त्रेता: एक सम्यक मूल्यांकन 

 

शान्ता महाराजा दशरथ की एक मात्र पुत्री थी और राम कथा में वह सदैव उपेक्षित रही है। यहाँ तक कि रघुवंश में कालिदास तथा वाल्मीकि ने भी अपने काव्य में संस्पर्श तक नहीं किया। कौशल्या की इस पुत्री ने महाराजा दशरथ के चेहरे पर चिंता की रेखा खींच दी थी, और धीरे–धीरे जैसे दशरथ की उम्र बढ़ती जा रही थी और वह अपने राज्य के उत्तराधिकार के लिए चिंतित रहने लगी। वैसे-वैसे शान्ता जैसी पुत्री को जन्म देने वाली माँ कौशल्या का अनुराग तिरोहित होते हुए पहले उपेक्षा फिर ठंडेपन में बदलता गया। कवि उद्भ्रांत की इस सोच ने गौरवशाली रघुकुल में “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता” जैसे शास्त्रीय वचनों पर प्रश्नवाचक चिह्न खड़ा कर दिया। माँ कौशल्या ने पुत्री को जन्म देकर क्या ऐसा कोई अपराध कर दिया कि महाराज का सारा ध्यान कौशल्या से हटकर कैकेयी की रूप पिपासा पर केन्द्रित हो गया। कौशल्या धीरे-धीरे अपनी भावनाओं पर क़ाबू पाते हुए, आँसुओं को पत्थर बनाते हुए ईश्वर आराधना में लीन रहने लगी। कवि उद्भ्रांत शान्ता के माध्यम से यह कहलवाना चाहते हैं “तत्कालीन राजवंश की पुरुष परंपरा के निर्मम हाथों में कौशल्या का शोषण हुआ और शान्ता का बचपन असहाय हो गया। पितृत्व की ओछी लालसा के राज सिंहासन पर शान्ता के जन्म के बाद न तो कभी मंगल गीत गाये गए और न ही राजमहल में कोई चहल-पहल, चारों तरफ़ केवल सन्नाटा ही सन्नाटा। दशरथ ने आपातकालीन बैठक बुलाकर कन्या जन्म की बदनामी से मुक्ति पाने के लिए, मुझ जैसी नवजात बालिका को दूर कहीं वन में छोड़ने अथवा सरयू की धारा में बहा देने अथवा मेरी अविलम्ब हत्या की अनेकानेक कर्कश ध्वनियाँ फूटने लगीं। दशरथ परम प्रतापी न होकर कायर व नपुंसक थे, लेकिन दुःख तो इस बात का भी है, तत्कालीन समाज के बड़े-बड़े ऋषि-महर्षि प्रतिष्ठितगण रघुकुल के गुरु महामुनि वशिष्ठ, विश्वामित्र सभी ने उनके पक्ष में कोई आवाज़ नहीं उठाई। तब उसे ऐसा लगा कि मुझ जैसी नन्ही बच्ची के अस्तित्व से घबराकर बड़े-बड़े वीर दार्शनिक चिंतक, ऋषि-महर्षि सभी ने एकजुट हो कर मेरे ख़िलाफ़ महायुद्ध का शंखनाद कर दिया हो। उस सभा में पुत्रेष्टि यज्ञ (पुत्र की कामना वाले यज्ञ के आयोजन) करने का सर्व सम्मति से निर्णय लिया गया और पुत्री जन्म के अमंगल सूचक अपशकुन मिटाने के लिए यथेष्ट दक्षिणा और दान करने का भी तय किया गया।” 

कवि उद्भ्रांत ने इस सर्ग में पुत्रेष्टि यज्ञ की सार्थकता पर संदेह प्रकट करते हुए अपनी जिज्ञासा हेतु पुत्रिष्टी यज्ञ के उद्देश्य पर भी शंका ज़ाहिर की है कि महाराज दशरथ जैसे धनाढ्य और समृद्ध राजा क्या पुत्री वाले यज्ञ से डर गए थे और अपनी पुत्री शान्ता का विवाह वृद्ध शृंगी ऋषि के साथ बचपन में ही कर उसे बालिका वधू बना दिया। उसके खेलने, कूदने, पढ़ने-लिखने की इच्छाओं का ख़्याल किए बिना। “मनु स्मृति” की संहिताओं ने मानो धरती माँ के कर्ण विवरों को पिघला शीशा डालकर बंद कर दिया हो। शायद इसी कारण दशरथ की पुत्री की प्रकृति पूरी तरह से शान्त हो गई और “शांताकारम् भुजग-शयनम” के अनुरूप उसका नाम ही सार्थक कर दिया। शान्ता की आत्मा को इस बात का अभी भी दुख होगा कि उसके पिता ने उसकी उपेक्षा कर पुत्रेष्टि यज्ञ के माध्यम से तीन रानियों के द्वारा चार छोटे-छोटे राजकुमारों को जन्म दिया। मगर आज भी शान्ता समाज के समक्ष परोक्ष-अपरोक्ष रूप में चेतन-अवचेतन मन पर कई सवाल उठा रही है। 

देवदत्त पट्टनायक की पुस्तक “सीता रामायण” के अनुसार जब राम दंडक अरण्य में जाते हैं तो राम लक्ष्मण की मुलाक़ात एक सुन्दर-स्त्री से होती है। उस समय वह अपना परिचय देते हुए यह कहती है, “मैं राम की बड़ी बहन शान्ता हूँ” और सीता को समझाते हुए कहने लगती है, “अपने पति के साथ जंगल में जाने का निर्णय उत्तम है; मगर एक वधू के रूप में जंगल में वनभ्रमण करना ठीक नहीं है, वह भी दो सुन्दर पुरुषों के साथ। क्योंकि दोनों में से कोई भी तुम्हारी तरफ़ नहीं देखेगा, एक इसलिए कि वह संन्यासी है और दूसरा इसलिए कि तुम्हारे पति का भाई है। तुम्हारे चारों तरफ़ केवल चिड़ियों की चहचाहट, सर्पों की फुफकार, मेढ़कों की टर्रटर्र और जंगली जानवरों की दहाड़ मिलेगी। उस समय तुम अपने आपको किस तरह क़ाबू कर पाओगी और वह भी उस अवस्था में जब, राक्षस जिनके लिए सतीत्व का कोई अर्थ नहीं है तथा अपने जंगल-जिसकी कोई सीमा नहीं है।” सीता शान्ता की यह सारी बात नहीं समझ पाई कि वह सब रोमांटिक कहानियों और प्रेम-संगीत के बारे में बता रही है। यह सोचकर शान्ता ने उसे बताया, “तुम अभी जवान हो और तुम्हारा शरीर लगातार बदल रहा है, मैं एक चीज़ का अनुभव कर रही हूँ; तुम भी अनुभव करोगी कि तुम्हारा जंगल में क़दम रखना अपने आप में एक वरदान है। तुम वास्तव में इस धरती की पुत्री हो।” 

देवदत्त पट्टनायक के अनुसार सीता और शांता के वार्तालाप दक्षिण भारत की लोक कथाओं में मिलते हैं। तमिल मंदिरों में तथा श्री वैष्णव परंपराओं के अनुसार सीता और राम सोते समय बीच में धनुष रखते थे। जो उनके ब्रहमचर्य पूर्वक जीवन जीने का प्रतीक था। यही नहीं, वनवास के पूर्व और वनवास के दौरान राम और सीता में शारीरिक सम्बन्ध बनने की धारणा को माना जाता है। वास्तव में संस्कृत नाटकों में यह दर्शाया गया है। मगर उन शारीरिक सम्बन्धों में कोई पुत्र प्राप्ति नहीं हुई, जबकि दोनों की युवा अवस्था में असंभव प्रतीत होता है। इसीलिए ऐसा माना जाता है कि दोनों ने ब्रह्मचर्य पूर्वक जीवन बिताने का निर्णय लिया था, राम ने संन्यासी के रूप में और सीता ने संन्यासी की पत्नी के रूप में। 

देवदत्त पट्टनायक की पुस्तक “द बु्क ऑफ़ राम” (The Book of Ram) के “दशरथ पुत्र” अध्याय में लिखा है कि वाल्मीकि रामायण में शांता की कहानियों में इस संदर्भ में कुछ जानकारी अवश्य मिलती है। विभाण्डक ऋषि तथा उर्वशी के पुत्र “ऋषि शृंगी का अभिशाप”-ऋषि शृंगी ने बादलों से अपने आपके भींगने पर नाराज़ होकर अभिशाप दे दिया कि वे ज़्यादा बारिश न कर सके, ताकि उनकी तपस्या में किसी भी प्रकार का विध्न न पड़े, और उन्हें सिद्धियाँ प्राप्त हो सके। ऋषि शृंगी के इस अभिशाप से मुक्ति पाने का एक ही इलाज था, उनकी शादी कर देना। देवताओं ने स्थानीय राजा लोमपद (Lompada/Rompada) अंग देश के महाराज तथा भट का नामक वेर्शिनी (vershini) से कहा-जब तक उन्हें स्त्रियों का ज्ञान नहीं होगा तब तक अकाल पड़ता होगा। मगर लोमपद की कोई पुत्री नहीं थी, जो संन्यासी को गृहस्थ बना सके। इसीलिए उन्होंने राजा दशरथ की पुत्री शान्ता को गोद लेने की अनुमति प्रदान की। ऋषि शृंगी को पति के रूप में स्वीकार कर अकाल की समस्या से सामाधान पाया गया और लोमपद के राज्य में फिर से बारिश होने लगी। शान्ता और शृंगी की यह कहानी रामायण को गृहस्थ लोगों के काव्य में बदलता है, जहाँ दुनिया प्रति पल बदल रही है और अनित्यताओं से भरी हुई है, वहाँ उन चीज़ों से भागना या दुनिया का परित्याग करना ख़तरनाक और विनाशकारी साबित हो सकता है। इसीलिए जब ऋषि शृंगी पति के रूप में शान्ता को गले लगाते हैं, तो बारिश होती है और पृथ्वी खिलखिला उठती है। स्टार प्लस (star plus) पर दिखाया जा रहे टीवी सिरियल ‘सिया के राम’ (Siya ke Ram) के अनुसार शान्ता अपने जैविक माता-पिता के साथ रहती थी। मगर स्वेच्छा से राजमहल और अपने माता-पिता को त्याग कर ऋषि शृंगी से शादी करने के लिए चली गई। क्योंकि मात्र यही एक तरीक़ा था जिसकी वजह से उसके पिता दशरथ को पुत्रों की प्राप्ति हो सकती थी। शान्ता और ऋषि शृंगी के वंशज सेंगर (Senger) राजपूत हैं। मात्र ऐसे राजपूत हैं जो ऋषिवंशी राजपूत हैं। शान्ता वेद, कला और शिल्प में सिद्धहस्त थी और अपने ज़माने की बहुत ही ख़ूबसूरत स्त्री थी। शान्ता का ऋषि शृंगी से शादी करने का मुख्य उद्देश्य अपने पिता की वंशावली में बढ़ोतरी करना था। ऋषि शृंगी ने अपने ससुर दशरथ के यहाँ पुत्र-कामेष्टि यज्ञ कर उनके वंश को आगे बढ़ाया और दशरथ के राम, भरत और जुड़वाँ लक्ष्मण और शत्रुघ्न पैदा हुए। हिमाचल प्रदेश के कुल्लू ज़िले से पचास किलोमीटर दूर पर ऋषि शृंगी का एक मंदिर है जिसमें ऋषि शृंगी की पूजा देवी शांता के साथ होती है। डॉ. आनन्द प्रकाश दीक्षित के अनुसार त्रेता के कवि की सूझबूझ ने इस बात को लक्षित करके शान्ता के चरित्र का मौलिक गठन किया है और उसके माध्यम से नारी विमर्श से जुड़ी समस्यओं को काव्य में अंतर्निविष्ट कर लिया है। शान्ता का जीवन और मनोस्थिति रामकथा की अन्य राजकन्याओं से पूरी तरह भिन्न है। किसी के साथ वह घटित नहीं हुआ, जो शान्ता के साथ उसके जन्म लेते ही हुआ। कन्या जन्म आज भी एक समस्या है। भ्रूण हत्या, जन्म लेते ही परित्याग या हत्या, पराया धन मानकर कन्या की उपेक्षा, पुत्र की तुलना में उसे हीन मानना, उसकी शिक्षा का समुचित प्रबंध न करना, उसे बोझ समझना, उसकी इच्छाओं, आकांक्षाओं की संपूर्ति न कर उनका दमन करना आदि अनेक स्थितियाँ हैं, जो समाज के सामने कठिनाइयाँ उपस्थित कर रही हैं। शान्ता का जीवन घनीभूत पीड़ा का जीवन है। सारी आपदाएँ-समस्याएँ जैसे उसी के भाग्य में लिख दी गई हैं। इसीलिए कवि उद्भ्रांत शान्ता सर्ग के माध्यम से कहलवाता है: “शान्ता मैं महाराजाधिराज दशरथ की पुत्री एकमात्र/अकथ मेरे जीवन की कथा/ . . . कोई मुझे जानता तक नहीं/पहचानने की बात क्या करूँ में!” जैसे अवसादपूर्ण शब्दों से शुरू करती है। और मानती है कि “रघुकुल जैसे/गौरवशाली कुल में/जन्म लेकर भी/मैं रही अभागी ही।” 

शान्ता का अभाग्य यह तो है ही कि, “मेरे नाम को/मेरे काम को, नहीं मिला-किसी वाल्मीकि की तूलिका का/सामान्य संस्पर्श तक।” (और शान्ता से ऐसा कहलाकर कवि उसे विषाद की व्यंजना के साथ-साथ वाल्मीकि से अपनी स्पर्द्धा की व्यंजना भी करता दिखाई देता है, उसके व्यथा के और भी अनेक कारण हैं। अन्यान्य कारणों में से पहला कारण है, उसके जन्म होते ही रघुवंशियों के मुखमंडल का निस्तेज और महाराज दशरथ के मुख का विवर्ण हो जाना। उनके मस्तक पर चिंता की रेखाएँ खिंच गईं। नंगी तलवार-सी। उत्तराधिकारी न पाने के कारण माँ का तिरस्कार भी हुआ, “महारानी कौशल्या के प्रति/ उनका अनुराग हुआ/तिरोहित/उसमें स्थान लिया शनैः-शनैः/उनकी उपेक्षा का” और वह अपेक्षा भी उनके प्रति ठंडेपन (coldness of behaviour) में बदलती चली गई। चोट खाई हुई शान्ता एक आधुनिका के समान प्रश्न पूछती है। 

“माँ कौशल्या का दोष क्या था–/ जो जन्म दिया/उन्होंने एक पुत्री को/महाराज भी/कारक थे/मेरे इस अभागे जन्म के।” और शायद शांता ही नहीं, स्वयं कवि भी इसके औचित्य को प्रश्न चिह्नांकित करता है:

“पुत्री के प्रति ऐसा/भाव उपेक्षा का, 
क्या था अनुकूल/गौरवशाली रघुकुल में?” 

आश्चर्य नहीं यदि कोई पाठक भी कवि से यही जानना चाहे। कवि उद्भ्रांत ने शान्ता के इस प्रश्न को सांस्कृतिक स्तर पर जोड़कर उसे महार्घता प्रदान करते हुए कहा है:

“महाराज पुरखों के/शास्त्रवचनों को -/कर गए थे क्यों विस्मृत/यत्र नार्यस्तु पुजन्ते/रमन्ते तत्र देवताः।” 
उनके राजसी चिंतन में/न आया क्यों ऐसे भाव कि-/
नारी का अस्तित्व नहीं होता तो/महाराज स्वायंभुव मनु कैसे /
करते प्रारंभ/मानुषों से भरी/सृष्टि का।” 

और वे फिर शान्ता के साथ पुत्री-जन्म की दोषी मानी जाने वाली माता (कौशल्या) की इस नियति को लेकर चिंतित हो गए है कि पुरुष उसे दंडित करने के अभिप्राय से किस तरह रूप-सौंदर्यशालिनी सपत्नी के प्रति समर्पित हो जाता है! जैसे मानो–“उन्हें दंडित करने को संभवतः/महाराज दशरथ ने अपना चित्त केंद्रित कर दिया/माँ कैकेयी के/दिये की लौ जैसे/तप्त रूप पर!” पुत्री-जन्म की प्रतिक्रिया इतनी ही नहीं हुई, बल्कि और भी भीषण प्रतिक्रियाओं का जैसे दौर ही चल पड़ा। कौशल्या ने अपने मन को नियंत्रित करके भगवदाराधना में लीन कर दिया। अश्रु पी लिए और मौन हो गई—नितांत निरीह और असहाय। जन्म पर मंगल विधाएँ तो हुई ही नहीं थी, राजदरबार से लेकर अयोध्या की गलियों तक, शोकाकुल सन्नाटा’ पसर गया। महाराज ने मंत्रिमंडल की एक आपात बैठक बुला डाली। “जैसे राज्य पर/अनायास लगे मँडराने/कोई भयानक संकट/कोई महामारी फैल गई हो या -/किसी प्रबल शत्रु ने/आक्रमण कर दिया हो अचानक/और घेर लिया हो समूचा राज्य!” 

मंत्रिमंडल की उस बैठक में “कन्या के जन्म से जो बदनामी मिली/महाप्रतापी रघुवंशी को -/उसे दूर करने हेतु/किसी ने अस्पष्ट स्वरों में/यह कहा फुसफुसाते हुए -/नवजात बालिका को/दूर कहीं वन में छोड़ दें अथवा/सरयू की धारा में बहा दें।” 

महाराज दशरथ ‘कायर और नपुंसक’ की भाँति देखते-सुनते रहे। रघुकुल गुरु महामुनि वशिष्ठ ने प्रतिद्वंद्वी महामुनि विश्वमित्र की उपस्थिति के कारण ‘कूटनीति के तहत’ मौन धारण कर लिया, मानो स्वीकृति दे रहे हों। उस काल में सोनोग्राफी की सुविधा भले ही नहीं थी, किन्तु ‘दिव्य-ज्ञान-चक्षु’ तो सम्भव थे। यदि उन ‘दिव्य-ज्ञान-चक्षुओं’ से जन्म के पूर्व ही उस बच्ची को देख लिया गया होता तो जन्म से पूर्व ही उसका दुखद अंत भी सुनिश्चित था। इस प्रसंग को कवि ने इतनी सूक्ष्मता से वर्णित किया है और आधुनिक स्थितियों को इस तरह उस काल पर आरोपित किया है कि पाठक का चित्त आकुल-व्याकुल हुए बिना नहीं रह सकता। आधुनिक तंत्र-ज्ञान सोनोग्राफी की जगह दिव्य चक्षुओं का बहाना भी उसे तत्काल मिल गया, किन्तु पाठक यह प्रश्न पूछे बिना शायद नहीं रह सकता कि प्रतापी रघुवंश पर इतनी बढ़ा-चढ़ाकर यह तोहमत क्यों लगाई जा रही है; जबकि कन्याएँ तो और राजाओं के यहाँ भी पैदा हुईं, पली-बढ़ी। महाराज चाहते तो पुत्री के जन्म होते ही उसे मृतक घोषित कराकर, कहीं दबा-फेंककर छुट्टी पा सकते थे। उसके लिए (आपात) मंत्रिमण्डल की बैठक बुलाने की क्या आवश्यकता थी? उतराधिकारी के लिए पुत्र-जन्म काम्य था, तो कुछ अनहोना नहीं था। उसके लिए विचार किया जा सकता था। कन्या की हत्या में बड़े-बड़े वीर, दार्शनिक, चिंतक, ऋषि-महर्षि और स्वयं ‘रघुकुलगुरु’ उपस्थित थे। माना कि महर्षि विश्वामित्र की उपस्थिति में ‘गुरु’ जी को कुछ कहते नहीं बना, पर क्या कहने भर को भी उस युग में कोई ऐसा न्यायनिष्ठ साहसी, सभासद नहीं था जो इस प्रकार की हिंसा का विरोध या प्रतिरोध करता? क्यों कवि ने ‘परम प्रतापी’ पिता को ‘कायर नपुंसक’ होने का आरोप करने का अवसर दिया है। क्यों कवि इसे ‘भ्रूण हत्या’ तक की घृणित स्थिति की कल्पना तक ले गया है? कवि ने इसका एक मात्र कारण बताया, महाराज की उत्तरोत्त्तर अवस्था-वृद्धि। लेकिन अवस्था-वृद्धि का सम्बन्ध उत्तराधिकारी न होने की चिंता से है, कन्या के जन्म होने पर उसके विरुद्ध क़दम उठाने से नहीं है। कन्या होने पर आपात बैठक उत्तराधिकारी की समस्या का हल करने के लिए बुलाई गई होगी न कि सद्यः जात बालिका का क्या किया जाए, इस पर विचार करने के लिए। बालिका के परित्याग या उसकी नृशंस हत्या से उत्तराधिकारी की समस्या हल नहीं होती। कवि उद्भ्रांत इस सारी स्थिति से अवगत न हो, ऐसा नहीं लगता! इसलिए वे उस प्रस्ताव को फुसफुसाहट मात्र के रूप में प्रस्तुत करते हैं। और शेष सारी घटना को बड़ी हुई शान्ता की प्रतिक्रियात्मक सोच के रूप में व्यक्त करते हैं। उस सोच में माँ की दुःस्थिति-जनित उसके प्रति पुत्री का स्नेहादर-भाव भी मिश्रित है। अतएव उसका स्वर आक्रोशात्मक तथा पिता के प्रति अनादरपूर्ण है। 

इस आक्रोश और अनादर का एक और कारण भी है जो आगे पुत्रेष्टि यज्ञ किए जाने के प्रस्ताव के साथ प्रकट हुआ है। वह यह कि–“और पुत्री-जन्म के अमंगल-सूचक/ अपशगुन के दोष के निवारणार्थ/नवजात दान कर दी जाये/किसी विवाहित महर्षि को/देते हुए उन्हें यथेष्ट दक्षिणा /—” 

• “पक्ष बीतते ही कन्या/वापस ले आयी जाये/राजमहल में ही/घोषित करते हुए कि/महाराज कृपालु हुए एक निर्धन जन पर/और उसकी कन्या के/पालन-पोषण, शिक्षा-दीक्षा/और विवाहादि समस्त उत्तरदायित्वों को/निर्वहन के लिए उन्होंने -/उसे गोद लेने का किया उपक्रम/असाधारण” 

• “इससे कन्या जन्म का/असगुन तो मिटेगा ही /
राज्य में चहुँ और कीर्ति फैलेगी/राजा की।” 

पुत्रेष्टि यज्ञ और इस प्रकार का कन्यादानादि दोनों ही अंधविश्वास तो है ही, दूसरा तो छलावा भी है। त्रेता में यह सब प्रचलित रहा हो या न रहा हो, किन्तु आधुनिक चिंतक को वह मान्य नहीं है। शान्ता उस आधुनिकता का प्रतिनिधित्व करती हुई इन मान्यताओं का विरोध करती है। पुत्रेष्टि यज्ञ के विषय में वह प्रश्न करती है:

“क्या पुत्रियों की/उत्पत्ति के लिए भी /
आयोजित होता है/ऐसे ही पुत्रीष्टि यज्ञ” 
और क्या। उसी के पश्चात/जन्मी हूँ मैं भी? 
“क्या पुत्री की कामनावाले यज्ञ में भी/
धन का होता है/असीमित व्यय?” 

अबोध बालिका माँ के सामने एक से एक नए प्रश्न रखती रही, किन्तु माता कौशल्या का मौन नहीं टूटा। उनके मुखमंडल पर उदासी, क्षोभ, करुणा और दुःख के मिश्रित भाव मेघ बनकर अवश्य छा गए। परिणामतः शान्ता भी मौन होती गई और समय से पहले परिपक्व होकर शान्ता हो गई, अपने नामके अनुरूप। इस बीच उसके जीवन में जैसे एक दुर्घटना और घटित हो गई—क्रीड़ा करने और ज्ञान बधू की अप्रतिम पदवी ‘देकर उसका असमय विवाह कर दिया गया। इस तरह एक समस्या उसके जीवन में जुड़ गई। समस्याओं का अंत यहाँ भी नहीं हुआ, बल्कि पुत्रेष्टि यज्ञ के बाद महाराज दशरथ के पुत्रों के जन्म के साथ उसके मन में एक नई ही शंका उभर आई—“पता नहीं, उसका ही प्रभाव था या -/महाराज को पौरुष–वर्ष ने/सूख चुकी पृथ्वी को/किया रस में सराबोर।” उसके प्रश्नों का कोई अंत नहीं हुआ; चेतन-अचेतन में कोई-कोई प्रश्न उठते रहे। 

<< पीछे : तेरहवाँ सर्ग: माण्डवी की वेदना आगे : पंद्रहवाँ सर्ग: सीता का महाआख्यान >>

लेखक की कृतियाँ

साहित्यिक आलेख
पुस्तक समीक्षा
बात-चीत
ऐतिहासिक
कार्यक्रम रिपोर्ट
अनूदित कहानी
अनूदित कविता
यात्रा-संस्मरण
रिपोर्ताज
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में