त्रेता: एक सम्यक मूल्यांकन 

 

कवि उद्भ्रांत के अनुसार शूर्पणखा बचपन से ही चंचल, शरारती, झगड़ालू, उछल-कूद करने वाली, क्रोधी तथा ढीठ लड़की थी। पिता और पितामह ऋषि वंश के होने के कारण उसके क्रिया कलापों से परेशान होते थे। रावण बचपन से ही तेजस्वी, शूरवीर, बुद्धिमान, शिव का परम-भक्त, महापंडित व महायोद्धा था। मनुस्मृति उसने पूरी तरह कंठस्थ कर ली थी और उसको उसमें पूरा विश्वास भी था, उसके अनुसार लज्जा स्त्री का आभूषण है और उसका कठोर होना समाज के प्रतिकूल है। शूर्पणखा बचपन से ही विद्रोहणी थी, गुड़ियों से खेलना कभी अच्छा नहीं लगता था। ये सब प्रवृतियाँ बहुत अच्छी लगती थीं। चूँकि बचपन से ही उसने अपने नाखून कभी नहीं काटे, जो युवावस्था में जाते-जाते वक्राकार सूप की तरह लगने लगे। इसलिये रावण ने हँसी मज़ाक़ में उसका नाम शूर्पणखा से पुकारना शुरू किया, धीरे–धीरे यह नाम लोगों की ज़ुबान पर चढ़ गया और वह अपने माता-पिता द्वारा रखे नाम “सुन्दर” को भूल गई। इसकी व्याख्या कवि उद्भ्रांतजी ने इन शब्दों में करते हैं:

“मैंने जानबूझकर
अपने भीतर पुरुष
हिंस्र प्रवृतियाँ पोसीं। 
 
अपने नखों को
काटती न कभी, 
जिससे मेरे
युवावस्था में पहुँचने से
पूर्व बड़े वे असामान्य रूप से। 
 
मुड़े हुए
वक्राकार नख लगते
सूप लघ्वाकार। 
 
रावण ने ही
सबसे पहले मुझे
व्यंग्य में, विनोद में
नाम दिया–शूर्पणखा। 
 
शनै:शनै:
यही नाम
प्रचलित हो गया मेरा।”

इसके चचेरे भाई खर, दूषण, त्रिशिरा उससे बहुत प्यार करते थे। खर, खरवाणी बोलता था और त्रिशिरा काम, क्रोध, लोभ, तीनों गुणों से संपन्न था। त्रिशिरा अहिरावण का पुत्र था तो खर-दूषण कुम्भकर्ण के जुड़वें बेटे थे। उसका छोटा भाई विभीषण शुरू से ही दब्बू और डरपोक था। रावण ने लंकाधिपति बनकर ही सुन्दर उत्तरक्षेत्र के जंगलों की शासिका उसे घोषित करते हुए और दूषण और त्रिशिरा को सेनापति नियुक्त किया। शायद वे लोग रावण की कूटनीति नहीं जान पाए। एक दिन जब अयोध्या के राजकुमार उन जंगलों में आए, तो उसकी क्रोधाग्नि में आग बबूला होते हुए ख़ूब सोमरस पीकर उन्हें ललकारने के लिए आगे निकल पड़े। जंगल के एक आश्रम में एक सुन्दर राजकुमार धनुष वाण लिए टहल रहा था और आश्रम के भीतर एक सुंदरी, कमनीय, छरहरी बैठी हुई थी। शूर्पणखा उस सुन्दर पुरुष को देखकर आकर्षित हो गई और उसके भीतर की सारी सुषुप्त वासनाएँ फन उठाकर फुफकारने लगी। उसने हिम्मतकर अपना परिचय देते हुए अपने मन की इच्छा को प्रकट करते हुए राक्षसी विवाह का आग्रह करने लगी। वह मन ही मन सोचने लगी कि उसकी सहायता से रावण को अपदस्थ कर विश्व की प्रथम सम्राज्ञी बनने का गौरव प्राप्त करेगी। मगर उसके प्रणय निवेदन को जब राम ने अपने विवाहित होने के कारण ठुकरा दिया तब अपनी सुंदरता का बयान करते हुए शूर्पणखा ने रावण को लंका से हटाने का भी प्रलोभन दिया और राक्षस समुदाय में अविवाहित स्त्री द्वारा अपने मन-पसंद पुरुष को उठाकर ले जाने के बारे में भी उदाहरण प्रस्तुत किया। यह देख लक्ष्मण भड़क उठे और उसके ऊपर प्रहार किया। शूर्पणखा ने यह सारी कहानी अपने भाइयों को बताई, मगर वे लोग उसका प्रतिशोध नहीं ले सके। तब शूर्पणखा ने रावण की शरण ली और अयोध्या के राजकुमार राम और लक्ष्मण के द्वारा उसके साथ हुए अभद्र आचरण के बारे में बताया। उसने कहा कि वह राम से गंधर्व विवाह नहीं कर पा रही है तो नई परंपरा “राक्षसी विवाह” को पुनर्जीवित करना चाहती थी। इस बारे में कवि उद्भ्रांत कहते हैं:

“हमारे समाज में प्रचलित
चार विवाहों में
राक्षसी विवाह ही है सर्वश्रेष्ठ। 
 
आदिम समाज में
इस त्रेता युग में भी
स्त्रियाँ करती है ऐसा विवाह, 
और हमारा समाज
इस पर हर्षित होता।” 

राम के विवाहित होने के बाद भी वह उससे क्यों नहीं शादी कर सकती थी? राम ने उसका अनुरोध ठुकराकर सम्पूर्ण स्त्री जाति का अपमान किया है और उसके भ्रू-संकेत पर छोटे भाई लक्ष्मण ने उसे ज़मीन पर पटककर तलवार से हत्या करनी चाही। जंगल की सम्राज्ञी के साथ ऐसा दुर्व्यवहार? इस तरह शूर्पणखा ने रावण को उत्तेजित करते हुए राम से प्रतिशोध लेने के लिए चुनौती दी और यही चुनौती रावण के पतन के अध्याय की शुरूआत थी। उद्भ्रांत जी की मौलिकता निम्न पंक्तियों से प्रकट होती है:

“मैंने चिंगारी
सुलगा दी थी रावण के मन में–
देखना था मुझे अब यह चिंगारी
लपट बनकर कैसे भस्म
करती है स्वर्णमंडित
उसके साम्राज्य को। 
 
रावण के पतन के
लोमहर्षक अध्याय की
भूमिका प्रारंभ
हो चुकी थी मेरे द्वारा।” 

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