त्रेता: एक सम्यक मूल्यांकन (रचनाकार - दिनेश कुमार माली)
अठारहवाँ सर्ग: पंचकन्या तारा
किष्किन्धा प्रदेश के महाराज बाली की पत्नी तारा थी। तारा के चरित्र का वर्णन करने में कवि उद्भ्रांत उनके व्यक्तिगत गुणों का वर्णन करते हुए लिखते हैं कि उनका वानर समाज में मान-सम्मान था, देवर सुग्रीव उन्हें माँ मानकर नित्य चरण स्पर्श कर आशीर्वाद लेते थे और बड़े भाई को भी पिता के समान मानते थे। सुग्रीव की पत्नी रोमा अर्थात् उनकी देवरानी एक धर्मभीरु नारी थी और सारे समाज में मान-मर्यादाओं का पूरी तरह से ख़्याल रखती थी। कवि उद्भ्रांत के अनुसार दोनों भाइयों में दुर्लभ प्रगाढ़ प्रेम था और दोनों के पराक्रम का डंका पूरे जगत में बजता था। यहाँ तक कि एक बार उनको रावण द्वारा ललकारने पर मल्लयुद्ध में धोबी पछाड़ देकर बाईं बाहु के नीचे रखकर उसकी गर्दन को इतनी ज़ोर से दबाया था कि रावण त्राहि कर उठा था और उसके बाद किष्किन्धा प्रदेश में जाना ही भूल गया। तारा का पुत्र अंगद अत्यंत ही शक्तिशाली, बुद्धिमान और माता-पिता का आज्ञाकारी था। इस तरह कवि उद्भ्रांत ने उनके परिवार को सुखी व समृद्ध दर्शाया है। इस दृश्य को कवि उद्भ्रांत जी ने ऐसे दर्शाया हैं:
“सुख के दिन
बीत रहे थे जीवन के, तभी
आँधी-सी आई एक जिसने
दोनों सगे भाइयों को
एक-दूसरे के प्रति
जान छिड़कते थे जो–
पृथक ही नहीं किया,
बना दिया–
एक-दूसरे के रक्त का प्यासा।”
मगर अचानक उनके जीवन में भी एक आँधी आ गई और वे एक दूसरे के ख़ून के प्यासे हो गए। एक बार मायावी राक्षस से गुफा के अंदर बाली युद्ध कर रहे थे तथा अपने छोटे भाई को गुफा के द्वार पर बैठने का निर्देश दिया और कहा कि अगर 15 दिनों में मैं बाहर नहीं आता हूँ तो तुम इसका मतलब मुझे मारा हुआ जान किष्किन्धा की गद्दी पर आसीन हो कर राज्य सँभालना और मेरे पुत्र अंगद और पत्नी तारा की रक्षा करना। 15 दिन बीतने के बाद भी जब बाली गुफा से बाहर नहीं आए, बल्कि गुफा से रक्त की धार बाहर निकली तो सुग्रीव अपने भाई को मारा हुआ जान, गुफा के द्वार पर शिला रखते हुए दुःखी मनसे किष्किन्धा प्रदेश लौट गये और रोते हुए वहाँ पर पूरा माजरा तारा को बताया, मगर तारा को बिलकुल भी विश्वास नहीं हुआ। मगर जब सुग्रीव ने शपथ खाते हुए बताया तो तारा रोते-रोते मूर्छित होकर भूमि पर गिर पड़ी। सुग्रीव ने अंगद को राजा बनाने का प्रस्ताव रखा तो जाम्बवन्त जैसे मंत्री ने उसके अवयस्क होने के कारण इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया और सुग्रीव को सर्व सम्मति से किष्किन्धा का राजा घोषित कर दिया। मगर एक दिन अचानक वानर समूह “महाराज बाली की जय हो” का गगनभेदी नारा लगाते हुए महलों की तरफ़ बढ़ते आए तो उसे विश्वास नहीं हुआ। महाराज बाली ने सुग्रीव को मारा पीटा, प्रताड़ित किया और किष्किन्धा से निष्कासित कर दिया। इस अवस्था में तारा के मन मस्तिष्क पर क्या गुज़री होगी, उसका वर्णन करते हुए कवि उद्भ्रांत लिखते हैं कि विवाहित स्त्री की भावनाओं के रक्तस्नात होने का ध्यान किये बग़ैर किस तरह वह पटरानी से पदच्युत होकर देवरानी की सौतन बनी थी। एक सुहागन स्त्री के लिये इससे ज़्यादा और क्या विडम्बना हो सकती थी! इस विडम्बना की अभिव्यक्ति कवि के इन शब्दों में:
“अपनी विवाहित स्त्री की भावनाओं के
रक्तस्नात होने का
नहीं करते हुए कोई ध्यान जिसने
उसे पटरानी के स्थान से च्युत करते हुए
देवरानी की सौतन
बनने का उपहार दिया।
सुहाग मेरा अक्षत था,
सुहागिन मैं, पर सुहाग-
मेरा नहीं अक्षत, मैं सुहागन नहीं-
सचमुच मैं बड़ी अभागन थी!”
कवि उद्भ्रांत ने इस घटना को यहीं पर समाप्त न करते हुए राम के सीता की खोज का प्रसंग कर सुग्रीव हनुमान के साथ मैत्री सम्बन्ध स्थापित कर बाली का वृक्ष की ओट से छिपकर उनपर तीर चलाकर प्राणान्त कर दिया और सुग्रीव को पुनः राज्य प्राप्ति करा दी और अंगद को श्री राम का संरक्षण मिल गया। मगर तारा की ज़िन्दगी उलझन में पड़ गई। यह बात अलग है कि समाज ने उसे पंचकन्या के रूप में गिनना शुरू किया। कवि उद्भ्रांत जी तारा के जीवन के बारे में लिखते हैं:
“किष्किंधा-राज्य के अधिकार के संग
सुग्रीव ने वापस पाई पत्नी अपनी,
और मुझ पर भी अधिकार;
अंगद को संरक्षण
मिल गया श्रीराम का।
मेरा तो किसी पर भी था नहीं
कोई अधिकार।
शेष मेरे लिए क्या
रह गया था जीवन में?
अस्तु मैं भी स्वेच्छा से
निकल पड़ी ऐसी राह
जहाँ से नहीं वापसी होती;
और मुझे इसलिए
मानो घोषित करते हुए अमर
समाज ने कर दिया शुरू
परिगणित कराना
एक पंचकन्या के रूप में!”
विषय सूची
- कवि उद्भ्रांत, मिथक और समकालीनता
- पहला सर्ग: त्रेता– एक युगीन विवेचन
- दूसरा सर्ग: रेणुका की त्रासदी
- तीसरा सर्ग: भवानी का संशयग्रस्त मन
- चौथा सर्ग: अनुसूया ने शाप दिया महालक्ष्मी को
- पाँचवाँ सर्ग: कौशल्या का अंतर्द्वंद्व
- छठा सर्ग: सुमित्रा की दूरदर्शिता
- सातवाँ सर्ग: महत्त्वाकांक्षिणी कैकेयी की क्रूरता
- आठवाँ सर्ग: रावण की बहन ताड़का
- नौवां सर्ग: अहिल्या के साथ इंद्र का छल
- दसवाँ सर्ग: मंथरा की कुटिलता
- ग्यारहवाँ सर्ग: श्रुतिकीर्ति को नहीं मिली कीर्ति
- बारहवाँ सर्ग: उर्मिला का तप
- तेरहवाँ सर्ग: माण्डवी की वेदना
- चौदहवाँ सर्ग: शान्ता: स्त्री विमर्श की करुणगाथा
- पंद्रहवाँ सर्ग: सीता का महाआख्यान
- सोलहवाँ सर्ग: शबरी का साहस
- सत्रहवाँ सर्ग: शूर्पणखा की महत्त्वाकांक्षा
- अठारहवाँ सर्ग: पंचकन्या तारा
- उन्नीसवाँ सर्ग: सुरसा की हनुमत परीक्षा
- बीसवाँ सर्ग: रावण की गुप्तचर लंकिनी
- बाईसवाँ सर्ग: मन्दोदरी:नैतिकता का पाठ
- तेइसवाँ सर्ग: सुलोचना का दुख
- चौबीसवाँ सर्ग: धोबिन का सत्य
- पच्चीसवाँ सर्ग: मैं जननी शम्बूक की: दलित विमर्श की महागाथा
- छब्बीसवाँ सर्ग: उपसंहार: त्रेता में कलि
लेखक की कृतियाँ
- साहित्यिक आलेख
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- अमेरिकन जीवन-शैली को खंगालती कहानियाँ
- आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी की ‘विज्ञान-वार्ता’
- आधी दुनिया के सवाल : जवाब हैं किसके पास?
- कुछ स्मृतियाँ: डॉ. दिनेश्वर प्रसाद जी के साथ
- गिरीश पंकज के प्रसिद्ध उपन्यास ‘एक गाय की आत्मकथा’ की यथार्थ गाथा
- डॉ. विमला भण्डारी का काव्य-संसार
- दुनिया की आधी आबादी को चुनौती देती हुई कविताएँ: प्रोफ़ेसर असीम रंजन पारही का कविता—संग्रह ‘पिताओं और पुत्रों की’
- धर्म के नाम पर ख़तरे में मानवता: ‘जेहादन एवम् अन्य कहानियाँ’
- प्रोफ़ेसर प्रभा पंत के बाल साहित्य से गुज़रते हुए . . .
- भारत के उत्तर से दक्षिण तक एकता के सूत्र तलाशता डॉ. नीता चौबीसा का यात्रा-वृत्तान्त: ‘सप्तरथी का प्रवास’
- रेत समाधि : कथानक, भाषा-शिल्प एवं अनुवाद
- वृत्तीय विवेचन ‘अथर्वा’ का
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- उद्भ्रांत के पत्रों का संसार: ‘हम गवाह चिट्ठियों के उस सुनहरे दौर के’
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