त्रेता: एक सम्यक मूल्यांकन 

त्रेता: एक सम्यक मूल्यांकन   (रचनाकार - दिनेश कुमार माली)

तीसरा सर्ग: भवानी का संशयग्रस्त मन

 

‘त्रेता’ के तीसरे सर्ग में नारी के रूप में माँ भवानी का वर्णन आया है कि किस तरह उनके मन में कैलाश के शिखर पर ध्यान-मग्न महादेव को देखकर स्वतः यह जानने की इच्छा हो जाती है कि वह किसका ध्यान कर रहे हैं। उस समय भगवान शिव गंभीर स्वर में यह कहते हैं कि विष्णु भगवान दशरथ के पुत्र बनकर लक्ष्मी सहित पृथ्वी पर अवतरित हुए हैं और मेरा परम भक्त मुझसे प्राप्त अनुपम शक्तियों के द्वारा पृथ्वी पर अत्याचार कर रहा है। उसका विनाश करने के लिए भगवान राम ने जन्म लिया है। मेरे लिए दुविधा की बात यह है कि मेरा सर्वोच्च भक्त पुलस्त्य का नाती अत्यंत ही संस्कारवान तथा समर्पित था। यहाँ तक कि उसने अपने अहंकार रूपी दस-दस सिर काटकर मुझे यज्ञ की समिधा के रूप में चढ़ाये थे। इसलिए वह दशानन के नाम से जाना जाता है। यहाँ कवि उद्भ्रांत ने दशानन जैसे मिथक की व्याख्या करने के लिए जो दस सिर वाले रावण के प्रतिरूप में सिर की तुलना अहंकार रूपी मस्तक से कर एक नवीन प्रयोग किया है। उसके आगे रावण के द्वारा किए जा रहे अत्याचारों का वर्णन करते हुए यह कहते हैं कि दंडक अरण्य में सीता हरण कर रावण ने अपने सर्वनाश को बुला दिया है। इस विषय में माँ भवानी का एक नया रूप सामने आया है कि वह सीता जी का वेश धरण कर राम लक्ष्मण के समक्ष प्रकट हो जाती हैं, जिसे राम पहचान जाते हैं और उन्हें मन ही मन प्रणाम करते हैं। इस प्रकार से महादेव और महादेवी के माध्यम से कवि ने स्त्री के मन का चित्रांकन करते हुए निर्बल, असहाय, दलित स्त्री के पक्ष में खड़ा होने का आह्वान करते हुए नारी के गुण-अवगुण का अच्छा ख़ासा चित्रण किया है कि किस तरह एक नारी मायावी भी हो सकती है और उसकी कौन-सी कमियाँ और नारी सुलभ जिज्ञासा जनित आकांक्षाएँ किसी युद्ध अथवा सर्वनाश को आमंत्रित करती हैं। भवानी का यह अध्याय रखने के पीछे शायद उद्भ्रांत जी का यह उद्देश्य रहा होगा कि राम कथा का सत्य बना रहे या एक कथा वाचक के तौर पर शिव के मुख से राम कथा का वाचन भी हो। 

भवानी के माध्यम से कवि मन, वचन, कर्म द्वारा पति के चरणों में सेवा करना ही पत्नी का धर्म है, शायद इस उक्ति को यहाँ चरितार्थ करना चाहते हैं, जैसा कि गोस्वामी तुलसीदास ने ‘रामचरित मानस’ में कहा है:

पतिदेवता सुतीय महुँ मातु प्रथम तव रेख। 
महिमा अमित न सकहिं कहि सहस सारदा सेष॥

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