमारी नहीं थी। वह तो हठीली उग्र, तेजस्विनी, महत्वाकांक्षी तथा असाधारण सुंदरी थी। उपन्यास में नरेंद्र कोहली ने राम के समक्ष कैकेयी से कहलाया है, “मैं वह धरती हूँ राम, जिसकी छाती करुणा से फटती है; तो शीतल जल उमड़ता है; घृणा से फटती है, तो लावा उगलती है। दोनों मिल जाते है तो भूचाल आ जाता है। मेरी स्थिति भूडोल की है राम!” कैकेयी का चेहरा लाल हो गया, “मैं इस घर में अपने अनुराग का अनुसरण करती हुई नहीं आई थी। मैं पराजित राजा की ओर से विजयी सम्राट को संधि के लिए दी गई भेंट थी। सम्राट और मेरे बीच का भेद आज भी ज़्यादा है। मैं इस पुरुष को पति मान, पत्नी की मर्यादा निभाती आई हूँ, पर मेरे हृदय से इसके लिए स्नेह का उत्स कभी नहीं फटा। ये मेरी माँग का सिंदूर तो हुए, अनुराग का सिंदूर कभी नहीं हो पाए। मैं इस घर में प्रतिहिंसा की आग में जलती सम्राट से संबंधित प्रत्येक वस्तु से घृणा करती आई थी। तुम जैसे निर्दोष, निष्कलुष और प्यारे बच्चे को अपने महल में घुस आने के अपराध में मैंने अपनी दासी से पिटवाया था।”

वेबसाइट में प्राप्त जानकारी के अनुसार कैकेय देश यूक्रेन को कहा जाता है। वहीं पर कोकाश पर्वत शृंखला के आधार पर उस जगह को कैकेय प्रदेश कहा जाता है और वहाँ घोड़े बहुतायत में पाए जाते थे इसलिए वहाँ के राजा को अश्वपति कहा जाता था। एक कहानी के अनुसार देवराज इन्द्र शम्बरासुर से युद्ध कर रहे थे, मगर उन्हें पराजित नहीं कर पा रहे थे तो देवराज ने महाराज दशरथ से सहायता माँगी। महाराज जब अमरावती जाने लगे, तो कैकेयी को शस्त्र संचालन तथा रथ हाँकने की विधि की अच्छी जानकारी थी। युद्ध में शत्रु के बाण से रथ का धुरा कट गया था और महाराज गिरने ही वाले थे कि धुरे के स्थान पर कैकेयी ने अपनी पूरी भुजा लगा दी। महाराज युद्ध में तन्मय थे। शीघ्र ही दैत्य पराजित होकर भाग गए। 

“प्रिये! तुमने दो बार आज मेरे प्राणों की रक्षा की है, अतः तुमको जो अभीष्ट हो, दो वरदान माँग लो।”

देव-वैद्यों ने महारानी की आहत भुजा को शीघ्र स्वस्थ कर दिया था। महाराज अत्यंत प्रसन्न थे। 

“नाथ! आप मेरे आराध्य हैं, मैं आपकी कुछ सेवा कर सकी हूँ। यही मेरे लिए कम थोड़ा वरदान मिला है। आप दासी पर प्रसन्न हैं, मैं इसमें अपना सौभाग्य मानती हूँ।” कैकेयी जी के मन में पतिसेवा के अतिरिक्त कोई इच्छा नहीं थी। महाराज ने जब बहुत आग्रह किया तो उन्होंने यह कहकर बात टाल दी “मुझे जब आवश्यकता होगी तब माँग लूँगी।”

आगे की कथा सब जानते हैं। दशरथ ने प्रसन्न होकर कैकेयी को दो वर माँगने को कहा और कैकेयी ने उचित समय आने पर वह माँगने का वचन लिया था। राम के विवाह के उपरांत जब महाराज दशरथ ने राम को युवराज बनाया और अपना उत्तराधिकारी घोषित किया, तो उस समय कैकेयी ने महाराज को अपने वचनों की याद दिलायी और दो वर माँग लिए। पहले वर में भरत का राजतिलक और दूसरे में राम का वनवास। कैकेयी के दूसरे वचन से दशरथ मूर्छित हो गए और चल बसे। 

तापस बेस बिसेस उदासी। चौदह बरस राम वनबासी॥

कवि उद्भ्रांत ने नारी मन के सूक्ष्म भावों को अपने इस सर्ग में व्यक्त किया है:

“मैं चाहती हूँ आज बताना यह
कि स्त्री की भी
होती है भावनाएँ कुछ, 
जीवनसाथी उसका
सुंदर हो, युवा हो, 
पौरुष के तेज से सम्पन्न हो, 
आदर-सम्मान उसका करता हो
नहीं उसको होती चाह
महारानी बनने की; ” 

मानवता की दृष्टि से कैकेयी भले ही अपराधी हो पर राजतंत्र में स्त्री के जीवन और स्वप्न से जिस तरह खिलवाड़ किया जाता है उसे देखते हुए, उसके ख़िलाफ़ कैकेयी जैसी स्त्रियों का विद्रोह अपराध नहीं कहा जा सकता। कौशल्या और सुमित्रा जैसी अस्मिता और अस्तित्व-विहीन लाखों स्त्रियाँ हो सकती हैं, परन्तु कैकेयी कोई एक ही पैदा होती है। जो अपनी अस्मिता और स्वतन्त्रता से जीना चाहती है और जब कोई उसके अरमानों को कुचल देता है, तो वह क्रूर भी हो जाती है। 

इस दृष्टांत के माध्यम से कवि निम्न चीज़ों को हमारे समक्ष लाना चाहता है:

1. प्रतिशोध की भावना मनुष्य को कितना निष्ठुर और विवेकहीन बना देती है कि जो स्त्री कभी अपने पति की सेवा करना अपना सौभाग्य समझती थी, वही स्त्री रोते-चिल्लाते क्रंदन करते मूर्छित होते पति को देखकर न केवल पाषाणवत् होकर चुपचाप स्थाणु बैठी है, वरन्‌ उल्टे व्यंग्य बाणों से उन्हें बींध भी देती है। गो-स्वामी तुलसी दास ने यहाँ तक लिखा है:

होत प्रातु मुनिबेष धरि, जौं न राम बन जाहिं। 
मोर मरनु राउर अजस, नृप समुझिअ मन माहिं॥

इसी बात को कवि उद्भ्रांत अपने शब्दों में ऐसे प्रस्तुत करते हैं:

“स्वयं को तैयार कर लिया मैंने
अपने संभावित वैधव्य-हेतु! 
मेरे भीतर की क्रूर स्त्री ने
अयोध्या के चक्रवर्ती
वयोवृद्ध महाराज दशरथ की
हत्या का सुनियोजित
कार्य कर दिया था पूर्ण; 
छोड़ते हुए निर्मम शब्दों के अमोघ बाण!” 

2. स्त्री की भी कुछ भावनाएँ होती हैं, अगर उनका सम्मान नहीं किया गया तो विवशता या भावुकता में किए गए फ़ैसले, ख़ासकर विवाह विषयक निर्णय के कुपरिणाम देखने को मिलते हैं।

3. कवि ने मंथरा जैसे पात्रों के माध्यम से दर्शाया है कि-पारिवारिक रिश्तों में किस तरह दरारें पड़ती हैं, इससे बढ़कर और कोई उदाहरण, पौराणिक ग्रन्थों में नहीं मिलता। “मैं विष खाकर मर जाऊँगी; परन्तु सपत्नी की दासी बनकर नहीं रहूँगी।” दुष्टों के अमंगलमय वचन पवित्र हृदय को कलुषित कर ही देते हैं। फिर यहाँ तो राम की इच्छा से रामकाज कराने के लिये भगवती सरस्वती कैकेयी की मति फेर गयीं और कुब्जा की जिह्वा पर आ बैठी थी। कैकेयी विलाप करने लगीं। मंथरा ने उन्हें आश्वासन दिया। महाराज से दोनों पूर्व के वरदान माँगने की स्मृति दिलायी। कोपभवन में मान करने की युक्ति भी उसी ने सुझायी।

4. कवि ने तत्कालीन सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक परिस्थितियों का उल्लेख करते हुए यह बात सिद्ध करने से पीछे नहीं हटे हैं कि आए दिन शत्रुओं के धावों से प्रभावित हो कर राजा अपनी कमसिन उम्र की पुत्रियों का विवाह वयोवृद्ध राजाओं से कर देते थे, बिना अपनी पुत्री की इच्छा को जाने। दशरथ और कैकेयी की शादी इसकी पुष्टि करती है।

5. इस ग्रंथ में महाराज जनक के अनुज कुशध्वज की तीन पुत्रियों मांडवी, उर्मिला और श्रुतिकीर्ति के वैवाहिक बंधन के लिए, भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न के पास प्रस्ताव भेजने का वर्णन मिलता है। मगर आमिष की पुस्तक “सीता’ज सिस्टर” के अनुसार उर्मिला, सीता की सगी बहन थी।

6. कवि ने मंथरा को दासी के पद से मुक्ति देते हुए उसे कैकेयी की सखी का दर्जा दिया है। इस तरह अपने समय से प्रभावित होकर भले ही यह प्रेरणा मिली हो, मगर स्त्री विमर्श का लाभ कैकेयी को न मिलकर मंथरा को दलित विमर्श का लाभ अवश्य मिला है।

नाम मंथरा मंदमती चेरी कैकेयी केरि। 
अजस पिटारी ताहि करि गई गिरा मति फेरि॥

7. कवि कुछ विषयों पर स्पष्ट नहीं कर पाए हैं, जैसे—कैकेयी का पश्चाताप। जब भरत ने उसे माँ कहने से इनकार कर दिया और अपने आपको कैकेयी का पुत्र होने पर कोसने लगा। जितनी आशाएँ उसे भरत पर थीं, सारी की सारी नष्ट हो गईं। इसके अतिरिक्त, चित्रकूट पहुँच कर श्री राम के सम्मुख जाने से डरकर वह एक पेड़ की ओट में छिप गई। पूछने पर भी जब भरत ने कैकेयी के सम्बन्ध में मौन धरण किया तो राम ने स्वयं उन्हें खोज निकाला और उनके चरणों में अपना सिर रखकर कहने लगे, “आपने कोई अपराध नहीं किया है। देवताओं ने सरस्वती को भेजकर मंथरा की बुद्धि में भ्रम उत्पन्न कर दिया था और मेरी भी ऐसी ही इच्छा थी।” श्री राम ने माता को आदर देते हुए समझाया, “देवकार्य के लिए मेरा वन आना आवश्यक था। मेरी ही इच्छा से आप इसमें निमित्त बनी हैं। आपने कोई भी अपराध नहीं किया। सम्पूर्ण संसार की निंदा, सदा के लिए अपयश लेकर भी आपने मेरे कार्य को पूर्ण होने में योग दिया है। मैं आपसे अत्यंत प्रसन्न हूँ। आप आनंद से अयोध्या लौटें। श्री भगवान का भजन करने में चित्त लगावें। आपकी आसक्ति का नाश हो गया है। अपमान तथा घृणा ने आपके प्रबल अहंकार को नष्ट कर दिया है। आप निश्चय ही भगवत धाम प्राप्त करेंगी।” कवि उद्भ्रांत ने कैकेयी के दोष-निवारण पर चुप्पी साधी है। आदि कवि वाल्मीकि ने कैकेयी की दुष्टता और कुटिलता का स्पष्ट शब्दों में चित्रण किया है। चित्रकूट की यात्रा करते समय राम को यह आशंका हमेशा बनी रहती है कि कहीं कैकेयी, कौशल्या व सुमित्रा को ज़हर खिलाकर मार न दे। भरत को राज्य दिलाने के लिए दशरथ के प्राण न ले ले। सीता के द्वारा रामायण में आगे जाकर कैकेयी के दोष निवारण का प्रयत्न किया गया है। जब भरद्वाज राम से कहते हैं—कैकेयी को दोष नहीं देना चाहिए क्योंकि राम का निर्वासन सभी के हित में होगा। इसी तरह शापदोष सहित कैकेयी का भी उल्लेख मिलता है कि उसने कभी किसी ब्राह्मण की निंदा की थी और ब्राह्मण ने कैकेयी को शाप दिया था कि तुम्हारी भी निंदा की जाएगी। शाप का उल्लेख रामायण मंजरी, कृतिवास और बलराम दास के रामायणों में मिलता है। विमल सूरी के अनुसार कैकेयी ने भरत का वैराग्य दूर करने के लिए भले ही राज्य माँगा था, मगर राम के लिए वनवास नहीं। वे स्वेच्छा से वन की ओर प्रस्थान करते हैं। इसी तरह वसुदेवहिन्डी, धर्मखिणड़, तत्वसंग्रह रामायण आदि में अलग-अलग प्रसंगों का उल्लेख मिलता है। प्रतिमा नाटक में कैकेयी के दोष निवारण के लिए अलग भाव का प्रयोग किया है—जब राम को वशिष्ठ, आदि के परामर्श के पश्चात वन भेजने का निर्णय लिया जाता है, तो भरत उनसे पूछते हैं—आपने चौदह वर्ष का वनवास क्यों दिलाया तो, कैकेयी उत्तर देती है चौदह दिन के स्थान पर उनके मुँह से ग़लती से चौदह बरस निकल गया। भवभूति के महावीर चरित और मुरारीकृत अनर्घराघव में कैकेयी को दोषी न ठहराते हुए स्वयंवर के समय शूर्पणखा मंथरा के वेश में मिथिला पहुँचकर दशरथ को कैकेयी के फ़र्ज़ी पत्र देने का उल्लेख मिलता है जिसमें वर के बल पर राम का निर्वासन माँगा गया।

इस तरह बाल रामायण, बलराम दास रामायण, तोरवे रामायण, रामलिंगमृत तथा राम चरित्र मानस में इस सम्बन्ध में अलग-अलग उल्लेख मिलता है। 

8. रामकथा के अनुसार कैकेयी को वरप्राप्ति की संख्या और उनके विषय में भिन्नता पाई जाती है। वाल्मीकि रामायण के अनुसार कैकेयी को दो वर प्राप्त हुए थे। जबकि महाभारत, रामकियन और पदमपुराण के अनुसार उन्हें केवल एक वर मिला था जिसके आधार पर वह भरत के लिए राज्य और राम के लिए वनवास माँग सकती थी। आनंद रामायण के अनुसार—एक मुनि ने बालिका कैकेयी की सेवा से संतुष्ट होकर यह वरदान दिया था कि समय पड़ने पर तुम्हारे हाथ वज्र जैसे कठोर हो जाएँगे। जबकि तेलुगू द्विपद रामायण के अनुसार शम्बर ने दशरथ से युद्ध करते समय माया का सहारा लिया था। लेकिन धबलंग से सीखी हुई माया के द्वारा कैकेयी ने शंबर की माया का प्रभाव नष्ट कर के दशरथ को बचाया था। इसी तरह ‘भावार्थ रामायण’ में कैकेयी ने राजा दशरथ के इन्द्र के विरोध युद्ध में सहयोग करने, कृतिवास रामायण तथा असमिया बालकांड में शम्बर युद्ध के अवसर पर कैकेयी को एक वर मिला था। लोक गीतों में कैकेयी दशरथ के पैर से काँटा निकालकर वर प्राप्त करती है। पाश्चात्य वृत्तांत के अनुसार कैकेयी ने बिच्छू से डसे हुए दशरथ को स्वस्थ कर दूसरा वर प्राप्त किया था। इसी तरह संधदास की वसुदेवहिण्डी में कैकेयी की वरप्राप्ति का वर्णन मौलिक है। प्रथम वर उनको कामशास्त्र में निपुणता के कारण दिया जाता है। दूसरे वर की कथा इस प्रकार है। किसी दिन एक सीमावर्ती राजा ने दशरथ को युद्ध में क़ैदी बना लिया था। यह सुनकर कैकेयी ने सेना का नेतृत्व लेकर विरोधी राजा को हराया तथा दशरथ को मुक्त किया था। इसी तरह पउमचरिय, दशरथ जातक, दशरथ कथानक में कैकेयी को एक वर देने का उल्लेख मिलता है, वह भी भरत के जन्म के अवसर पर। जबकि ब्रह्म पुराण में कैकेयी को तीन वर प्राप्त होते हैं। 

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